जीवन क्या है और इसे जीने का सही तरीका क्या है? जीवन से जुड़े इन दो सबसे जरूरी प्रश्नों के उत्तर देने में ही सनातन की श्रुति परंपरा में वेदों की रचना हुई. वेदों का रहस्य जब ज्यादा ही अबूझ होने लगा तो उन्हें साधारण रूप में समझाने के लिए उपनिषद बने, इन उपनिषदों की व्याख्या को विस्तार देते हुए और सरल करने की कोशिश ब्राह्मण ग्रंथों में हुई और फिर इन विचारों को जब किरदारों के माध्यम से समझाने की जरूरत महसूस हुई तब रचे गए पुराण.
कहते हैं कि पहले सभी वेद एक ही थे और सभी पुराणों का वर्णन भी एक ही में आता था. इनमें शामिल किरदारों की कथा बहुत उलझी हुई थी. महर्षि व्यास ने वेदों को समान विभाग में बांटा और चार भाग करते हुए, चतुर्वेद का सिद्धांत दिया. उन्होंने ही पुराणों को भी 18 विभागों में बांटा और उनके प्रधान देवता के आधार पर उनका नामकरण भी किया. इन सभी पुराणों में से जो दो कहानियां जीवन के अर्थ, इसके महत्व और इसकी परिभाषा को शब्द देती हैं, वह हैं रामायण और महाभारत...
ये दोनों कथाएं, महाकाव्यों के रूप में लिखी गई हैं और विश्व भर में प्रसिद्ध हैं. इनमें ये बताया गया है कि त्याग ही जीवन का सच्चा अर्थ है. किसी को भी बिना कष्ट दिए जीवन जीने की कोशिश ही जीने का सच्चा तरीका है और सिर्फ अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए कोई भी काम किया जाए (फिर चाहे वह जाप, यज्ञ, तपस्या, दान या फिर पुण्य की लालसा ही क्यों न हो) सभी पाप की श्रेणी में आते हैं. यही पाप कर्म के बंधन में बांधते हैं, जिससे मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है.
महाभारत की पावन कथा, अपने किरदारों के माध्यम से बार-बार यही बात बताती है. फिर चाहे वह प्रसंग नागों की माता कद्रू का हो, जिसमें उसने सिर्फ अपनी सौत बहन विनता को नीचा दिखाने के लिए नागों से छल करने को कहा. या फिर ये कथा राजा परीक्षित के उस पाप की हो, जिसमें उन्होंने साधना में बैठे ऋषि के गले में मरा सांप डाल दिया, या फिर ये कथा तक्षक नाग की ही क्यों न हो, जिसने हर संभव प्रयास कर लिए कि वह राजा परीक्षित को डंसे तो कोई उन्हें बचा नहीं पाए.
तक्षक के इसी दुस्साहस के कारण शोक में डूबा हुआ राजा जनमेजय क्रोधित हो उठा और उसने सिर्फ एक नाग से बदला लेने के लिए सारी नागजाति को ही अपना दुश्मन मान लिया. हस्तिनापुर में बनी विशाल यज्ञ वेदी में जो 'बदले की आग' जल रही थी, उसमें नाग आ-आकर गिरने लगे और इससे बड़ा ही विध्वंसक धुआं उठकर आकाश पर छाने लगा. तक्षक ने यह सब देखा और सुना तो घबराकर देवराज इंद्र की शरण में चला गया. बोला- मैं अपराधी हूं और आपकी शरण में आया हूं. इस पर इंद्र ने कहा- मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए पहले से ही ब्रह्माजी से अभय-वचन ले लिया है, इसलिए निश्चिंत रहो और दुखी मत हो. इंद्र की बात सुनकर, तक्षक आराम से इंद्रभवन में ही रहने लगा.
