Bhagaha Custodial Death & Police Firing Case: बिहार में कस्टोडियल डेथ और पुलिस हिंसा की घटनाएं हमेशा से चर्चाओं में रही हैं. लेकिन 1997 का भगहा पुलिस फायरिंग कांड एक ऐसी घटना है, जिसने न केवल बिहार बल्कि पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था. सूबे के वैशाली जिले में एक दलित युवक की पुलिस हिरासत में संदिग्ध मौत हो गई थी. उसके बाद वहां शांतिपूर्ण प्रदर्शन चल रहा था, उसी दौरान पुलिस ने वहां बर्बर गोलीबारी की और 11 लोगों की जान ले ली. मरने वालों में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, जो सभी दलित समुदाय से थे. 'बिहार की क्राइम कथा' में पेश है उसी भगहा पुलिस फायरिंग कांड की पूरी कहानी.
बिहार के इतिहास में भगहा पुलिस फायरिंग कांड एक ऐसी वारदात थी, जिसने पुलिस की जवाबदेही, दलित अत्याचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े किए. यह कांड बिहार में कस्टोडियल हिंसा के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है.
पुलिस हिरासत में दलित युवक की मौत
ये कहानी है साल 1997 की. बिहार के वैशाली जिले में एक गांव है भगहा. वहां किसी मामूली सी बात को लेकर पुलिस ने एक दलित युवक को हिरासत में लिया और थाने ले गई. लेकिन थाने में पूछताछ के नाम पर उस दलित युवक के साथ देर तक मारपीट की गई. नतीजा ये हुआ कि पुलिस की हिरासत में ही उस युवक की मौत हो गई. इस बात ने ग्रामीणों में आक्रोश भर दिया. युवक के परिवार समेत तमाम गांनवाले गुस्से में थे. ग्रामीणों ने इस मौत को पुलिस की बेरहमी का नतीजा माना और इस घटना के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू कर दिया. सभी प्रदर्शनकारी मृतक के परिवार को इंसाफ दिए जाने की मांग कर रहे थे.
मजलूम गांववालों पर गोलीबारी
प्रदर्शन शुरू होने के साथ ही यह मामला तूल पकड़ने लगा. दलित समाज एकजुट होकर पीड़ित परिवार के लिए इंसाफ मांग रहा था. ये बात पुलिस को नागवार गुजर रही थी. और शायद तत्कालीन सरकार भी इस बात से खफा थी. विभाग की किरकिरी होते देख पुलिस के अधिकारी बौखला गए और उन्होंने उस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को दबाने के लिए अत्यधिक बल का इस्तेमाल किया. हद तो तब हो गई, जब बिना किसी उकसावे के पुलिस ने उन बेगुनाह प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी शुरू कर दी. गोलियों की आवाज़ से भगहा गांव दहल उठा. प्रदर्शन में शामिल लोग जान बचाने के लिए इधर उधर भागने लगे. हर तरफ शोर गुल था. चीख पुकार मची थी. जब फायरिंग थमी, तो पूरा गांव मातम में डूब चुका था.
पुलिस की गोलीबारी में 11 लोगों की मौत
भगहा गांव में प्रदर्शनकारियों पर हुई गोलीबारी में 11 लोग मारे गए, जिनमें महिलाएं और मासूम बच्चे भी शामिल थे. वे सभी दलित समुदाय से थे. यही वजह थी कि इस घटना को सामाजिक अन्याय और जातिगत भेदभाव से जोड़ दिया गया. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पुलिस ने बिना चेतावनी के अंधाधुंध फायरिंग की थी, जिससे कई लोग मौके पर ही मारे गए. इस घटना ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए, क्योंकि जांच में यह साबित हुआ कि गोलीबारी बिना वाजिब वजह के की गई थी. इस बेरहमी ने भगहा को देश भर में चर्चा का विषय बना दिया और इस वारदात को दलित अत्याचार के प्रतीक के रूप में देखा जाने लगा.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का हस्तक्षेप
उस वक्त भगहा कांड की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने तत्काल संज्ञान लिया. NHRC ने इस घटना की जांच के लिए एक विशेष टीम गठित की, जिसने पुलिस की कार्रवाई को अमानवीय और गैरकानूनी ठहराया. आयोग ने पीड़ित परिवारों के लिए मुआवजे और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की सिफारिश की. NHRC की इस सक्रियता ने कस्टोडियल हिंसा के मामलों में मानवाधिकार संगठनों की भूमिका को रेखांकित किया. हालांकि, आयोग की सिफारिशों का अमल धीमा रहा, जिसने पीड़ित परिवारों में निराशा पैदा की.
PUCL और सामाजिक संगठनों की भूमिका
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) जैसे संगठनों ने भी भगहा कांड के बाद सक्रिय भूमिका निभाई. PUCL ने घटना की स्वतंत्र जांच की मांग की और पुलिस सुधारों पर जोर दिया. संगठन ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि भगहा में पुलिस की कार्रवाई न केवल अनुचित थी, बल्कि यह दलित समुदाय के प्रति गहरी नफरत को भी दर्शाती थी. PUCL ने इस घटना को मानवाधिकार उल्लंघन का स्पष्ट उदाहरण करार दिया और इसके खिलाफ व्यापक जनजागरूकता अभियान चलाया. इन कोशिशों ने भगहा कांड को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया था.
