सनातन परंपरा में श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष, 16 दिनों का ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें मौजूदा पीढ़ी अपने पूर्वजों के प्रति आभार जताती है और उन्हें सम्मान देती है, उन्हें याद करती है. पितृ या पितर शब्द होने के कारण इसे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इसमें माता का कोई स्थान नहीं है, बल्कि पितृ या पितर पूर्वजों के लिए प्रयोग होने वाला शब्द है, जिसका आधार वंश है और वंश का आधार माता-पिता दोनों ही होते हैं.
पितृ पक्ष में मृत्युलोक में आते हैं पितर
भाद्रपद की पूर्णिमा और आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की 15 तिथियां यानी अमावस्या तक के 16 दिनों में माना जाता है कि सभी के पूर्वज पितृ लोक से पृथ्वी की यात्रा करते हैं और इस दौरान उन्हें अपनी वर्तमान पीढ़ी से पिंड और तर्पण मिलता है, जिससे वह खुश होकर उन्हें तरक्की-प्रगति का आशीर्वाद देते हैं.
लेकिन, इस पितृ पक्ष को लेकर समय के साथ लोगों में कई तरह की भ्रांतियां भी हो गई हैं, जैसे नए काम की शुरुआत न करना, नए कपड़े नहीं खरीदना-पहनना और शादी-विवाह संबंधी बातचीत भी न करना और यात्रा न करना.
इस वजह से पितृपक्ष के समय को ही निगेटिव मान लिया गया है. इसे लेकर लोगों में ऐसा अहसास है कि ये 15 या 16 दिन अच्छे और शुभ नहीं होते हैं. इन भ्रांतियों के कारण ही सनातन के प्राचीन काल से चली आ रही एक स्वस्थ परंपरा अपना असली प्रभाव खो सकती है. आज पितृपक्ष के सारे कर्म और विधान मौजूद तो हैं लेकिन अपने गलत और नकारात्मक अर्थ के साथ.
पितृपक्ष को बुरा कहना एक भ्रांति
इस बारे में आचार्य हिमांशु उपमन्यु कहते हैं कि यह सबसे बड़ी भ्रांति है कि पितृपक्ष बुरा है. इससे हो ये रहा है कि लोग इस संस्कार का न तो सही अर्थ समझ पा रहे हैं और न ही इसके लाभ को देख पा रहे हैं.
गरुड़ पुराण में बताया गया है कि पितृपक्ष में पितर पृथ्वी पर अपने वंशजों के पास आते हैं और उनके द्वारा किए गए तर्पण, पिंडदान, और श्राद्ध से तृप्त होते हैं. यह समय पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करने और उनके आशीर्वाद प्राप्त करने का होता है.
विष्णु पुराण में भी श्राद्ध का महत्व बताया गया है, जहां ये कहा गया है कि पितरों की संतुष्टि से वंश की समृद्धि और सुख मिलता है.
मार्कण्डेय पुराण में एक कथा है जिसमें महर्षि मार्कण्डेय बताते हैं कि श्राद्ध कर्म से पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है, और यह वंशजों के लिए पुण्यकारी होता है. वह कहते हैं कि मैं अल्पायु था, लेकिन पितरों के आशीष और उनके मार्गदर्शन से ही मुझे महामृत्युंजय मंत्र को सफल सिद्ध करने का सौभाग्य मिला.
इसलिए, पितृपक्ष को नकारात्मक या अशुभ मानना एक सामाजिक भ्रांति हो सकती है, जो समय के साथ विकसित हुई.
पितृपक्ष में नए कार्य, जैसे विवाह, मुंडन, गृहप्रवेश, या नए वस्त्र धारण करने की मनाही का कारण सिर्फ इतना है कि आप इस अवधि में पहले पितृकर्म के प्रति ही समर्पित हों. इससे भटकें नहीं. पहले ऐसा भी होता था कि पितृ कर्म करने का विधान गांव के बाहर नदी तट पर था. श्राद्ध करने वाला श्रद्धालु नित्य पूजा पाठ के बाद, तर्पण और पिंडदान की सामग्री लेकर सूर्योदय के बाद नदी तट पर जाता था और सही मुहूर्त में तर्पण कर, सूर्यास्त तक घर आता था.
अगर आप 16 दिन तक लगातार तर्पण कर रहे हैं तो इस विधान के साथ आप कोई अन्य कार्य तो वैसे भी नहीं कर सकते हैं.
क्या कहता है गरुण पुराण?
गरुड़ पुराण में उल्लेख है कि श्राद्ध कर्म में पूरी तरह समर्पण और शुद्धता जरूरी है. नए कार्य या उत्सव इस एकाग्रता को भंग कर सकते हैं. पितृपक्ष का समय पितरों के प्रति कृतज्ञता और उनकी आत्मा की शांति के लिए समर्पित है. इसलिए, इस दौरान शुभ कार्यों को स्थगित करने की सलाह दी जाती है ताकि ध्यान केवल पितृकर्म पर रहे.
ब्रह्मवैवर्त पुराण में संकेत मिलता है कि यदि पितरों का श्राद्ध विधिपूर्वक न किया जाए, तो उनकी अशांति वंशजों के लिए कष्टकारी हो सकती है. इसीलिए, इस अवधि में नए कार्यों को टालकर पितृकर्म को प्राथमिकता दी जाती है. नए वस्त्रों को लेकर भी कोई सीधी मनाही नहीं है, लेकिन पितृ कर्म करते हुए आपके मन में वैसा ही शोक, वैसी ही भावना उपजती है जो आपको अपने किसी पूर्वज या पितृ की मृत्यु पर हुई थी. इसी शोक के कारण न तो उत्सव में मन रमता है, न नए वस्त्र भाते हैं और न ही स्वाद अच्छा लगता है. यह खुद में खुद से उपजी अनुभूति है न कि कोई पौराणिक या अध्यात्मिक वर्जित कारण.
