स्ट्रे डॉग्स का मसला कोई छोटी-मोटी चीज नहीं. तमाम जरूरी लगने वाले मामलों को पीछे छोड़ते हुए हाल में देश की सर्वोच्च अदालत ने इनपर फैसला लिया और दबाव में उसमें संशोधन तक करना पड़ा. ये अकेला वाकया नहीं, और न ही हमारे देश तक सीमित है. कुत्तों की वजह से दुनियाभर की राजनीति में भूचाल आ चुके. रूस में शाही कुत्तों की ठाठ-बाट ने जनता को इतना भड़का दिया कि वो प्रोटेस्ट पर उतर आई थी.
रूसी राजनेताओं और उद्योगपतियों की शाही जिंदगी के किस्से चटकारे लेकर कहे-सुने जाते हैं लेकिन पुराने रूस की बात ही अलग थी. ये शाही साम्राज्य का दौर था. 19वीं सदी में यूएसएसआर बनने के ठीक पहले का. तब वहां जार का शासन था, जो मनमाने फैसले लेते और जनता के पैसों पर आलीशान जीवन जीते. यहां तक फिर भी ठीक था लेकिन हद तब हुई, जब यही शानोशौकत कुत्तों को मिलने लगी.
19वीं सदी के आखिर में वहां के जार निकोलस द्वितीय का शाही महल राजसी ठाठ के लिए ही नहीं, बल्कि फिजूलखर्ची के लिए भी बदनाम था. महल में रखे गए शाही कुत्तों पर जितना खर्च होता, वो लोगों की समझ से बाहर था. कुत्तों की देखभाल के लिए ट्रेंड नौकर रखे जाते. डॉग्स सोने-चांदी के बर्तनों में खाते. यहां तक कि उनके पहनने-सोने के लिए भी गद्दे और कपड़े यूरोप की महंगी दुकानों से मंगवाए जाते.
शाही परिवार तब अलेक्जेंडर पैलेस में रहता था. वहां एक डॉग किचन था, जहां हर कुत्ते की पसंद का खाना तैयार होता. निकोलस के बारे में अलग-अलग रिपोर्ट्स में मिलता है कि वे अपने दरबारियों को बुलाने के लिए कुत्तों का इस्तेमाल करते थे. डॉग्स ही सामंतों के कपड़े खींचकर इशारा देते कि उन्हें जार ने बुलाया है.

शाही कुत्तों की देखरेख तो हो रही थी, लेकिन इसके नाम पर दरबारी बड़ा भ्रष्टाचार भी मचाए हुए थे. ये राजशाही का आखिरी वक्त था. बुझते दिए की तरह लौ और लपलपाती हुई. हर कोई अपना घर भरने में मशगूल था. इसी दौरान वहां के गांव-देहात में अकाल फैला हुआ था. लोग भूखों मर रहे थे, जबकि शाही कुत्ते इंपोर्टेड खाना खा रहे थे.
दूसरी तरफ स्ट्रे डॉग्स के हाल बेहाल थे. खासकर सेंट पीटर्सबर्ग में आवारा कुत्तों को मारा जा रहा था. अगर कोई शख्स कुत्तों के साथ दिखाए दे तो उसपर जुर्माना भी लगता. ये शायद ऐसा था कि राजा और प्रजा एक जैसे शौक न रखें. रूसी अखबारों और मैगजीन्स में इस फिजूलखर्ची की खबरें छन-छनकर आतीं, जिससे जनता का गुस्सा बढ़ता गया.
ये गैर-बराबरी क्रांतिकारियों के लिए हथियार बन गई. वे पर्चों में बार-बार बताते कि जब रूसी आबादी रोटी के लिए तरस रही है, तब महल में कुत्तों की सेवा में चाकर लगे हुए हैं.
जनता आखिरकार बगावत पर उतर आई. राजसी कुत्तों पर खर्च और सड़क के कुत्तों पर हिंसा असल वजह तो नहीं थी, लेकिन इसने भी असंतोष को हवा दी और अगले दो दशक में रूसी क्रांति हुई, जिसके बाद सोवियत संघ का जन्म हुआ.

ये तो हुई रूस की बात, हमारे यहां भी कुत्तों को लेकर हंगामा नया नहीं.
साल 1832 की बात है. मुंबई में स्ट्रे डॉग्स बढ़ने लगे. तब ब्रिटिश राज था. अधिकारियों ने सोचा कि शेल्टर और तामझाम की बजाए क्यों न आवारा कुत्तों को खत्म ही कर दिया जाए. आदेश निकाला गया और हर कुत्ते को मारने पर इनाम भी रखा गया. मुंबई में स्ट्रे तो मारे जाने लगे लेकिन इनाम के लालच में डॉग कैचर अपने आसपास के पालतू कुत्तों को भी मारने लगे.
तब मुंबई में पारसी समुदाय के काफी लोग थे. जैसे ही ये खबर उन तक पहुंची, हंगामा हो गया. बता दें कि पारसी कम्युनिटी कुत्तों को धार्मिक नजरिए से काफी अहम मानती है. पूरा समुदाय प्रोटेस्ट करने लगा. ये छोटा-मोटा तबका नहीं, बल्कि रसूखदार था. उनके स्ट्राइक पर उतरने का सीधा असर अंग्रेजी हुकूमत पर हुआ. पूरी मुंबई का कामकाज ठप हो गया.
आखिरकार अधिकारियों ने आदेश वापस लिया. जेल में डाले गए प्रदर्शनकारी छोड़े गए. और कुत्तों को मारने की बजाए बाहर छोड़ा जाने लगा, वो भी जरूरी होने पर. 'जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी में मैड डॉग्स एंड पारसीज- बॉम्बे डॉग रायट्स 1832' नाम से छपे पेपर में इस वाकये का पूरा लेखाजोखा मिलता है.
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