गणपति विसर्जन सही या गलत? क्यों उत्तर भारत में इस परंपरा को लेकर उठते हैं सवाल?

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भाद्रपद महीने की चतुर्थी तिथि से चतुर्दशी तिथि तक का समय देशभर में गणेश उत्सव के तौर पर मनाया गया. घर-मंदिर, गली, चौक और चौबारे में बप्पा की स्थापना हुई और उनके भजन-कीर्तन, आरती आदि से दिशाएं गूंजती रहीं. दस दिन के इस उत्सव के बाद अब समय है विसर्जन का. चतुर्थी तिथि को गणपति की स्थापना के बाद चतुर्दशी तिथि में उनका विसर्जन किया जाता है और इसकी परंपरा बनी हुई है. हालांकि गणपति विसर्जन का समय श्रद्धालु अपनी सहूलियत और श्रद्धा के अनुसार निर्धारित करते हैं. जिसमें श्रद्धालु 1, 5, 7 या पूरे 10 दिन तक गणपति की स्थापना करते हुए इसी अनुसार विसर्जन करते हैं. अनंत चतुर्दशी का दिन गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन का दिन भी माना जाता है.

गणपति विसर्जन को लेकर उठते प्रश्न
लेकिन... गणपति स्थापना के साथ-साथ हर साल विसर्जन को लेकर भी प्रश्न उठने लगते हैं. दरअसल गणेश प्रथम पूज्य और लोकदेवता हैं. लोकायत दर्शन भी उन्हें लोक के प्रतीक के रूप में स्थापित करता है, जहां वह सामाजिक जरूरतों के अनुसार अपने आप ही लोकनायक और विनायक बन जाते हैं, इस तरह उन्हें गणपति कहा जाता है, लेकिन विसर्जन को लेकर अलग-अलग मत इसलिए हैं, क्योंकि श्रीगणेश शुभ-लाभ देने वाले, ऋद्धि-सिद्धि देने वाले और धन के साथ बुद्धि-विद्या के भी दाता है. इसलिए  वह इन सभी शुभ लक्षणों के प्रतीक भी हैं.

Ganesha Chaturthi

क्या है उत्तर भारत में लोगों का मत
उत्तर भारतीय लोगों और विद्वानों का मत कहता है कि श्रीगणेश का विसर्जन नहीं करना चाहिए, क्योंकि अगर उनका विसर्जन किया गया, यानी बुद्धि, विद्या, धन-संपदा का अपने हाथों से विसर्जन कर दिया. यहां विसर्जन का अर्थ विदा कर देना और अपने से दूर कर देना लगा लिया जाता है. तब साधारण भाषा में कहा जाता है कि गणेश जी का ही विसर्जन कर दिया तो हर दिन की प्रथम पूजा में गणेश जी की पूजा कैसे होगी?

इन तमाम तर्कों का पहला उत्तर तो यह है कि गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों का प्रमुख त्योहार है. भाद्रपद मास की गणेश चतुर्थी के दिन पूजन करने की मान्यता इन क्षेत्रों में प्राचीन काल से रही है. हालांकि लंबे समय तक ये सिर्फ घर में होने वाली एक व्रत-पूजा थी, जिसमें मिट्टी-हल्दी, दूध से हथेली के आकार की गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती थीं और फिर पूरे परिवार के सदस्य मिलकर उनकी पूजा करते थे. छत्रपति शिवाजी के समय में मराठा साम्राज्य गणेश चतुर्थी को एक उत्सव की तरह मनाने लगा था. पेशवाई के समय भी गणेश उत्सवों के बड़े आयोजनों के उदाहरण मिलते हैं, हालांकि ये तब तक घर और मंदिरों तक ही सीमित थे. 

आजादी के आंदोलन से घर-घर पहुंचा गणपति समारोह
स्वतंत्रता आंदोलन के समय देश में इसके समानांतर ही धार्मिक आंदोलनों की लहर भी जारी थी. जहां उत्तर भारत में श्रीराम-श्रीकृष्ण की लीलाओं-कहानियों के आयोजन बड़े पैमाने पर होने लगे थे, ठीक इसी तर्ज पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव को भी सार्वजनिक तौर पर लोगों के बीच ले जाने का विचार रखा. उन्होंने इस आयोजन को बड़े पैमाने पर मनाने की शुरुआत की. गणेश पूजा की शुरुआत पुणे से हुई और तब से ही पंडाल सजाकर उसमें प्रतिमा स्थापित करके गणेश चतुर्थी आयोजन किया जाने लगा. 