श्रद्धा के साथ जो किया जाए वह श्राद्ध
इसी के साथ एक और पहलू है, जिसे समझना चाहिए. शास्त्र कहते हैं कि आपमें जितने समर्थ हों वैसा श्राद्ध कल्प करें. आखिर सीताजी ने बालू के पिंड से ही पहली बार पिंडदान किया था, जिन्हें महाराज दशरथ ने स्वीकार भी कर लिया था. उस समय श्रीराम-सीता वन में थे. उनके पास राज्य की संपदा नहीं था, तब सीता जी ने अपने मन वचन और कर्म को साक्षी मानकर कहा था कि मैं बालू के इसी पिंड को रघुकुल के पूजनीय पितरों को अर्पित करती हूं. आनंद रामायण में जिक्र आता है कि इतना सुनते ही राजा दशरथ के हाथ प्रकट हो गए और उन्होंने पिंड ग्रहण किया. इस कथा में दो सीख हैं एक तो श्राद्ध कर्म में श्रद्धा होनी ही चाहिए और दूसरी ये कि स्त्रियों को श्राद्ध कर्म से अलग नहीं रखा गया है.
पुराणों में तो पितृपक्ष को बताया है शुभ
पुराणों में तो पितृपक्ष को बहुत शुभ और पवित्र काल बताया गया है. पितृ देवों को स्वर्ग में देवताओं से ऊंचा स्थान प्राप्त है, इसलिए देव ऋण तो दैनिक पूजन-अर्चन से अच्छे आचरण से उतारा जा सकता है, लेकिन पितृ ऋण अनुष्ठानिक कार्य है. महाभारत में पितामह भीष्म भी युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि श्राद्ध पक्ष में पूरे मनोयोग से पितृ कल्प विधान करना चाहिए और इसे हर व्यक्ति को अपने सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार ही करना चाहिए.
आचार्य हिमांशु कहते हैं कि मनाही की जो बात सामने आती है, वह सिर्फ इस अनुष्ठान का अनुशासन बनाए रखने के लिए की गई थी, क्योंकि श्राद्ध पक्ष में पितृ कर्म की प्राथमिकता पर रखने के लिए कहा गया है. परंपराओं का सम्मान करते हुए लोग इस दौरान सादगी और संयम का पालन करते हैं.
चंद्नमा की धरती से निकटता मन-मस्तिष्क पर डालती है असर
मनाही के अन्य कारणों पर बात करें तो ज्योतिष के नजरिए से इस समय चंद्रमा की कलाएं धरती पर अधिक असर डाल रही होती हैं. चंद्रमा इन दिनों पृथ्वी के कुछ अधिक ही पास होता है, और यह मन-मस्तिष्क पर असर डालता है. कई बार भ्रम की स्थिति पैदा करता है और निर्णय लेने की क्षमता पर असर डालता है. इसलिए ऐसे कार्यों की मनाही ज्योतिष के आधार पर वैसे भी है, जिनमें गंभीर फैसले लेने पड़ते हैं. इसका पितृपक्ष से सीधा कोई संबंध नहीं है. फिर भी चूंकि चंद्रमा से धरती की निकटता का समय ही पितृपक्ष के दौरान का होता है, इसलिए ऐसी भ्रांति बन गई है कि पितृपक्ष के कारण, नए कार्य शुरू करने की मनाही है.
जहां तक यात्रा न करने को लेकर बात है, तो वह तो चौमासे के कारण पहले ही वर्जित होती है. यह कोई धार्मिक कारण नहीं है, बल्कि प्राचीन काल में स्थिति के अनुसार बनाई गई एक व्यवस्था थी. विवाह संबंध भी चौमासे के कारण ही नहीं होते हैं. फिर कोई मंगल कार्य इसलिए नहीं किया जाता है, क्योंकि मंगल कार्यों में देवताओं का आह्नान किया जाता है, लेकिन इस वक्त वह भी अपने लोकों में नहीं होते हैं, ऐसा माना जाता है. इस दौरान सिर्फ आर्यमा, विश्वेदेव (जो पितरों के देवता हैं) और आपके पूर्वज ही दिव्य लोक में रहते हैं. इसलिए मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं.
क्या कहता है आयुर्वेद?
आयुर्वेद भी मानता है कि आषाढ़ से लेकर कार्तिक महीने तक वर्षाकाल के कारण जठराग्नि धीमी पड़ जाती है और पाचनतंत्र कमजोर हो जाता है, इसलिए भोजन भी हल्का और सुपाच्य करने की सलाह दी जाती है और यही वजह है कि पारिवारिक उत्सव, जलसा आदि आयोजन की मनाही होती है. धार्मिक उत्सव और अनुष्ठान होते हैं. जैसे नवरात्र, दीपावली पूजन, या कोई व्रत-त्योहार आदि.
कुल मिलाकर बात ये है कि पितृपक्ष न बुरा है और न ही नकारात्मक छवि वाले दिनों का अनुष्ठान. इस दौरान जिस तरह सक्रियता और पितरों के प्रति जैसी श्रद्धा रखने की मांग की जाती है, उसके कारण ही इस दौरान कई भ्रांतियां बन गईं हैं, जिसका इस अनुष्ठानिक दिन से कोई सीधा संबंध नहीं है.
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