किले जैसी ऊंची दीवारों के बीचों-बीच लोहे का छोटा-सा गेट. खटखटाने पर लंबी चुप्पी के बाद दरवाजा खुलता, और हमें भीतर लेकर दोबारा बंद हो जाता है. सामने ही बाउंसर्स की तरह लंबे-तगड़े जवान बैठे हुए, जो आए हुओं पर नजर रखते हैं. नशा छुड़वाने पर काम करता सेंटर मालिक मानता है कि वो भी कभी एडिक्ट था.
‘क्या हम मरीजों का कमरा देख सकते हैं!’ ... काल्पनिक एडिक्ट की भर्ती के लिए हम दो राज्यों की सीमाओं पर बने नशा मुक्ति केंद्र में बैठे हैं.
काफी मान-मनौवल के बाद हामी. एक के बाद एक तीन ताले खुलते हैं. तहखाने की तरह बंद कमरे में पेशेंट बैठे-सोए. माहौल ऐसा कि मिनट भर में डिप्रेशन का एक पूरा दौर गुजर जाए.
अंधेरा, कसैली तीखी गंध वाला ये घुटा-घुटा कमरा हरियाणा और उससे सटे राजस्थान के ड्रग रिहैब सेंटरों की झलक है.
यहां इतने ताले क्यों हैं?
‘तोड़’ मचने पर ये दंगा-फसाद करते हैं. हमले करते हैं. कई मरीज बाहर निकलकर भी दुश्मनी नहीं भूलते. सेफ्टी के लिए बंद रखना होता है. सेंटर इंचार्ज ताला खींचते हुए जवाब देता है.
हरियाणा के गली-कूचों में ढेरों सेंटर खुल चुके, जो नशा छुड़वाने का वादा करते हैं. बिजली के खंभों से लेकर बस स्टैंड की दीवार तक विज्ञापन लगे हुए.
कॉल लीजिए तो रूम का चार्ज बताया जाएगा. मरीज खुद जाने को राजी न हो तो उसे जबरन ले जाने की भी सर्विस है. पैसे दीजिए और अगले छह महीनों के लिए मरीज उनका. लेकिन तीन तालों में बंद इन एडिक्ट्स का नशा कैसे छुड़वाया जाता है, इसकी शायद ही किसी को खबर हो.
मिल सकते हैं?
नहीं. वीडियो भेज देंगे. वो क्या है न कि मिलोगे तो पेशेंट घर ले जाने की जिद करेगा.
तो सीसीटीवी एक्सेस दे सकेंगे?
हम तो देखभाल रहे हैं. भरोसा रखिए, आपका मरीज बिल्कुल चंगा होकर जाएगा.
‘कहीं-कहीं तो पेशेंट के साथ मारपीट भी हो जाती है!’ हम डर जताते हैं.
वो क्या है न जी, कि तलब उठने पर एडिक्ट गुस्सैल हो जाता है. अटैक करने लगता है. हाथ में जो आए, मार देता है. तो बीच-बचाव में एकाध ऐसी बात भी हो गई. आपको सेंटर पर आए मरीजों की खबर है लेकिन सेंटर चलाने वालों पर इतने हमले हुए, उसे कोई नहीं जानता. खुद मेरे सिर पर पांच-छह टांके लगे थे. फोन पर एक सेंटर मालिक बताता है.
जो हरियाणा कभी मजबूत कद-काठी वाले खिलाड़ियों के लिए जाना जाता था, पड़ोसी राज्य का नशा धीरे-धीरे उसे भी गिरफ्त में ले चुका.
पंजाब से सटे लगभग सारे जिलों में शराब से लेकर चिट्टा फैल चुका. साथ ही फैल रहा है इससे छुटकारा दिलाने का वादा. हरियाणा में ड्रग एडिक्शन सेंटरों की जरूरत कितनी ज्यादा है, इस बात का अंदाजा इसी से लगा लीजिए कि अकेले सिरसा जिले में पिछले साल 33000 से ज्यादा केस ओपीडी में आए.
चिट्टे पर सख्ती हुई तो लोग मेडिकल ड्रग्स लेने लगे. ये बात नाम न बताने की शर्त पर कई डॉक्टर मानते हैं.
फतेहाबाद के एक सरकारी डॉक्टर ऑफ-रिकॉर्ड बोलते हैं- मैं खुद अपनी बीमार मां के लिए दर्द की दवा लेने गया तो केमिस्ट ने मना कर दिया. वे ये दवाएं अपने खास कस्टमर्स के लिए रखते हैं, न कि जरूरतमंद के लिए.