नैमिषारण्य तीर्थ में सौति कुलभूषण उग्रश्रवा जी से यह कथा सुनते हुए 12000 ऋषियों के प्रतिनिधि और उनके यज्ञ गुरु शौनक जी ने कहा- हे प्रिय उग्रश्रवा! तुमने महाभारत के मर्म का कितना सुंदर वर्णन किया है और जीवन की परिभाषा भी बड़े ही आसान शब्दों में समझाई है, लेकिन अब तुम हम ऋषियों की एक शंका का समाधान भी कथा के माध्यम से करो. तुमने कहा- हस्तिनापुर में नाग यज्ञ में सर्प गिर-गिरकर भस्म हो रहे थे, लेकिन तक्षक नाग इंद्र की शरण में जाकर इंद्रभवन में रहने लगा. इंद्र ने ब्रह्माजी से उसकी रक्षा का वचन भी ले लिया,
लेकिन ब्रह्माजी ने ही कद्रू के श्राप का समर्थन किया था, जब उसने अपने ही पुत्रों को जलकर भस्म हो जाने का श्राप दिया था. तब आखिर ब्रह्माजी ने तक्षक की रक्षा का वचन कैसे दिया. ब्रह्मा के वचन कभी झूठे नहीं होते, लेकिन उनका एक वचन, दूसरे को झूठा करने का कारण बन रहा है. ये क्या रहस्य है? तक्षक के प्राणों की रक्षा कैसे हुई? भीषण सर्प सत्र यज्ञ कैसे बंद हुआ? उग्रश्रवा जी इस कथा और रहस्य को भी बताइए.
ऋषियों के इतने प्रिय वचन सुनकर और उनके प्रेम भरे आग्रह को मानते हुए कथावाचन कर रहे उग्रश्रवा जी ने बहुत विनीत स्वर में बोलना शुरू किया. उन्होंने कहा- ऋषियों! महाभारत की यह कथा बहुत सारे आश्चर्यों से भरी हुई है, यह सिर्फ एक समय में घटी घटना नहीं है, बल्कि यह पूर्व में घट चुकी कई घटनाओं का परिणाम है, बल्कि कई घटनाएं तो पूर्व काल में, और पहले के बीते युग में भी सिर्फ इसलिए हुईं कि द्वापरयुग के अंतिम चरण में महाभारत की महा घटना घटने वाली थी.
ऐसी ही एक घटना युगों पहले कैलाश पर घटी थी. महादेव के तेज का एक अंश गिरा और गिरते ही वह पाताल के नागलोक में पहुंच गया. वहां उस अंश से एक दिव्य कन्या का जन्म हुआ. नागलोक के अधिपति वासुकि भगवान नीलकंठ के गले में उनकी माला बनकर विराजमान हैं और खुद को महादेव का पुत्र मानते हैं, इसलिए उन्होंने इस कन्या को अपनी बहन मान लिया और महादेव की पुत्री के रूप में उसका पालन किया. वह कन्या महादेव की मानसपुत्री थी, इसलिए मनसा कहलाई और नागराज वासुकी ने उन्हें जरत्कारु नाम दिया. उसी समय यह तय हो गया था कि आगे चलकर यह कन्या एक महागाथा में बड़ी भूमिका निभाएगी.
अब आप लोगों को याद होगा कि जब नागमाता कद्रू ने अपने नागपुत्रों को श्राप दिया था, तब परमपिता ब्रह्मा ने भी प्रकट होकर उनके श्राप का समर्थन किया था. उन्होंने कहा था कि इस समय बहुत से ऐसे नाग उत्पन्न हो गए हैं और अपनी शक्ति-सामर्थ्य का गलत प्रयोग करने लगे हैं, इसलिए नागों को यह दंड तो मिलना ही था. समय आने पर नाग माता कद्रू का श्राप भी सत्य होगा. ये सुनकर नाग जाति में हाहाकार मच गया और सभी नाग बहुत चिंतित हो गए.
