2013 में भी ठप हुई थी बातचीत, अब कहां फंस सकता है भारत-यूरोप व्यापार समझौता?

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भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौता जल्द ही आकार ले सकता है. ये साझा दिलचस्पी है, जिसकी एक वजह अमेरिका भी है. जब से ट्रेड वॉर के नाम पर उसने देशों को धमकाना शुरू किया, तब से काफी सारे मुल्क एक पाले में दिखने लगे हैं. हालांकि ईयू को लेकर भारतीय उम्मीदों में आशंका का भी तड़का लगा हुआ है. एक दशक पहले भी उसके साथ हमारी डील आखिर तक पहुंचकर रुक गई थी. 

क्या है मुक्त व्यापार समझौता

यह दो या ज्यादा देशों के बीच होने वाला वो समझौता है, जिसमें वे आपस में व्यापार पर लगने वाले टैक्स, ड्यूटी या रोक-टोक कम या लगभग खत्म कर देते हैं. इससे फायदा ये होता है कि दोनों देशों के उत्पाद एक-दूसरे के बाजार में आसानी से पहुंच पाते हैं. जैसे अगर भारत और यूरोपीय संघ के बीच फ्री ट्रेड डील होती है, तो भारत से कपड़े, दवाएं या आईटी सेवाएं यूरोप में सस्ती पड़ेंगी और यूरोप की कारें, मशीनें या शराब भारत में सस्ती मिलेंगी. इससे दोनों की कंपनियों और कस्टमर्स को फायदा होगा.

क्यों दोनों के लिए विन-विन सिचुएशन

फिलहाल अमेरिकी आक्रामकता के बीच यूरोप भी भरोसेमंद साथी खोज रहा है. दूसरी तरफ, भारत भी अमेरिका से दूरी चाह रहा है. ये समझौता दो सताए हुए पक्षों का मेल हो सकता है, जो बाकी तरह से भी प्रोडक्टिव होगा. 

लेकिन भारत–ईयू एफटीए सुनने में जितना सुहाना लग रहा है, उसके रास्ते उतने ही कंटीले हैं. इसकी वजह है यूरोप का इतिहास. साल 2007 में भी दोनों के बीच ये बातचीत शुरू हुई थी. इस समझौते को ब्रॉड-बेस्ड ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट एग्रीमेंट (BTIA) कहा गया. इसका मकसद था कि दोनों के बीच व्यापार और निवेश को और खुला बनाया जाए. लेकिन 6 साल चलने के बाद आखिरकार साल 2013 में बातचीत बंद हो गई. 

दरअसल यूरोपीय संघ चाहता था कि भारत उसे अपने बाजार में ज्यादा खुले तरीके से काम करने दे. इधर भारत को डर था कि अगर उसने ऐसा किया तो उसकी अपनी कंपनियां और छोटे कारोबार यूरोपीय कंपनियों के सामने टिक नहीं पाएंगे. यही से टकराव शुरू हुआ.

european union india free trade agreement (Photo- Pexels)यूरोपीय संघ काफी सारे दस्तावेजीकरण चाहता है, जिसका दबाव छोटे भारतीय कारोबारियों पर दिख सकता है. (Photo- Pexels)

सबसे बड़ी दिक्कत थी टैरिफ यानी आयात शुल्क

ईयू की इच्छा थी कि उसे ऑटोमोबाइल, शराब, लग्जरी सामान और मशीनरी जैसी चीजों पर कम से कम टैक्स देना पड़े. भारत ऐसा करने को राजी नहीं था क्योंकि इससे पहली नजर में कंज्यूमर को भले फायदा हो लेकिन कंपनियां भारी नुकसान झेलतीं. 

ईयू यह तक चाहता था कि उसे सरकारी खरीद, टेंडर में भी हिस्सा लेने मिले. हमने इसे सख्ती से मना किया. तर्क था कि सरकारी खरीद में देश की अपनी कंपनियों और छोटे उद्योगों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, वरना विदेशी कंपनियां बड़े निवेश और तकनीक के दम पर उन्हें पीछे छोड़ देंगी.

