गणपति, गणाध्यक्ष और गणों का स्वामी... नास्तिकों की परंपरा में कैसी है गणेशजी की व्याख्या

1 day ago 1

श्रीगणेश भारतीय समाज में सबसे स्वीकार्य देवताओं में से एक हैं. इनकी स्वीकार्यता का विस्तार इतना अधिक है कि आप भले ही किसी भी देवता की पूजा या आराधना करें, शुरुआत आपको गणपति स्थापना और पूजा से ही करनी होगी. यह बात सिर्फ पूजा-पाठ तक ही नहीं सीमित है. गणेशजी की मौजूदगी हर कार्य के होने और उसके सफल रूप से संपूर्ण और सम्पन्न हो जाने तक में है. सनातन परंपरा में जो पंच 'गं' यानी बीज अक्षर के आधारित पांच आधार हैं, उनमें भी श्री गणेश पहले हैं. बाकी इनके बाद, गौ, गंगा, गीता और गायत्री हैं.

यह बात रही गणेशजी की एक सामान्य मान्यता की, जिसे हमारा समाज मानता है. पुराण कथाओं में गणेशजी के अवतार का वर्णन है, शिव-पार्वती उनके पिता हैं, रिद्धि-सिद्धि उनकी पत्नियां हैं और शुभ-लाभ उनके पुत्र हैं. यह श्रीगणेश की पौराणिक मान्यता है.

सनातन परंपरा में और बारीकी से झांककर देखें तो इसमें हमें अलग-अलग दर्शन देखने को मिलते हैं और इन्हीं में एक प्रमुख नाम आता है लोकायत दर्शन. लोकायत (या चार्वाक) सनातन परंपरा के भीतर ही नास्तिकों की बड़ी सुंदर परंपरा रही है और इसे हिंदू धर्म में ही विशेष मान्यता प्राप्त है. यह नास्तिक विचारधारा जन्म से पहले और मृत्यु के बाद किसी अस्तित्व में यकीन नहीं रखती है. उनके लिए जो कुछ है बस यही जीवन है, इसके बाद कुछ नहीं. इसलिए जब लोकायत दर्शन में गणपति की व्याख्या होती है तो वह किसी भगवान की नहीं बल्कि एक गणप्रमुख, एक गणाधीष, गणाध्यक्ष और एक राजा के तौर पर गणपति की व्याख्या है. यह व्याख्या इंसानी जीवन की जरूरतों से जुड़ी हुई है. 

इस बारे में प्रख्यात दार्शनिक डॉ. हिम्मत सिन्हा बताते हैं कि गणपति को लेकर सबसे सुंदर और श्रेष्ठ व्याख्या लोकायतों की है. लोकायत, जो कि नास्तिक हैं वह भी जब गणपति की मान्यता की व्याख्या करते हैं तो उनके स्वरूप के गहन अर्थों को सामने रखते हैं.  भारतीय संस्कृति में गणेशजी का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है और उनको महत्वपूर्ण बनाती है उनकी व्यापकता. वे न केवल विघ्नहर्ता और सिद्धिदाता हैं, बल्कि उनके प्रतीकात्मक स्वरूप में गहन दार्शनिक अर्थ भी छिपे हैं. गणपति न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और पर्यावरणीय संदर्भ में भी परिभाषित होते हैं. यानी आप उन्हें भगवान या भगवद् सत्ता के रूप में न भी देखें, तो भी गणपति की व्याख्या में जो अर्थ समाहित होते हैं वह उन्हें अनायास ही ईश्वर तत्व तक ले जाते हैं.

इसीलिए सनातन की नास्तिक परंपरा चार्वाक यानी लोकायत दर्शन गणेश को 'गणपति' या 'गणाध्यक्ष' मानता है. बल्कि गणेश नाम भी इसी दर्शन से निकला हुआ है और उनका जो पहला नाम विनायक है, वह भी उनके भीतर के नायक तत्व को ही सामने रखता है. गणेशतत्व संसार का सबसे गूढ़ तत्व है और इसकी विशालता इसमें है कि यह सामाजिक तौर पर आदमी की सबसे सरल और सहज छवि को गढ़ता है.