उन्होंने नागराज वासुकि के नेतृत्व में एक बैठक की और इस विषय पर बहुत दुख जताया और बचाव का उपाय करने लगे. किसी नाग ने कहा कि हम सभी नाग यज्ञ कराने वाले ऋषियों को डंस लेते हैं, न रहेंगे ऋषि न होगा यज्ञ. इस पर वासुकि ने कहा- इस तरह तो सभी नागों पर ब्रह्महत्या का एक और पाप चढ़ जाएगा. दूसरे ने कहा- जिस समय यज्ञ होगा, हम नगर और गांवों में घुसकर कोहराम मचा देंगे, फिर तो राजाओं और ऋषियों का ध्यान भटकेगा तो यज्ञ होगा ही नहीं. एक ने कहा- ऋषियों की यज्ञ सामग्री चुरा लेते हैं, इससे यज्ञ नहीं हो पाएगा. एक ने कहा कि हम खुद ही ऋत्विज मुनियों का वेश बना लेंगे और गलत मंत्र पढ़ेंगे.
अपने नाग भाइयों द्वारा ऐसी अनाचारी बातें सुनकर भक्त हृदय वाले अनंतनाग और शेषनाग जी बहुत दुखी हुए और वह सभा छोड़कर अपने स्वामी विष्णुजी के लोक चले गए. इधर, नागराज वासुकि अपने भाइयों सहित अकेले रह गए. तब उनमें से एक भाई ने कहा- शेष जी, हम नाग हैं और हमारी बुद्धि यूं भी धर्म में नहीं है, इसलिए हम डंस लेने, चुरा लेने जैसे विचार ही दे सकेंगे , अब आप जैसा उचित समझें वह करें.
तब वासुकि नाग और चिंतिंत हो गए कि आखिर किस तरह नागों की रक्षा की जाए? इस चिंता के बीच नागों में सबसे छोटा, एलापत्र नाग हंसा और बोला- हे नाग भाइयों! सुनो, माता का श्राप सत्य होना तय है, यह भी तय है कि नागों की रक्षा भी होगी. दोनों ही बातें जरूर होनी हैं. तब अन्य नागों ने एलापत्र नाग से कहा- भाई तुम यह सब इतना स्पष्ट कैसे कह रहे हो? एलापत्र नाग बोला- जिस समय माता ने यह श्राप दिया था तो मैं छोटा होने के कारण और भय से उनकी ही गोद में जाकर छिप गया. तभी ब्रह्मा जी ने मां के श्राप का समर्थन किया. इसी दौरान देवताओं ने यह चिंता जताई कि, क्या नागों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा? उन्होंने इस पर भी चिंता जताई कि अगर नागों का अस्तित्व खत्म हुआ तो सृष्टि का संतुलन बिगड़ेगा.
तब ब्रह्मदेव ने कहा- सभी नागों का अस्तित्व नहीं खत्म होगा, सिर्फ पाप की ओर बढ़ चले नाग ही भस्म होंगे, उनमें से भी कुछ की रक्षा हो जाएगी. देवताओं ने पूछा कि ये रक्षा कौन करेगा? तब ब्रह्मदेव ने बताया कि नागराज वासुकी की बहन जरत्कारु का विवाह उसी के नाम वाले ऋषि जरत्कारु से होगा. उन दोनों का पुत्र ही नाग जाति की रक्षा करेगा और नाग यज्ञ को बंद करवाकर उनका उद्धार करेगा. देवताओं से ऐसा कहकर ब्रह्माजी चले गए और मां की गोद में होने के कारण मैंने भी यह सब बातें सुन लीं. ऐलापत्र नाग ने कहा- हे बड़े भाई, नागराज वासुकि! इसलिए अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं.
उग्रश्रवा जी बोले- ऋषियों! यह सब सुनकर नागराज वासुकि अपनी बहन का पालन और चाव से करने लगे और उसी दिन से उनके आदेश पर ऋषि जरत्कारु की खोज शुरू कर दी गई थी. शौनक ऋषि के पूछने पर उग्रश्रवा जी ने जरत्कारु का अर्थ भी बताया. कारु का अर्थ होता है हट्टा-कट्टा, जर का अर्थ है क्षीण. ऋषि ने अपने हट्टे-कट्टे शरीर को तपस्या के द्वारा बहुत जीर्ण और दुर्बल कर लिया था, इसलिए वह जरत्कारु कहलाए. इसी तरह नागराज वासुकि की बहन का भी जब जन्म हुआ तब वह स्वस्थ थी, लेकिन बचपन में वह बहुत रोती और खीझती थी. वासुकि कहते थे, यह तो रो-रोकर खुद को क्षीण कर लेती है. इस तरह उस कन्या का नाम भी जरत्कारु हो गया.