धीरे-धीरे मूर्ति निर्माण स्थल से पंडाल तक प्रतिमा का लाया जाना भी एक उत्सव बन गया और फिर गणेश विसर्जन तो ऐसा बड़ा उत्सव बन गया कि लाखों-लाखों लोगों की भावनाएं इससे जुड़ गईं. गणेश पंडाल क्रांतिकारियों के मिलने-जुलने और खास बैठकों का भी जरिया बने. इसके साथ ही आमजन को भी बड़े-छोटे का भेद मिटाकर एक साथ लाने का उद्देश्य गणेश उत्सव ने पूरा किया. इस तरह गणेश चतुर्थी और गणेश उत्सव महाराष्ट्र राज्य के लिए सांस्कृतिक पहचान का उत्सव बन गया. इस धार्मिक उत्सव ने वैसी ही ख्याति पाई है, जैसी कि ओडिशा की जगन्नाथ रथयात्रा की विश्व भर में सांस्कृतिक पहचान गई है.

Ganesha Chaturthi

विसर्जन को लेकर तमाम प्रश्न
ये तो रही गणेश पूजा और उत्सव की बात, लेकिन सबसे अधिक वाद-विवाद विसर्जन को लेकर है. असल में महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के साथ विसर्जन भी एक उत्सव है, जिसमें बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं. अब गणेश उत्सव का फैलाव उत्तर भारत तक हो गया है और यह बहस उत्तर और दक्षिण को बांटने वाली भी बन जाती है. कुछ तर्क ऐसे हैं कि गणपति उत्सव सिर्फ महाराष्ट्र की नकल में शुरू हुआ त्योहार है तो इसकी विसर्जन परंपरा भी नकल ही है.

विद्वानों का तर्क है कि गणेश जी महाराष्ट्र में अतिथि बनकर जाते हैं इसलिए वहां उनकी विदाई के प्रतीक के तौर पर विसर्जन करते हैं, लेकिन वह लौटकर तो उत्तर भारत में ही आते हैं, इसलिए जब उनका निवास ही यहां है तो विदाई कैसी? पौराणिक आख्यानों के आधार पर गणेश जी उत्तर दिशा के लोकपाल-दिग्पाल भी हैं. इसलिए लोगों का तर्क एक बारगी सही भी है, लेकिन पूरी तरह नहीं.

स्थापना का जरूरी हिस्सा है विसर्जन
अगर आप स्थापना के कॉन्सेप्ट को मानते हैं तो विसर्जन उसका एक जरूरी हिस्सा भी है. स्थापना और विसर्जन का चक्र बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि जन्म और मृत्यु. निर्माण और संपन्न होने का चक्र या फिर आकार लेने और फिर निराकार हो जाने का चक्र. इसलिए अगर देवता की स्थापना की जा रही है तो उसका विसर्जन भी किया जाता है. यह पूजन विधान का अनिवार्य अंग है. इसकी एक बानगी घरों में होने वाले पूजा अनुष्ठान भी हैं, जब हवन आदि होने के बाद देवताओं से उनके अपने स्थान पर जाने का आह्वान किया जाता है. 

यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकिम्।
इष्टकामप्रसिद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च।।

अर्थः हे देवगणों, आप सभी की मैंने पूजा कि, जैसी मुझे आती थी. आप से प्रार्थना है कि मेरी पूजा को स्वीकार करें और अपने स्थान पर जाएं. वहां से मेरी रक्षा करते रहें, मेरी ईष्ट कामना को पूरा करें और आगे भी मेरे आह्नान को स्वीकार करके मेरे निवास पर आते रहें.  इस मंत्र को बोलकर देवताओं का नाम लेकर और उनका बीज मंत्र बोलते हुए उनका विसर्जन किया जाता है. 

