रूप चतुर्दशी: आयुर्वेद, सौंदर्य और अध्यात्म का उत्सव, क्यों खास है दिवाली का दूसरा दिन

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दिवाली की पांच दिवसीय परंपरा की शुरुआत शनिवार को धनतेरस के साथ हो गई है. सनातन परंपरा का यह एक ऐसा पर्व है जो सिर्फ पूजा-पाठ से जुड़ा नहीं है, बल्कि आरोग्य और अध्यात्म का अद्भुत संगम है. क्योंकि दिवाली के पहले दो दिन पूरी तरह आयुर्वेद पर आधारित होते हैं. धनतेरस जहां, धन्वंतरि देवता का दिन है तो वहीं दिवाली का दूसरा दिन नरक चतुर्दशी भी आयुर्वेद से ही संबंधित है. 

नरक चतुर्दशी को ही रूप चतुर्दशी भी कहते हैं. रूप की व्याख्या अध्यात्म में की गई है. इस रूप का अर्थ गोरा होना, सुंदर होना नहीं है बल्कि यह रूप आता आंतरिक विचारों की शुद्धि और मन के सुंदर होने से.

रामचरित मानस में गोस्वामी जी कहते हैं...

'मन मलीन तन सुंदर कैसे
विषरस भरा कनक घट जैसे'

(अगर मन में बुरे भाव और मस्तिष्क विचार भरे हों तो शरीर के सुंदर होने का भी कोई लाभ नहीं है, ये बिल्कुल वैसा ही है कि जैसा स्वर्ण कलश में जहर भरा रखा हो.)

क्या कहता है आयुर्वेद?
आयुर्वेद कहता है कि अगर किसी का मन मलीन हो, तो उसका शरीर भी सुंदर नहीं हो सकता है. आयुर्वेद में ऐसे कई शारीरिक विकारों का उल्लेख है जिनके मूल में 'मन का विकार' ही कारण बनता है. उदाहरण के लिए, अगर आप बहुत अधिक चिंता करते हैं तो इसका असर आपके पाचन तंत्र पर पड़ता है और पेट के विकार से आप अक्सर परेशान रहेंगे. इसी तरह चेहरे पर होने वाला झांई नाम का एक रोग भी ऐसा ही है. अगर मन में जलन, शत्रुता, कुटिलता अधिक है तो यह चेहरे पर झांई रोग बनकर प्रकट हो सकता है.

सौंदर्य का पर्व है रूप चतुर्दशी 
दिवाली की शृंखला में दूसरे दिन मनाए जाने वाले त्योहार का नाम यूं तो सामान्य तौर पर नरक चतुर्दशी है, लेकिन इसे भारतीय परंपरा में रूप चौदस भी कहा गया है. ‘रूप चौदस’ में रूप का अर्थ सौंदर्य और चौदस का अर्थ 14वां दिन है. इस दिन महिलाएं खुद को सजाती-संवारती हैं. रूप चौदस पूजा मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा की जाती है ताकि सौंदर्य प्राप्त हो या सौंदर्य में वृद्धि हो, लेकिन इसकी परंपराएं सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं हैं.

रूप चौदस पर लोग सौंदर्य उपचार करते हैं. पौराणिक कथाएं कहती हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर इसी दिन मार गिराया था. नरक चतुर्दशी संसार में बुराई के विनाश और नई रोशनी के आगमन का प्रतीक है. इसलिए, मिट्टी के दीपक कई दिनों तक जलाए जाते हैं. 

ऋतु परिवर्तन के लिए खुद को तैयार करने का समय
असल में दिवाली का त्योहार ऐसे समय पर पड़ता है, जिस वक्त ऋतु परिवर्तन हो रहा होता है. इसलिए दिवाली से पहले शरीर और वातावरण की शुद्धि को दिव्य ऊर्जा के स्वागत के लिए जरूरी माना जाता है. रूप चतुर्दशी इस नए बदल रहे मौसम के स्वागत और आने वाली सर्दियों के लिए खुद को तैयार करने का समय होता है. रूप चौदस पर, लोग अभ्यंग स्नान करते हैं, जो सूर्योदय से पहले सुबह किया जाने वाला एक अनुष्ठानिक स्नान है. इस स्नान में उबटन लगाना शामिल है. बेसन, हल्दी, चंदन, गुलाब जल और सरसों के तेल का ऐसा प्राकृतिक मिश्रण जो अपने विषहरण (टॉक्सिन) और सौंदर्यवर्धक गुणों के लिए जाने जाते हैं.

मालिश और उबटन का दिन
यह मालिश और उबटन न केवल त्वचा को एक्सफोलिएट करता है बल्कि रक्त संचार को ठीक करती है और मानसिक शांति को भी बढ़ावा देती है. आयुर्वेदिक मान्यता के अनुसार, स्नान से पहले तेल लगाना (जिसे अभ्यंग कहा जाता है) त्वचा को पोषण देता है, विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालता है और शरीर के दोषों (वात, पित्त, कफ) को संतुलित करता है.

आध्यात्मिक रूप से, स्नान नकारात्मकता, पापों और थकान को दूर करने का प्रतीक है, जो प्रकाश और पवित्रता में पुनर्जन्म का प्रतीक है, जो दिवाली के सही अर्थ को सामने रखता है. 

उबटन में जो पंच पदार्थ शामिल होते हैं वह सभी पंच तत्वों का प्रतीक हैं. वही पंच तत्व जो हमारे शरीर का निर्माण करते हैं. 

बेसन: उबटन में शामिल बेसन मृत त्वचा को हटाकर प्राकृतिक चमक प्रदान करता है. बेसन धरती तत्व का प्रतीक है और हमारे शरीर को धरती से जोड़ता है.

गुलाब जल- गुलाब के आसवन विधि से तैयार खास गुलाब जल शरीर को आंतरिक ठंडक देता है और जल तत्व का प्रतीक है.

हल्दी: रंगत निखारती है और एंटीसेप्टिक का काम करती है. हल्दी शरीर के वात यानी वायु तत्व को संतुलित करती है. आंतरिक रूप से शुद्ध करती है और बाहरी तौर पर बैक्टीरिया से बचाव का एक सुरक्षा चक्र बनाती है. यह वायु तत्व का प्रतीक है.

चंदनः चंदन भी त्वचा को ठंडक और आराम पहुंचाता हैं और यह आकाश तत्व का प्रतीक है. इससे त्वचा सुगंधित हो जाती है और रूप खिल उठता है.

सरसों के तेल की मालिश: यह शरीर को गर्म रखती है, रक्त संचार में सुधार करती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करती है. सरसों का तेल अग्नि तत्व का प्रतीक है.

हर गृहणी के लक्ष्मी स्वरूपा होने का दिन
विशेष रूप से महिलाएं इस दिन खुद को संवारती हैं और वैसी ही दिव्य बन जाती हैं जैसी कि देवी लक्ष्मी खुद हैं. भारतीय गृहणियों को वैसे भी लक्ष्मी स्वरूपा माना गया है और यह उनके सौंदर्य, खुद से प्रेम करने का दिन है. वह इस रूप-सौंदर्य के साथ ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा की तैयारी करती हैं. कई क्षेत्रों में, लोग अपनी आभा को निखारने के लिए काजल भी लगाते हैं और प्राकृतिक सुगंध या गुलाब के अर्क का उपयोग करते हैं.

ये अनुष्ठान प्राचीन भारतीय समझ को दर्शाते हैं कि सुंदरता केवल शारीरिक नहीं है - यह स्वच्छता, सकारात्मकता और आंतरिक शांति से उत्पन्न होती है.

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