उधर, नागराज वासुकि ने ऋषि जरत्कारु की खोज में नागों को भेजा था. ऋषि जरत्कारु भ्रमणशील ऋषि थे और वह एक ही जगह पर अगले दिन नहीं रुकते थे. कई-कई बार वह निराहार तपस्या करते थे और तप साधना में खुद को इतना लीन कर लेते थे कि वास्तविक संसार को भूल ही जाते थे. इसलिए उन्होंने विवाह भी नहीं किया था.
एक दिन ऋषि जरत्कारु किसी वन से गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि कुछ पांच वृद्ध प्राणी एक कुएं में उल्टे लटके हुए हैं और उन्होंने अपने बचाव के लिए एक सूखी घास के तिनके को पकड़ रखा है. इस घास को भी एक चूहा जड़ से कुरेद रहा था. ऋषि जरत्कारु यह देख करुणा से भर गए और उन्होंने उन वृद्धों के पास जाकर उनकी इस स्थिति से बचाव का तरीका पूछा. उन बूढ़ों ने कहा- हे ऋषि, हम जरत्कारु के पूर्वज हैं. हमारा यहां उल्टा लटका होना, नर्क के द्वार पर उल्टे लटके होने का प्रतीक है. ये एक मात्र घास का तिनका ही हमारी मुक्ति है, लेकिन ये चूहा जो इस घास को जड़ से कुतर रहा है, वह यह बता रहा है कि काल किस तरह हमारी एक मात्र वंश बेल को भी काट खाना चाहता है और फिर हम निश्चित ही इस नर्क कूप में गिर पड़ेंगे.
हमारा पुण्य इतना नहीं कि हम मुक्ति पा सकें और जरत्कारु के बाद कोई ऐसा नहीं होगा जो तर्पण से हमें तृप्त कर सके. जरत्कारु ने यह सुना तो वह और विभोर हो गए और अपना परिचय देते हुए कहा- वृद्ध पितरों! मैं ही जरत्कारु हूं और आपकी वंश बेल की आखिरी रेखा मैं ही हूं. अब मैं समझ गया कि मेरी तप साधना बिना आपकी मुक्ति के पूर्ण नहीं होगी, इसलिए मैं विवाह के लिए तैयार हूं.
लेकिन, मेरी भी एक शर्त है. मैं अपने ही नामवाली कन्या से विवाह करूंगा, दूसरी यह कि मैं कहीं भी विवाह की बात चलाने नहीं जाऊंगा. जो कोई मुझे अपनी कन्या विवाह की इच्छा से दान कर देगा, उसी से मैं विवाह कर लूंगा. उससे मेरी संतान उत्पन्न होगी, लेकिन मैं उनके भरण-पोषण के लिए हमेशा जिम्मेदार नहीं रहूंगा. इन सब बातों के साथ अगर सुलभ हो तो मैं विवाह कर लूंगा, नहीं तो करूंगा ही नहीं.
इस संकल्प के साथ ऋषि जरत्कारु पृथ्वी भर में घूमें, लेकिन कहीं उन्हें ऐसी कन्या नहीं मिली. इस तरह वह इस बात से हताश होकर जंगल में आ गए और पश्चाताप करने लगे. एक दिन उन्होंने वन के एकांत में कहा- सभी प्राणी सुनें, मैं अपने पितरों की मुक्ति के लिए संतान उत्पन्न करना चाहता हूं, इसलिए पत्नी की चाह रखता हूं. कोई मुझे अपनी कन्या दे. ऐसा उन्होंने तीन बार कहा- इसी दौरान नाग वासुकि के भेजे गए खोजी गुप्तचर वहां पहुंचे और ऋषि जरत्कारु की यह घोषणा सुनी.
