चुनावी लिहाज से तो नौकरी का वादा ही काफी होता है, लखनऊ में तो नियुक्ति पत्र बांटे जाने थे. जब मौका खास हो तो सियासी पत्ते फेंक देना ही राजनीति का असली धर्म होता है. और धर्म भी ऐसा, जिसे राजनीति से सीधे सीधे जोड़ा भी नहीं जा सके - अमित शाह ने मौके की नजाकत को भांपते हुए अपनी चाल चल दी, और उसका प्रभाव भी नजर आने लगा है.
यूपी में विधानसभा चुनाव 2027 में होने वाले हैं. मतलब, बिहार ही नहीं बंगाल के भी बहुत बाद. बीजेपी की तैयारी तो बहुत पहले से ही शुरू हो जाती है. ऐसे में अमित शाह भला कहां चूकने वाले, माहौल को देखते हुए मंच से ऐसी चाल चली की चौतरफा चर्चा चल पड़े. क्या पार्टी, क्या सरकार और क्या विपक्ष, सभी तक एक साथ संदेश पहुंच जाये. जो संदेश देना हो वो भी, और कुछ एक्स्ट्रा भी.
लखनऊ के कार्यक्रम में मंच पर सबसे बड़े नेता अमित शाह ही थे, लिहाजा बीचो-बीच बैठे थे. अमित शाह के एक तरफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, और एक तरफ डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य थे. कार्यक्रम करीब घंटे भर चला, और इस दौरान अमित शाह बारी बारी दोनो नेताओं से बात करते देखे गये. लेकिन ये तो आम बात है, खास बात नहीं. अगल-बगल बातचीत न हो, ऐसा तो सिर्फ तभी होता है, जब कोई किसी को सबक सिखाना चाहता हो. किसी को नजरअंदाज करना भी तभी असरदार होता है, जब हर निगाह वहीं टिकी हो - खास बात रही, अमित शाह के संबोधन में योगी आदित्यनाथ के साथ साथ डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को भी पूरा तवज्जो दिया जाना. बल्कि, थोड़ा एक्स्ट्रा.
केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने अपना भाषण शुरू किया, 'आज... उत्तर प्रदेश पुलिस के ऐतिहासिक कार्यक्रम में, मेरे साथ मंच पर यूपी के लोकप्रिय और सफल मुख्यमंत्री श्रीमान योगी आदित्यनाथ जी... मेरे मित्र और उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री श्रीमान केशव प्रसाद मौर्य जी उपस्थित हैं...'
और उसके बाद से ही, लखनऊ ही नहीं, पूरे यूपी और दिल्ली तक अमित शाह के संबोधन की ही चर्चा चल रही है - हर कोई अपने अपने तरीके से समझ भी रहा है, और समझा भी रहा है - केशव मौर्य को अमित शाह ने 'मेरे मित्र' कह कर संबोधित क्यों किया? फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही है, और समझने की जरूरत भी है.
क्या ये संदेश योगी के लिए है?
लेकिन योगी आदित्यनाथ को संदेश क्यों देना होगा? योगी आदित्यनाथ तो हर हार का हिसाब बराबर कर चुके हैं. जैसे 2017 में किया था, 2024 में भी कर दिखाया है. अयोध्या की हार के बदले मिल्कीपुर तो बीजेपी की झोली में डाल ही दी है, यूपी उपचुनावों में मिला बोनस तो एक्स्ट्रा ही है. 2017 के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों का बदला 2019 में ले ही लिया था.
जब लोकसभा चुनाव में यूपी में मिली कम सीटों का मामला उठा तो सारा दोष योगी आदित्यनाथ पर मढ़ने की कोशिशें हुईं. ये केशव प्रसाद मौर्य ही थे जो लखनऊ से दिल्ली तक मुहिम चला रहे थे. बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी उन बैठकों में हुआ करते थे. और वैसी ही एक बैठक में योगी आदित्यनाथ ने दोहरा दिया कि बीजेपी अपने अति आत्मविश्वास के कारण चुनावों में समाजवादी पार्टी से पीछे रह गई. 2017 के उपचुनावों को लेकर भी योगी आदित्यनाथ का ऐसा ही मानना था.
अब योगी का अगला टार्गेट 2027 ही है. 2022 में योगी अपना जौहर दिखा ही चुके हैं. डंके की चोट पर सरेआम बोलकर उन सबकी 'गर्मी' ठंडा कर चुके हैं, जो सवाल उठा रहे थे. 2024 के लोकसभा चुनाव रिजल्ट पर सवाल उठाने वाले भी कुछ दिन बाद चुप करा ही दिये गये थे.