डिमांड के मुताबिक सप्लाई रखने के लिए वहां ढेरों-ढेर नशा मुक्ति केंद्र खुलने लगे. कई ऐसे भी केस आए, जहां इन्हीं सेंटरों के भीतर युवा मरीजों की एकदम से मौत हो गई.
परिवार आरोप लगाते हैं कि एडिक्शन सेंटरों के भीतर लापरवाही ने उनके बच्चों की जान ले ली. वहीं सेंटरों की अलग दलील है. कभी वे मरीजों के हिंसक होने को हथियार बनाते हैं, तो कभी सरकार पर ही हावी हो जाते हैं. लगभग सारे निजी सेंटर संचालकों ने दोहराया कि सरकार उनसे इतनी उम्मीदें कर रही है, जो पूरी करना मुमकिन नहीं.
एक सेंटर मालिक कहते हैं- वे हमें आतंकवादी की तरह देखते हैं. कभी कोई इंस्पेक्शन पर आता है तो कभी कोई. छापा पड़ने पर कई ‘इललीगल’ सेंटर बंद हो चुके, जबकि कई ‘ऊपरवाले की कृपा’ से चल रहे हैं.
aajtak.in ने इन्हीं खुले-बंद-अधबंद ड्रग डी-एडिक्शन और रिहैबिलिटेशन सेंटरों के हाल जानने के लिए जींद, सिरसा और फतेहाबाद जिलों की पड़ताल की. साथ में राजस्थान का हनुमानगढ़ भी. दरअसल, हरियाणा में कथित तौर पर गाइडलाइन सख्त होने का अजब तोड़ सेंटर मालिकों ने खोज निकाला. वे सूबे से सटी राजस्थान सीमा पर शिफ्ट हो गए.
शुरुआत हरियाणा और राजस्थान के जोड़ पर बसे हनुमानगढ़ से.
शाम को कई सेंटरों की खाक छानते हुए हम डिसेंट ड्रग हेल्प सेंटर पहुंचे. हल्का अंधेरा होने लगा था लेकिन लाइट्स बंद थीं. सेंटर के भीतर पहुंचते ही आंगन में खाट पर दर्जनभर जवान लड़के हुक्के के कश लगाते हुए. हमारे पहुंचने पर कुछ हलचल होती है, और उनमें से दो उठकर साथ चले आते हैं.
सामने बैठक कम दफ्तर हैं. यहीं परिवारों, सेंटर इंचार्ज और मरीजों की सामूहिक मेल-मुलाकात होती होगी. इशारे पर बत्ती जला दी जाती है.
हम कुछ पूछें, इसके पहले सेंटर इंचार्ज सवाल दागने लगा. कहां से आए हैं, मरीज कौन है, क्या करता है- जैसी बातों के बीच राजू (नाम बदला हुआ) नाम का शख्स कहता है- अगर वो अपने-आप आने को राजी हो तो ठीक वरना हम खुद भी लेकर आ सकते हैं. बस खर्च अलग आएगा.
इलाज कैसे होता है?
शुरुआत में हम उन्हें बेड रेस्ट देंगे. दवाएं चलती रहेंगी. फिर काउंसलिंग शुरू होगी. नींद कम आए तो उस हिसाब की दवा भी देंगे. योगा-मेडिटेशन कराएंगे.
कितना चार्ज है इसका?
वो कुछ ज्यादा नहीं. महीने का 12000. इसी में रहना-खाना-इलाज सब करते हैं. अगर मरीज को बाहर का कुछ खाना हो, या दूध-दही चाहिए तो उसका खर्च अलग बैठेगा. बाकी यहां रोटी, हरी सब्जी, दाल, दलिया मिलता है. मंगल के मंगल कुछ मीठा बनेगा. रूम में कूलर लगा हुआ है. नए मरीज को कुछ दिन एसी में रखते हैं लेकिन कमरे सब एक जैसे हैं.
हम पेशेंट से मिलने आ सकते हैं?
नहीं. मिलने का टाइम 45 दिन बाद होता है. उसके पहले आपको वीडियो बनाकर भेज देंगे. रियल टाइम वीडियो देंगे, ऐसा नहीं कि पहले से रिकॉर्ड कर रखे हों. महावीर जैसे दिमाग रीड करते हुए बता रहे थे, जैसे ये शक पहले किसी ने किया हो.