लोकायत दर्शन कहता है कि गणपति का अर्थ है, जनसमूह का स्वामी या राजा. प्राचीन भारत में गणराज्य छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य थे.
जैसे मिथिला, पांचाल, कुरु आदि. इन गणराज्यों के बीच युद्ध और क्षेत्रीय वर्चस्व की होड़ आम थी. इसके अलावा बाहरी आक्रमण भी होते थे. इन सभी से बचाव के तौर पर ही गणपति यानी गण के स्वामी को चुना गया जो एक गण व्यवस्था या कबीलाई समुदाय की सुरक्षा कर सके. 

गण का स्वामी कैसा होना चाहिए, उसकी क्या खूबियां होनी चाहिए, उसके कर्म कैसे होने चाहिए और उसका चरित्र किस तरह का होना चाहिए, इन्हीं सभी शाब्दिक व्याख्या का मू्र्त स्वरूप ही गणेशजी की प्रतिमा है.  गणेश जी को इन गणराज्यों के मजबूत नेतृत्व का प्रतीक माना गया. लोकायत दर्शन, जो इस लोक से संबंधित है, गणेश को एक ऐसे शासक के रूप में देखता है, जो अपने गण की रक्षा करता है, शत्रुओं का नाश करता है और समृद्धि लाता है. वैदिक परंपरा में प्रार्थना की जाती है कि नदियां हमेशा बहती रहें, बादल समय पर वर्षा करें, और फसलें समृद्ध हों. यह प्रार्थना पर्यावरणीय संतुलन और समृद्धि की कामना को दर्शाती है.


ओम् यन्तु नदयोः वर्षन्तु पर्जंया सुपिप्पला ओषधयोः भवन्तुः ।
अन्नवताम् ओदनवताम् मामिक्षवताम् एषां राजा भूयासम्।।
ओदन् मुत्ब्रुवते परमेष्ठीवा एषः यदोदनः ।
परमामेवैनम् श्रियंगमयति ।।1।।

इस ऋग्वैदिक मंत्र की लोकायत में यही सुंदर व्याख्या है कि देश में वर्षा, जल, औषधि, ओदन (धान और जौ) व अन्य प्रकार के ऋतु फलों और अनाजों से भरा पूरा रहे. इसके कुएं और जलाशय मीठे जलों से भरे रहें. और एषां राजा भूयासम् यानी भूमि का पालक राजा ऐसा हो जो इनकी रक्षा कर सके और इस समृद्धि को बनाए रख सके. 

गणेश या गणपति इस समृद्धि का रक्षक है. फिर कल्पना की गई या चार्वाक ने माना कि यह ऐसा घातक हो कि जो कि एक दांत से शत्रु को विदीर्ण कर डाले. यानी कि चीर डाले और रक्षक की भूमिका निभाए. इसके लिए गणेश स्त्रोत का जो श्लोक है, उसमें भी कहा गया है कि 'दंताघात विदारि' यानी दांत के आघात से ही चीर दे और फिर शत्रु के रुधिर का ही सिंदूर उसके माथे पर शोभा दे. 

'दंताघात विदारि तारि रूधिरैः सिन्दूरशोभाकरम् '


खर्व स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम् 
प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्ध मधुप व्यालोल गण्डस्थलंम् 
दंताघात विदारि तारि रूधिरैः सिन्दूरशोभाकरम् 
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् …

फिर गणपति को शैलसुतासुतं बताया गया है. पौराणिक कथाएं उन्हें माता पार्वती (जो कि पहाड़ों के राजा हिमालय की पुत्री) का पुत्र कहती हैं, लेकिन चार्वाक दर्शन उन्हें शैलसुसासुतं इसलिए कहता है क्योंकि उनका मानना है कि पहाड़ों से निकलने वाली नदी के द्वारा बनने वाला गंगा (हर नदी को गंगा की ही मान्यता)  के मैदानी भाग को अपनी मां की तरह मानने वाला गणपति हो. यानी मातृभूमि का रक्षक और पोषक.