गुप्तचर नागों से यह सब बातें सुनकर, नागराज वासुकि ने अपनी बहन जरत्कारु को आभूषणों से सजाया और वन की ओर चले. वहां उन्होंने ऋषि को अपनी बहन का कन्यादान करना चाहा, लेकिन ऋषि जरत्कारु तुरंत इसके लिए तैयार नहीं हुए. तब नागराज वासुकि ने कहा- हे ऋषि! इस कन्या का नाम आपके ही नाम के समान है. आप इससे विवाह करें. इसका भरण-पोषण मैं करता रहूंगा. यह संबंध खुद विधाता का तय किया हुआ. जरत्कारु ने कहा- आपकी बात ठीक है, लेकिन जिस दिन आपकी कन्या ने मेरे अनुसार कार्य नहीं किया, उस दिन मैं इसे त्याग करूंगा. तब उन्होंने कहा- मैं असल में विवाह ही नहीं करना चाहता था और इसका कारण यह है कि मैंने एक भी दिन से अधिक एक ही स्थान पर न रहने का व्रत लेते हुए तपस्या का मार्ग चुना है, लेकिन मुझे अपने पितरों की आज्ञा का पालन के लिए विवाह करना होगा. इसलिए मैं आपसे कन्या के त्याग जैसी बात कह रहा हूं.
नागराज वासुकि ने ऋषि जरत्कारु की सभी शर्तें मान लीं और अपनी बहन का विवाह उनसे करा दिया. विवाह के बाद नवदंपती साथ-साथ रहने लगे. वासुकि की बहन इस संबंध को दृढ़ता से निभा रही थी. इसी दौरान वह गर्भवती हुई. नागराज वासुकि की एक आस पूरी होने वाली थी, लेकिन इसी बीच एक घटना घट गई. एक दिन जरत्कारु संध्या वंदन के समय सोते रह गए और पत्नी जरत्कारु ने उन्हें इसलिए नहीं उठाया कि शायद वह थके होंगे, थोड़ी देर में उठ जाएंगे.
ऋषि जरत्कारु को जब उठने में देर होने लगी तो पत्नी ने उन्हें उठाने की कोशिश की और उन्हें संध्या वंदन के लिए कहा. ऋषि उठे और बड़े क्रोध में बोले- देवी! तुमने मेरे मन के प्रतिकूल काम किया है, सूर्य में इतनी शक्ति नहीं कि मैं सोता रहूं और वह अस्त हो जाएं. आपने मेरी तप साधना का अपमान किया है, इसलिए अब मैं यहां से जाऊंगा. इस तरह ऋषि जरत्कारु जिस मौके के इंतजार में कई दिन से थे, वह उन्होंने आज निकाल ही लिया था. इस तरह वह गृहस्थ आश्रम से निकल गए. जाने से पहले उन्होंने कहा- तुम्हारे गर्भ में पल रहा यह बालक प्रकांड विद्वान होगा. इसका तेज अग्नि के समान होगा और यह वेद-वेदांग में पारंगत होगा.
नाग कन्या जरत्कारु ने यह सारी बातें अपनी भाई वासुकि को बताईं तो वह दुखी हुआ, लेकिन काल की स्थिति को वह पहले से जानता था, इसलिए उसने अपनी शोकाकुल बहन को समझाया. समय आने पर जरत्कारु ने एक तेजवान बालक को जन्म दिया. वह वासुकि के भवन में ही रहकर बड़ा होने लगा. ऋषि च्यवन से बालक ने वेदों का अध्ययन किया और उसका नाम आस्तीक रखा गया, जो बाल्यावस्था में ही 'मुनि आस्तीक' नाम से प्रसिद्ध हो गया. इस मेधावी बालक को देखकर नाग फूले न समाते थे और नागराज वासुकि उस पर विशेष प्रेम रखते थे, आखिर आने वाले दिनों में वही बालक उनके वंश का रक्षक बनने वाला था. पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश
दूसरा भाग : राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?