मखाना पर सियासी जंग, किसान बिल का विरोध कर चुके राहुल गांधी का निशाना बिचौलियों पर!

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कांग्रेस नेता राहुल गांधी बिहार में वोट अधिकार यात्रा निकाल रहे हैं. 24 अगस्त को वो बिहार के कटिहार जिले में मखाना किसानों के बीच पहुंचें. उन्होंने किसानों का दुख दर्द भी समझा. किसानों के साथ तमाम विडियो शूट करने के बाद राहुल गांधी को समझ में आया कि मखाना किसानों को उनकी मेहनत के हिसाब से फायदा नहीं मिल रहा है. इसका कारण उन्हें ये समझ में आया कि बिचौलिया ही मखाना किसानों की दुर्दशा के लिए विशेष रूप से जिम्मेदार हैं.

राहुल ने सोशल मीडिया पर लिखा कि बिहार विश्व का 90% मखाना उत्पादन करता है, लेकिन मेहनत करने वाले किसान और मजदूर, जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़े समुदायों से हैं, मुनाफे का केवल 1% ही कमा पाते हैं. उन्होंने बताया कि मखाना बड़े शहरों में 1000-2000 रुपये प्रति किलो बिकता है, लेकिन किसानों को नाममात्र कीमत ही मिलती है, और सारा मुनाफा बिचौलियों को जाता है.

राहुल ने बिहार की एनडीए सरकार और केंद्र की बीजेपी सरकार पर वोट चोर होने का आरोप लगाया और कहा कि ये सरकारें किसानों को न तो आय देती हैं और न ही न्याय. उन्होंने वादा किया कि अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनी, तो मखाना किसानों को बिचौलियों के बिना सीधे बाजार तक पहुंच सुनिश्चित की जाएगी.

अब सवाल यह उठता है कि राहुल गांधी आखिर किस मुंह से मखाना किसानों को बिचौलियों से मुक्त कराने की बात कर रहे हैं? दरअसल देश में सभी किसान बिचौलियों के ही शिकार हैं. अनाज उगाने वाले किसानों को बिचौलियों से मुक्त कराने के लिए ही मोदी सरकार किसान बिल लेकर आई थी. पर कांग्रेस ने खुलकर इन कानूनों का विरोध किया था.  

राहुल गांधी की बातों में क्यों है विरोधाभास

राहुल गांधी का मखाना किसानों के लिए बिचौलियों के खिलाफ बोलना और 2020 के किसान बिलों का विरोध करना एक विरोधाभास के रूप में देखा जा सकता है. किसान बिलों का एक मुख्य उद्देश्य APMC मंडियों के बाहर व्यापार को बढ़ावा देना था, ताकि किसान अपनी उपज को सीधे खरीदारों, जैसे निजी कंपनियों या खुदरा विक्रेताओं को बेच सकें. सरकार का तर्क था कि इससे बिचौलियों की भूमिका कम होगी, क्योंकि किसान मंडी शुल्क और बिचौलियों के कमीशन से बच सकेंगे. उदाहरण के लिए, मखाना जैसे उत्पाद, जो बिहार में बड़े पैमाने पर उगाए जाते हैं, को किसान सीधे प्रोसेसिंग यूनिट्स या रिटेल चेन को बेच सकते थे. 

राहुल गांधी ने किसान बिलों का विरोध करते हुए कहा था कि APMC मंडियों का कमजोर होना छोटे किसानों को नुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि वे मंडियों पर निर्भर हैं. हालांकि, मखाना किसानों की स्थिति को देखें तो उनकी मुख्य शिकायत यह है कि बिचौलिये उनकी उपज को कम कीमत (400-750 रुपये प्रति क्विंटल) पर खरीदते हैं, जबकि बाजार में यह 900-1600 रुपये प्रति क्विंटल बिकता है. यदि किसान बिल लागू होते, तो मखाना किसान संभवतः सीधे खरीदारों से बेहतर कीमत प्राप्त कर सकते थे. बीजेपी नेता अमित मालवीय तंज कसते हुए लिखते हैं कि राहुल अब वही सवाल पूछ रहे हैं जो किसान बिल हल कर सकते थे.