एक ही संबोधन में अमित शाह ने योगी आदित्यनाथ की भी अहमियत जता दी है, और सबको समझा भी दी है. अमित शाह ने योगी की तारीफ लोकसभा चुनाव के बाद करीब करीब वैसे ही की है, जैसे कोविड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी. देखा जाये तो दोनों ही बार बीजेपी संकट के दौर से तो गुजर ही रही थी - पहले मोदी से मिला था, अब अमित शाह ने भी अपना संदेश दे दिया है.
क्या ये संदेश स्वयं मौर्य के लिए है?
बेशक, केशव प्रसाद मौर्य के लिए भी है, और उनके समर्थकों के लिए भी. गर्मी शांत होनी चाहिए, लेकिन जोश ठंडा भी तो नहीं होना चाहिए. अमित शाह ने अपनी तरफ से यही समझाने की कोशिश की है कि योगी अति महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मौर्य गैर-महत्वपूर्ण नहीं हैं. बैलेंस जरूरी है. बिल्कुल बराबर न सही, तो ज्यादा ऊपर नीचे भी नहीं होना चाहिए.
2017 के चुनाव में बीजेपी सत्ता में लौटी तो कमान केशव प्रसाद मौर्य के हाथ में ही थी. 2016 में ही यूपी बीजेपी के अध्यक्ष बना दिये गये थे, और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में भी सबसे आगे थे. लोकसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाओं में भी मौर्य ही आगे चल रहे थे. मुश्किल ये है कि चर्चाएं हकीकत का रूप भी तो कम ही ले पाती हैं.
योगी हिंदुत्व के पोस्टर बॉय हैं, लेकिन एक चेहरा ऐसा भी तो चाहिए जो विपक्ष के प्रभाव से सीधे सीधे टक्कर ले सके. मौर्य ओबीसी का बड़ा चेहरा हैं. यूपी में. देश में मोदी की तरह. ओबीसी को लेकर राहुल गांधी और अखिलेश यादव की तरफ से उठाये जाने वाले सभी सवालों के जवाब जो हैं - और अगले विधानसभा चुनाव में तो और भी कड़ी प्रतियोगिता होने वाली है.
अगर अखिलेश यादव यूपी में बीजेपी के शासन को जाति विशेष की सरकार बताते हैं, तो जवाब तो हैं केशव मौर्य ही हैं. ठाकुर बनाम पीडीए की लड़ाई में बीजेपी के कारगर मिसाइल तो मौर्या ही हैं. लेकिन मौर्य को भी मालूम होना चाहिए कि मित्रता जरूरी तो होती है, लेकिन सब कुछ नहीं होती. महज मित्रता से ही काम नहीं चलने वाला है, और भी चीजें बहुत आवश्यक होती हैं.
मौर्य यूपी में बीजेपी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन योगी से तुलना की जरूरत नहीं है - मौर्य और उनके समर्थकों के लिए अमित शाह का कुछ ऐसा ही संदेश है.
क्या ये संदेश विपक्ष के लिए है?
समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने अपने X हैंडल पर लिखा है, 'इन्होंने इश्तहार में न लगाया उनका चित्र, उन्होंने किसी और को कह दिया ‘मित्र’!'
तुकबंदी भले ही कमजोर हो, लेकिन कटाक्ष काफी तगड़ा है. और, अखिलेश यादव के लिए अमित शाह का मैसेज भी वैसा ही है. जाति विशेष की सरकार जैसे आरोप अपनी जगह हैं, लेकिन जाति जनगणना का जवाब और उपाय भी बीजेपी के पास तगड़ा ही है.
अमित शाह ने अखिलेश यादव को भी अपना मैसेज दे दिया है. मैसेज ये कि वो चाहकर भी राहुल गांधी की तरह ओबीसी का एक्स-रे कराने जैसी चुनौती यूपी में नहीं दे सकते. और हां, अखिलेश यादव की लड़ाई सिर्फ योगी आदित्यनाथ से ही नहीं है, मौर्य से भी वैसे ही भिड़ना होगा. आगे से मौर्य को विधायकों के साथ आने पर मुख्यमंत्री पद का ऑफर देने से पहले अखिलेश यादव को दो बार सोचना पड़ेगा - अमित शाह का ये सीधा मैसेज है.
एक जरूरी सवाल, क्या अमित शाह ने यूपी की सियासत में केशव प्रसाद मौर्य का कद 'मेरे मित्र' बोलकर बढ़ा दिया है? बढ़ाया है या नहीं, लेकिन घटने से तो रोक ही दिया है. असली जवाब तो तब मिलेगा जब केशव मौर्य को फिर से बीजेपी की कमान सौंप दी जाये. और, ये तो केशव मौर्य ही कहते हैं - सरकार से संगठन बड़ा होता है.