कितना स्टाफ रहता है?
चार-पांच लोग रहते हैं. डॉक्टर कॉल पर आ जाते हैं. ज्यादातर रात मैं रहता हूं. वैसे चिंता की कोई बात नहीं. मैं खुद भी पहले नशा करता था. फिर ऐसे ही एक सेंटर में जाकर क्लीन हो गया. इसके बाद से यही काम कर रहा हूं.
क्या आप लोग कुछ सख्ती भी करते हैं?
बंदा अगर कोऑपरेट कर रहा है तो उसे तो परेशान नहीं करेंगे, लेकिन अगर बात न माने तो थोड़ा करना पड़ता है. उसे मेंटली डिस्टर्ब करेंगे. अलग बिठा देंगे. बोल-चाल बंद कर दी जाएगी. पनिशमेंट देंगे.
मरीजों का कमरा देखने की गुजारिश पर मना करते हुए कहते हैं- नहीं. प्राइवेसी है उनकी.
हम बस एक नजर देख लेंगे...
दरवाजा खोलकर सामने वाले कमरे की लाइट बंद करते हुए हमें अंदर ले जाया जाता है. भीतर एक और दरवाजा और एक शटर है. शटर के भीतर हॉलनुमा कैदखाने में मरीज बैठे-अधलेटे. शायद गोदाम के मकसद से बने कमरे की फर्श जगह-जगह से उखड़ी हुई. एस्बेस्टस की छत के नीचे घर्रघर्र करते लंबी छड़ी वाले पंखे.
एक झलक में लोहे के कुछ पलंग पड़े हुए दिखते हैं- नंगे, बिना गद्दे-तकिए वाले ये बिस्तर राजस्थान की गर्मी में किस कदर तपते होंगे, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. बगैर खिड़की वाले हॉल से सिगरेट या किसी जलती हुई चीज की तीखी गंध के साथ वॉशरूम और उदासी की बासी गंध आती हुई.
मिनटभर से भी कम समय में शटर वापस खींच दिया जाता है.
बाहर निकलते हुए भी पलंग पर वही हुक्काबाज युवक बैठे हुए. नजरें ऐसी चुभती हुईं कि हम तुरंत सेंटर की फोटो नहीं खींच सके, बल्कि कुछ आगे जाकर चलती गाड़ी से ही तस्वीर ली.
एकाध किलोमीटर की दूरी पर एक और नशा मुक्ति एवं पुर्नवास केंद्र…
मेन सड़क किनारे बने इस सेंटर के आसपास कोई और घर नहीं. ऊंची दीवारों से घिरे सेंटर पर काफी देर नॉक के बाद कुछ हलचल होती थी, फिर लोहे का गेट खुलता है. अंदर भी सन्नाटा, जैसे कोई रहता न हो. सामने कमरे में बैठने का इशारा कर बिना कुछ बोले अटेंडेंट चला जाता है.
कमरे में जिम ट्रेनिंग की कई तस्वीरें और सर्टिफिकेट लगे हुए. कहीं भी सेंटर या नशे पर कोई बात नहीं. पांचेक मिनट बाद पहलवान की तरह लगता शख्स भीतर नमूदार हुआ. यही जिम ट्रेनर इस सेंटर को चलाता है.
यहां भी शुरुआती पूछताछ उनकी तरफ से हुई. तसल्ली के बाद हमारी बारी है.
हमने आसपास कई सेंटर देखे, लेकिन कुछ जमा नहीं. आपके यहां क्या हाल है, आप खुद ही खुलकर बता दें?
मानता हूं. ज्यादातर का बहुत बुरा हाल है जी. सेंटर वाले शाम होते ही खुद नशा करके बैठ जाते हैं, फिर मरीज को विथड्रॉल आए, या वो आपस में लड़ें-भिड़ें, उन्हें कोई मतलब नहीं. सबने बिजनेस बना रखा है, जबकि ये समाज सुधार का काम है कि चलो, कोई भाई ठीक हो जाए.
भाइयों को ठीक करने की बात कर रहे इस शख्स के यहां भी समाज सुधार के अच्छे-खासे पैसे वसूले जाते हैं.
क्यों?
फैसिलिटी देनी होती है साहब. मेरे पास नेताओं के भी बच्चे आते हैं. उनको ट्रीटमेंट से मतलब नहीं, सुविधा से मतलब है. आने से मना कर दो तो भी बात बिगड़ जाएगी.