तीसरा मुद्दा था बौद्धिक संपदा अधिकार का

यूरोपीय देश चाहते थे कि भारत अपनी दवा नीति को यूरोपीय मानकों के मुताबिक कड़ा करे, ताकि उनकी बड़ी फार्मा कंपनियों को अपने पेटेंट सुरक्षित रखने में आसानी हो. लेकिन भारत की स्थिति बिल्कुल अलग थी. भारत में सस्ती जेनेरिक दवाओं की इंडस्ट्री बहुत मजबूत है. अगर यूरोप की बात मान ली जाती, तो भारत की जेनेरिक दवाएं बनाना और बेचना मुश्किल हो जाता, जिससे गरीब देशों को सस्ती दवाएं नहीं मिल पातीं. भारत ने कहा कि उसकी नीति पब्लिक हेल्थ को ध्यान में रखकर बनाई गई है, इसलिए वह यूरोप की शर्त नहीं मान सकता.

कुछ शर्तें भारत की भी रहीं 

उसका कहना था कि व्यापार समझौता करना है तो यूरोपीय संघ को भी अपने वीजा नियम ढीले करने होंगे ताकि भारतीय स्किल्ड प्रोफेशनल यूरोप में आसानी से काम कर सकें. यूरोप इसपर सहमत नहीं था. 

साल 2013 में आखिरकार दोनों पक्षों ने बातचीत रोक दी. हालांकि उन्होंने कहा कि दरवाज़ा बंद नहीं हुआ है, लेकिन माहौल ऐसा बन गया कि समझौते पर आगे बढ़ना मुश्किल हो गया. इस तरह भारत-ईयू FTA ठंडे बस्ते में चला गया.

Minister of Commerce and Industry Piyush Goyal (Photo- PTI)केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल टिकाऊ व्यापार समझौते पर जोर दे रहे हैं.  (Photo- PTI)

अब क्या बदला जो समझौते के दिखने लगे आसार

रूस-यूक्रेन जंग के बीच भारत ने अपना स्टैंड साफ रखा. यहां तक कि वो अमेरिकी धमकी के आगे नहीं झुका. इससे यूरोपीय देशों को अहसास हुआ कि भारत एक भरोसेमंद और बड़ा साझेदार बन सकता है. दूसरा, भारत खुद दुनिया की सबसे तेज भागती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो चुका, जिससे बचना यूरोप के लिए संभव नहीं. 

लेकिन फिर बात वहीं अटक सकती है, जहां पहले रुकी थी. हाल ही में वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि यूरोपीय संघ के ढेरों नियम हैं, और इनका पालन करने के लिए जरूरी दस्तावेजी प्रक्रिया इतनी मुश्किल और लंबी है कि कम समय में उसे पूरा करना लगभग नामुमकिन है.

विकसित देश के लिहाज से चाह रहा नियम

ईयू के साथ व्यापार के लिए बहुत सारा डॉक्युमेंटेशन होता है. उन्हें मानवाधिकार, श्रमिकों के अधिकार, उत्पाद की गुणवत्ता और सप्लाई चेन की पारदर्शिता जैसी कई बातों पर सर्टिफिकेट चाहिए. ये इतने सख्त हैं कि छोटे कारोबारियों के लिए ऐसा कर पाना कम से कम तुरंत तो संभव नहीं.

यूरोपीय संघ ने हाल के सालों में दो नए नियम बनाए. दोनों ही पर्यावरण से जुड़े हुए हैं. इनके तहत यूरोप उन देशों से आने वाले उत्पादों पर एक्स्ट्रा टैक्स लगाता है, जिनकी इंडस्ट्री में ज्यादा कार्बन उत्सर्जन हो. इसका मतलब यह है कि भारत जैसे देशों के उत्पाद यूरोप में महंगे पड़ जाएंगे.

यूरोप डेटा सुरक्षा, डिजिटल ट्रांजेक्शन के नियमों पर भी एक समान नीति चाहता है, जबकि भारत इन मामलों में अपने खुद के  कानूनों को प्राथमिकता दे रहा है. ऐसी कई चीजों की वजह से भारत और यूरोपीय संघ के बीच एफटीए अभी भी फंसा हुआ लगता है. अब बेल्जियम में बातचीत जारी है ताकि यूरोप अपने नियमों को लेकर लचीला हो सके.

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