हालांकि यह भी कहा जाता है कि लक्ष्मी-गणेश हमारे घर में विराजमान हों व अन्य सभी देवता अपने-अपने स्थान को जाएं और वहीं से हमारी रक्षा करें.

क्या है देव प्रतिमाओं को रखने का शास्त्रीय नियम
उत्तर भारत में गणेश-लक्ष्मी को लेकर मान्यता है कि वह सभी के घरों में निवास करते हैं और उनके रूप में हर किसी की आर्थिक संपन्नता बनी रहती है. इसीलिए गृहस्थ लोगों के घरों में गणेश-लक्ष्मी को हमेशा ही स्थापित करके रखा जाता है, उनकी विदाई दीपावली जैसे मौकों पर तभी की जाती है, जब उसी दिन नई प्रतिमा की स्थापना की जाती है. घरों में गणेश-लक्ष्मी की प्रतिमा हथेलियों से भी छोटी होती हैं और जो कि घरों में देव प्रतिमा रखने का शास्त्रीय नियम भी है. 

पांडालों में सजती है झांकी
पंडालों में प्रतिमाएं काफी बड़े आकार की होती हैं और उनकी स्थापित प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती है, उनका सिर्फ पूजन किया जाता है. बिना प्राण प्रतिष्ठा के ऊंची प्रतिमाओं को रखना सिर्फ सजावट की तरह होता है, वह देवता और उनसे जुड़ी कथा की एक झांकी होती है. देव प्रतिमाएं सजावट के लिए नहीं होती हैं. इसके अलावा अगर शोडषोपचार पूजन विधि से पूजन किया गया है तो शास्त्रीय आधार पर उसका विसर्जन अनिवार्य हो जाता है. 

अगर गणेश जी को उत्तर भारतीय देवता मानकर उनका विसर्जन न किया जाए तो फिर नवरात्र के बाद मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन किस आधार पर किया जाता है? क्योंकि देवी का निवास तो सारी प्रकृति ही है. ऋग्वेद भी ईश्वरीय सत्ता को आस्था का विषय मानता है और यह कहता है कि इसका स्वरूप कैसा भी हो सकता है. यह परमसत्ता के प्रति विश्वास की बात है. वह कहता है, एकं सत् विप्रः बहुधा वदंति, यानी कि सत्य एक ही है, जिसे ज्ञानी जन कई तरीके से बताते हैं. विसर्जन प्राकृतिक सत्य का भी प्रतीक है, जो आने-जाने, जन्म-मरण, हमेशा आगे बढ़ते रहने के समय चक्र का प्रतीक है. विघ्नहर्ता गणपति, मां दुर्गा, देव कार्तिकेय या अन्य कोई भी दैवीय नाम इसी सत्य के एक रूप हैं, विवाद के विषय नहीं. 

विसर्जन, उसमें मिल जाने का भी प्रतीक है, जिससे निर्माण हुआ है. गणेश प्रतिमाओं का निर्माण माटी से होना ही उचित बताया गया है. विसर्जन के दौरान वह जल में घुल जाती है और इस तरह जल तत्व में मिलकर ईश्वरीय सत्ता एक बार फिर साकार से निराकार में बदल जाती है. यही विसर्जन है. 

विसर्जन देव प्रतिमा का नहीं, हमारे विकारों का
सबसे बड़ी बात कि, विसर्जन देव प्रतिमा का नहीं होता है, अगर हम सच्चे मन से भक्ति कर रहे हैं तो इन 10 दिनों तक हम देवता को अपने विकार ही अर्पित करते हैं. मोदक हमारी सांसारिक लालसा का प्रतीक है, जिसे हम भगवान को अर्पित करते हैं. सिंदूर हमारे अभिमान का प्रतीक है, जिसे हम भगवान को अर्पित करते हैं. दूर्वा हमारे क्रोध का प्रतीक है, जिसे हम गणपति के चरणों में अर्पित करते हैं और जब हम विसर्जन करते हैं तो देव प्रतिमा के साथ इन्ही विकारों का विसर्जन करते हैं. ये विकार इतने प्रबल होते हैं कि उन्हें खींचकर ले जाने की शक्ति महागणपति जैसे विघ्नहर्ता के ही पास होती है. इसलिए गणेशजी हमारे लिए विघ्नविनाशक कहलाते हैं.

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