अंदर ले जाकर मरीजों का हॉल दिखाने की बात पर सेंटर संचालक इनकार करता है.
‘नहीं. मेन गेट के बाद दूसरा गेट है, फिर एक गेट है. इतना तो हम नहीं करवा सकेंगे. आप सीसीटीवी देख लीजिए.’
स्क्रीन पर कुछ धुंधली तस्वीरें हैं. लोग सोते हुए या सोने का दिखावा करते हुए. कहीं कोई हलचल नहीं, जबकि शाम के साढ़े सात ही बजे होंगे.
राजस्थान में रहता पंजाब का ये सेंटर मालिक मानता है कि हरियाणा में नशे का मामला हाथ से निकल रहा है.
मेरे पास एक केस आया, जिसमें लड़के को पता था कि उसके साथी को एड्स है, फिर भी उसने उसकी सुई लगा दी. सुई बदलने में कितना पैसा या वक्त लगता है जी! फिर भी उसने सब्र नहीं किया. रिस्क ले लिया. ये हाल हो चुका वहां.
राजस्थान में रेगुलेशन में छूट की वजह से ऐसे नशा मुक्ति केंद्र चल रहे हैं. ये बात फोन पर खुद डॉक्टर कहते हैं.
सिरसा में जनरल हॉस्पिटल के मनोचिकित्सक डॉ पंकज शर्मा कहते हैं- हरियाणा बॉर्डर से सटे राजस्थानी इलाकों में हालात वाकई बदतर हैं. वहां पंजाब से आकर लोगों ने बिजनेस ही शुरू कर दिया.
ये पूरी कहानी आज से कई दशक पहले शुरू हुई. नशे पर रोक के लिए अस्सी के दौर में पहली सरकारी गाइडलाइन बनी. इसके बाद सीधे 2010 में नई गाइडलाइन आई. कुछ साल पहले सिस्टम रिवाइज हुआ. नए रूल काफी तगड़े हैं. भारी स्टाफ होना चाहिए. चौबीसों घंटे डॉक्टर की मौजूदगी जरूरी है. छापा पड़ने पर काफी सारे सेंटर बंद हो गए.
अब ये लोग नई जगह तलाशने लगे. खोज पूरी हुई पंजाब-हरियाणा-राजस्थान की सीमा पर. गंगानगर, हनुमानगढ़ जैसे जिलों में तेजी से रिहैब या फिर डी-एडिक्शन सेंटर खुले. राजस्थान में इनके लिए नियम काफी लिबरल हैं…
लेकिन हरियाणा में भी सेंटरों के हाल खास अच्छे नहीं! हम बात काटते हैं.
मानता हूं कि स्टाफ की कमी हो सकती है, लेकिन हमारे यहां सेंटर अमानवीय बिल्कुल नहीं. हमने सबकुछ बढ़िया कर रखा है.
कम से कम सिरसा के अस्पताल अलग हैं. बस, स्टाफ की शॉर्टेज है, जिसकी वजह से सब पर भारी दबाव रहता है. लेकिन राजस्थान की बात अलग है. आप जो बता रही हैं, वहां स्थिति उससे भी बदतर है.
अगर वहां इतनी दिक्कतें हैं, और आप लोग जानते भी हैं, तो शिकायत क्यों नहीं पहुंचाते?
ये हमारी ज्यूडिशरी से बाहर है मैडम, आप दो राज्यों में कन्फ्यूज मत होइए. चिड़चिड़ाया हुआ जवाब लौटता है.
कई प्राइवेट सेंटरों को पार करते हुए हमारा आखिरी पड़ाव फतेहाबाद था. पंजाब से सटे जिले के सिविल अस्पताल में नशे के लिए मेल-फीमेल और चिल्ड्रन वार्ड भी बने हुए.
क्यों?
जरूरत के हिसाब से बना दिए.
मतलब यहां भी मामला बिगड़ चुका है!
नहीं. ऐसा नहीं लेकिन इक्का-दुक्का केस आ जाते हैं.
अनौपचारिक बातचीत में मनोचिकित्सक डॉक्टर गिरीश कुमार कई बातें कह जाते हैं.
आजकल हमारे यहां ट्रेंड थोड़ा बदल गया है. पहले चिट्टा का नशा लेते थे. लेकिन चिट्टा महंगा होता है. रोज मिल नहीं पाएगा. तिसपर नए पुलिस कप्तान भी काफी सख्त हैं. अब इसका रिप्लेसमेंट भी भाइयों ने खोज डाला. वे मेडिकल नशा कर रहे हैं. ये NDPS (नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्स्टांसेस) एक्ट में नहीं आता.
