राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में संगठन के सरसंघचालक मोहन भागवत शामिल हुए. मोहन भागवत ने कहा, संघ को लेकर प्रचलित चर्चाओं में अक्सर तथ्यात्मक जानकारी कम और धारणाएं अधिक होती हैं. इसी कारण इन व्याख्यानों का उद्देश्य है कि समाज को संघ की सही और प्रामाणिक जानकारी दी जाए.
2018 में दिल्ली में हुए इसी तरह के कार्यक्रम का उल्लेख करते हुए कहा गया कि उस संवाद से अनेक भ्रांतियां दूर हुई थीं. यद्यपि सभी लोग संघ से जुड़े, ऐसा नहीं था, लेकिन उद्देश्य भी लोगों को जोड़ना नहीं बल्कि सत्य जानकारी पहुंचाना था.
भारत का उत्थान, विश्व का कल्याण
संघ के सरसंघचालक ने कहा कि आरएसएस की स्थापना का मूल उद्देश्य भारत के उत्थान के माध्यम से विश्व के कल्याण में योगदान करना है. उनका कहना था कि हर राष्ट्र का विश्व के लिए एक मिशन होता है और भारत का मिशन है मानवता को समन्वय और सहयोग का मार्ग दिखाना.
उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ केवल "संघ चलाने" के लिए नहीं है, बल्कि भारत को उसकी भूमिका निभाने योग्य बनाने के लिए है. यही कारण है कि 100 वर्ष पूरे होने पर "नए क्षितिज" की चर्चा की जा रही है.
संघ प्रमुख ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विभिन्न धाराओं का उल्लेख किया—
- क्रांतिकारी धारा: सशस्त्र संघर्ष के जरिए आज़ादी लाने की कोशिश.
- राजनीतिक धारा: कांग्रेस और अन्य दलों के माध्यम से राजनीतिक जागरण.
- सुधार आंदोलन: समाज की कुरीतियों को दूर करने का प्रयास.
- आध्यात्मिक धारा: स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद जैसे नेताओं का समाज को मूल परंपरा की ओर ले जाने का प्रयास.
उन्होंने कहा कि ये सभी धाराएं महत्त्वपूर्ण थीं, लेकिन "पूर्ण राष्ट्र निर्माण" का कार्य अधूरा रह गया.
डॉ. हेडगेवार और संघ की स्थापना
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के जीवन प्रसंगों का उल्लेख करते हुए बताया गया कि वे बचपन से ही देशभक्ति की भावना से प्रेरित थे. क्रांतिकारी आंदोलन, कांग्रेस आंदोलन, समाज सुधार और राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय रहने के बाद उन्होंने अनुभव किया कि स्थायी परिवर्तन केवल समाज की "गुणात्मक उन्नति" से संभव है.
इसी चिंतन से 1925 में विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई. उद्देश्य रखा गया—"सम्पूर्ण हिंदू समाज का संगठन".
मोहन भागवत ने स्पष्ट किया कि "हिंदू" शब्द का अर्थ किसी के विरुद्ध खड़ा करना नहीं है, बल्कि समन्वय और समावेश की संस्कृति है. हिंदू परंपरा में विविध मार्गों और आस्थाओं का सम्मान है और इसी आधार पर भारतीय संस्कृति ने हमेशा सभी को साथ लेकर चलने का मार्ग दिखाया है.
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