भारत भूमि का ऐसा पुत्र ही गणेश है, इसलिए उन्हें 'शैल सुता सुतम' कहा गया. इसीलिए उनकी प्रतिमा बनाने में मिट्टी की मान्यता भी इसलिए अधिक है, क्योंकि वह गंगा के द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी से निर्मित होते हैं. हिमालय से बहकर आई मिट्टी ने गंगा और सिंधु के मैदानों को विश्व का सबसे उपजाऊ क्षेत्र बनाया. गणेश जी उस शासक के प्रतीक हैं जो इस भूमि का पुत्र होने का गर्व करता है और इसकी समृद्धि की रक्षा करता है. 

ऐसा शासक न तो विदेशी हो सकता है और न ही वह इस भूमि की संस्कृति और संसाधनों को लूटने वाला. वह भारत की धर्म, अर्थ और काम की रक्षा करता है. 

गणपति के विभिन्न गुणों को उनके नामों के माध्यम से समझाया गया है. वे 'सुमुख' हैं, यानी उनकी वाणी मधुर और प्रेरक है, न कि तानाशाही. वे 'एकदंत' हैं, जो एक ही प्रहार में शत्रु का नाश करते हैं. 'गजकर्ण' का अर्थ है कि वे सभी की बात सुनते हैं, चाहे वह कितना ही छोटा व्यक्ति क्यों न हो. यह प्रतीक है एक ऐसे शासक का जो अपने लोगों की आवाज को महत्व देता है. 'लंबोदर' का अर्थ है कि वे रहस्यों को अपने भीतर संजोकर रखते हैं, जिससे शत्रु को कोई भेद न मिले. यह गुण एक मजबूत और विश्वसनीय नेतृत्व को दर्शाता है. 

उनका वाहन चूहा भी गहन प्रतीकात्मकता लिए हुए है. भारतीय माइथोलॉजी में वाहनों का चयन दो तरह से होता है. पहला, यह कि किसी कबीले ने किसी जानवर को अपना टोटम (प्रतीक) माना हो, और उस कबीले को जीतकर उस जानवर को वाहन बनाया गया. दूसरा, यह कि जानवर के अवगुणों को पराजित करके सभ्यता की स्थापना की गई. 

चूहा अपने बिल में दो रास्ते बनाता है, जिससे वह खतरे से बच सके. यह चतुराई और बचाव की प्रवृत्ति का प्रतीक है. गणपति का चूहे पर सवार होना इस बात का संकेत है कि उन्होंने चूहे जैसे अवगुणों (जैसे लूटमार या छल) को पराजित किया और सभ्यता की स्थापना की. दूसरा यह कि गणपति या राजा के पास हमेशा प्लान बी तैयार तो होना ही चाहिए. चूहा हमेशा बिल दो तरफ से खोदता है और इस तरह वह खेत की नीचे की पूरी मिट्टी भुरभुरी कर डालते हैं. सामान्य तौर पर भी आप चूहे को देखें तो वह आपको दोनों तरफ बहुत तेजी से और झटपट दौड़ता हुआ नजर आएगा. 

इस तरह गणपति सुशासन, पर्यावरण संतुलन, और सामाजिक न्याय के प्रतीक हैं. उनकी पूजा इसलिए सबसे पहले की जाती है, क्योंकि एक मजबूत और धर्मनिष्ठ राज्य ही समाज में समृद्धि और शांति ला सकता है. गणपति की पूजा पहले इसलिए होने चाहिए कि समाज में आप से पहले भी वह प्रकृति और वह पर्यावरण सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें आप रहते हैं, निवास करते हैं. गणपति उसी पर्यावरण का एक मूर्ति स्वरूप है.

चार्वाक या लोकायत का नास्तिक दर्शन गणपति की मूर्ति को स्वीकार नहीं करता, लेकिन वह गणपति की ऐसी व्याख्या करता है, जिससे अनुसार भी गणेशजी की ऐसी छवि और प्रतिमा आसानी से गढ़ी जा सकती है. जीवन में गणेशजी की पूजा न भी करें, लेकिन नास्तिक की तरह भी उनके विचारों को उतार कर देखें तो बिना पूजा के भी गणपति पूजा हो जाएगी और जीवन भी सफल होगा. आखिर अपने ईष्ट के गुणों को अपने भीतर उतारना ही तो सच्ची पूजा है और अगर यह धर्म है तो ध्यान रखिए कि धर्म का अर्थ भी धारण करना होता है.

---- समाप्त ----

Read Entire Article