CBI जांच में पुलिस की लापरवाही उजागर
मामले के तूल पकड़ने के बाद भगहा कांड की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को सौंपी गई. CBI ने अपनी जांच में पाया कि पुलिस ने बिना किसी औचित्य के गोलीबारी की थी. जांच में यह भी सामने आया कि हिरासत में हुई मौत पुलिस की लापरवाही और बेरहमी का नतीजा थी. CBI ने कई पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया, और कुछ को सजा भी हुई. हालांकि, सजा की प्रक्रिया बेहद धीमी थी और कई मामलों में दोषियों को हल्की सजा या जमानत मिली थी. इस बात ने न्याय व्यवस्था की कमियों को उजागर किया और पीड़ित परिवारों में असंतोष को बढ़ाया.
इंसाफ की धीमी चाल
भगहा कांड में न्याय की प्रक्रिया बेहद धीमी रही. CBI जांच और अदालती कार्रवाइयों के बावजूद, कई दोषी पुलिसकर्मी लंबे समय तक सजा से बचते रहे. पीड़ित परिवारों को मुआवजा तो मिला, लेकिन उनकी मांग थी कि दोषियों को कड़ी सजा दी जाए. इस धीमी प्रक्रिया ने बिहार में कस्टोडियल हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय की राह को और जटिल बना दिया. कई परिवारों ने बताया कि लंबी कानूनी लड़ाई ने उनकी आर्थिक और मानसिक स्थिति को और खराब कर दिया था.
दलितों पर अत्याचार का प्रतीक बना भगहा
भगहा कांड ने दलित समुदाय पर होने वाले अत्याचारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया. यह घटना केवल पुलिस हिंसा तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक असमानता और जातिगत भेदभाव की गहरी जड़ों को भी दर्शाती थी. सभी मृतकों का दलित समुदाय से होना इस बात का सबूत था कि समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदाय पुलिस हिंसा का सबसे अधिक शिकार बनते हैं. इस घटना ने दलित संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को एकजुट किया और पुलिस सुधारों के लिए आंदोलन को बल दिया.
पुलिस सुधारों पर बहस
भगहा कांड ने बिहार ही नहीं, पूरे देश में पुलिस सुधारों की आवश्यकता पर जोर दिया. इस घटना ने यह सवाल उठाया कि पुलिस को असीमित शक्ति देने की बजाय उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? मानवाधिकार संगठनों ने मांग की कि पुलिस प्रशिक्षण में मानवाधिकारों और सामाजिक संवेदनशीलता को शामिल किया जाए. इसके अलावा, कस्टोडियल हिंसा को रोकने के लिए सख्त कानून और त्वरित जांच प्रक्रिया की जरूरत पर बल दिया गया. भगहा कांड ने इन मांगों को राष्ट्रीय स्तर पर गूंजने वाला मुद्दा बना दिया था.
बिहार में कस्टोडियल डेथ की अन्य घटनाएं
राज्य में भगहा कांड कोई अकेली घटना नहीं थी. बिहार में बेलछी (1977) और पिपरा (1980) जैसे कांडों ने भी दलित समुदाय पर पुलिस और सामाजिक हिंसा को उजागर किया था. बेलछी में 11 दलितों की हत्या और पिपरा में पुलिस गोलीबारी ने सामाजिक असमानता और पुलिस की मनमानी को सामने लाया. हाल के वर्षों में भी बिहार में कस्टोडियल डेथ के मामले सामने आते रहे हैं, जो इस समस्या की गंभीरता को दर्शाते हैं.
सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
भगहा कांड का सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव गहरा रहा. जिसने दलित समुदाय को संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया. कई राजनीतिक दलों ने इस घटना को अपने एजेंडे में शामिल किया और दलित मतदाताओं को आकर्षित करने की कोशिश की. हालांकि, कई बार इन प्रयासों को केवल राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया, जिसने पीड़ितों के परिवारों में निराशा पैदा की. इस घटना ने सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी एकजुट किया, जिन्होंने पुलिस हिंसा के खिलाफ व्यापक आंदोलन शुरू किया.
मानवाधिकार उल्लंघन का बड़ा मुद्दा
भगहा कांड ने भारत में मानवाधिकार उल्लंघन को वैश्विक मंच पर चर्चा का विषय बनाया. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने इस घटना की निंदा की और भारत सरकार से पुलिस सुधारों की मांग की. इस कांड ने यह सवाल उठाया कि लोकतांत्रिक देश में पुलिस की जवाबदेही कैसे सुनिश्चित की जाए? यह घटना विश्व स्तर पर कस्टोडियल हिंसा और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने का एक प्रतीक बनी.
आज के हालात में क्या बदला?
28 साल बाद भी बिहार में कस्टोडियल डेथ और पुलिस हिंसा की घटनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं. हाल के वर्षों में भी कई मामले सामने आए हैं, जिनमें पुलिस की लापरवाही और बेरहमी की शिकायतें शामिल हैं. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि बिना सख्त कानूनों और पुलिस प्रशिक्षण में बदलाव के, ऐसी घटनाएं रुकना मुश्किल है. भगहा पुलिस फायरिंग कांड बिहार के इतिहास में एक ऐसी त्रासदी है, जो पुलिस हिंसा, दलित अत्याचार और मानवाधिकार उल्लंघन की याद दिलाती है. इस घटना ने न केवल पीड़ित परिवारों को प्रभावित किया, बल्कि पूरे समाज को यह सोचने पर मजबूर किया कि पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही कैसे सुनिश्चित की जाए?
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