मेडिकल नशा क्या है?
कई दवाएं हैं, जो दर्द या डिप्रेशन में दी जाती हैं. उन्हें ही खरीदकर पाउडर बना लिया जा रहा है. जल्दी हाई होने के लिए एडिक्ट इसका घोल बना नस में भी लेते हैं, जो कई बार जानलेवा हो जाता है.
डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन पर मिलने वाली दवाएं लोगों के पास आ कहां से रही हैं?
गोलमोल जवाब लौटता है. 'पता नहीं, वो तो आप मीडिया वालों को पता होगा, हमें भी आपसे ही पता लगता है. क्या पता दवा दुकान वालों की मिलीभगत हो. माहौल तो ऐसा है कि असल जरूरत में पड़े मरीज को दवा नहीं मिल पाती, जबकि इनके पास सब होता है.'
तीन वार्ड्स संभाल रहे ये डॉक्टर कहते हैं कि उन्हें जानकारी ही नहीं, अस्पताल से बाहर क्या चल रहा है. 'मैं सुबह आठ बजे आता हूं और दोपहर तीन बजे घर चला जाता हूं. कोई मिलना-जुलना नहीं. ऐसे में बाहर क्या हो रहा है, मुझे कैसे पता रहेगा.'
हॉस्पिटल में बने वार्ड दिखाने के लिए ये भी मना करते हैं. काफी झिकझिक के बाद बात बनती है लेकिन कई शर्तों के साथ. मोबाइल पर्स में रखवाकर मुझे भीतर भेजा जाता है. साथ में दो असिस्टेंट्स समेत खुद डॉक्टर भी थे.
फोटो खींचना मना. बात करने की मनाही. ज्यादा देर रुकने की मनाही. अब तक देखे जा चुके प्राइवेट सेंटरों की कॉपी लगते सेंटर में अलग बस ये था कि इस तक पहुंचने के लिए दो ही दरवाजे मिले.
पलंग पर मरीज और अटेंडेंट साथ लेटे हुए. मेल वार्ड में दो-तीन महिलाएं भी. डॉक्टर सफाई देते हैं- ये भी अटेंडेंट हैं. पेशेंट यहां है, तो ये भी रुक गईं. हर केंद्र की तरह बंद डिब्बीनुमा इस कमरे में हमें एकाध मिनट भी अकेले रहने की इजाजत नहीं मिल सकी.
हरियाणा से लेकर राजस्थानी सीमा तक नशे की कहानियां छितरी हुईं. किसी भी नशा मुक्ति केंद्र में लड़कियों के लिए कोई इंतजाम नहीं.
मतलब वे ड्रग्स के फेर में नहीं पड़ीं!
नहीं जी, लेती तो वे भी हैं. लेकिन कौन उन्हें अस्पताल या सेंटर भेजकर घर की इज्जत उतारे! उन्हें बस चुपके-चुपके दवा दे दी जाती है, या घर में बंद कर दिया जाता है. बाकी, उनकी किस्मत…
सच कहें तो हम डर में ही जी रहे हैं.
'जब शराब पर कड़ाई शुरू हुई, लड़के अफीम पर चले गए. हमें लगा कि इससे बुरा कुछ हो नहीं सकता. ठीक इसी वक्त हेरोइन आ गई. हमें लगा कि इससे बुरा और क्या होगा. तभी मेडिकल ड्रग्स आ गए. मेरे सामने जन्मे बच्चे एड्स, हेपेटाइटिस, ड्रग ओवरडोज से खत्म होने लगे. जो बाकी हैं, वो खुदकुशी की सोचते हैं. ड्रग्स से परिवार नहीं, पूरा स्टेट खत्म हो रहा है...'
सिरसा बस स्टैंड के पास मिले एक बुजुर्ग बलराम जाखड़ कहते हैं, जिनसे बाद में हमारी लंबी बात होती है.
(अगली किस्त में पढ़ें, पीड़ितों की कहानी, जिनके बच्चे नशा मुक्ति केंद्रों में खत्म हो गए. साथ ही एक ऐसे मोहल्ले की तस्वीर, जहां नशा सप्लायर इतने ज्यादा हैं कि पूरी कॉलोनी ही पुलिस छावनी बना दी गई.)