बिचौलियों के अलावा भी है मखाना किसानों की समस्याएं

दरअसल मखाना किसानों की दुर्दशा का कारण बिचौलिये ही नहीं हैं. और भी समस्याएं हैं जिनके चलते मखाना किसानों को उनकी मेहनत का फल नहीं मिल पा रहा है. सरकार ने 100 करोड़ खर्च करके मखाना बोर्ड का काम तो शुरू किया है पर जब तक मखाना की सरकारी खरीद नहीं शुरू होगी किसानों की दुर्दशा होती रहेगी. पर मखाना की खेती पानी में डूबकर काले खोल वाले बीज निकालने से लेकर सुखाना, भूनना और पैकेजिंग करना बहुत ही श्रमसाध्य काम है.

किसान आज भी सदियों पुरानी तकनीक से काम कर रहे हैं. आधुनिक मशीनरी की सुविधा दिलवाना और फसल के लिए पर्याप्त ऋण और बीमे की व्यवस्था करना भी बेहद जरूरी है. मखाना बोर्ड गठित करने में बहुत देर हो चुकी है. बोर्ड से बहुत उम्मीदें जगी हैं. कम से कम 3 साल बाद सही स्थिति पता चलेगी कि मखाना बोर्ड ने कौन सा तीर मारा है. 

मखाना उत्पादन बिहार के मिथिलांचल और सीमांचल क्षेत्रों में केंद्रित है, जो 100 से अधिक विधानसभा सीटों को प्रभावित करता है. जाहिर है कि इसी के चलते यह कम से कम राजनीतिज्ञों के ध्यान में आ गया है. कम से कम किसानों का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिस्ट में शामिल तो होने लगा है. उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इन किसानों की स्थिति में सुधार के लिए काम भी होंगे. यहां के किसान, मुख्य रूप से मल्लाह और अन्य अति पिछड़े समुदायों से हैं. पिछड़ा और अति पिछड़ा समुदाय आजकल हर राजनीतिक दल का दुलारा बना हुआ है. 

एनडीए की मखाना रणनीति

मखाना बिहार के मिथिलांचल और सीमांचल क्षेत्रों में एक प्रमुख फसल है, जो 36,727 हेक्टेयर में उगाई जाती है और लगभग 56,400 टन उत्पादन देती है. यह फसल मुख्य रूप से मल्लाह और अति पिछड़े समुदायों (जैसे मछुआरे और दलित) द्वारा उगाई जाती है, जो बिहार की सामाजिक-आर्थिक संरचना में महत्वपूर्ण हैं. मखाना बोर्ड को मिथिलांचल और सीमांचल के 72 विधानसभा क्षेत्रों में एनडीए की स्थिति मजबूत करने के लिए एक रणनीतिक कदम माना जा रहा है, जहां बीजेपी और जदयू का पहले से ही दबदबा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मखाना को वैश्विक स्तर पर प्रचारित किया, जैसे मॉरीशस के राष्ट्रपति को मखाना भेंट करना और बिहार में मखाना अनुसंधान केंद्र, मखाना बोर्ड बनाना आदि. बिहार सरकार की मखाना विकास योजना के तहत किसानों को 75% सब्सिडी (अधिकतम 72,750 रुपये प्रति हेक्टेयर) दी जा रही है. किसानों को उच्च क्वालिटी वाले बीज भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं. ‘सुवर्ण वैदेही’ बीज किसानों की उत्पादकता बढ़ाई है. किसान एक हेक्टेयर में 16 से 28 क्विंटल मखाना की पैदावार कर रहे हैं.

हालांकि मखाना बोर्ड की स्थापना में हो रही  देरी से जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव अभी तक नहीं दिखा है. पूर्णिया के सांसद पप्पू यादव ने मखाना बोर्ड को सीमांचल में स्थापित करने की मांग की और आंदोलन की चेतावनी दी, जिसे बीजेपी और जदयू ने राजनीतिक स्टंट करार दिया . पर यह विवाद बताता है कि  मिथिलांचल (दरभंगा) और सीमांचल (पूर्णिया, कटिहार) के बीच यह महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है..

मखाना किसानों पर राहुल गांधी का दांव

मखानों किसानों की सामाजिक स्थिति को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ही नहीं राहुल गांधी उन्हें अपना बनाने में लगे हुए हैं. मखाना किसानों के मुद्दे को अपने वोट अधिकार यात्रा के दौरान उठाना राहुल गांधी की राजनीतिक रणनीति है. कांग्रेस और इंडिया गठबंधन बीजेपी की मखाना बोर्ड की घोषणा को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं. बीजेपी ने मखाना बोर्ड के जरिए किसानों को प्रशिक्षण, बाजार सुविधा और योजनाओं का लाभ देने का वादा किया था, लेकिन राहुल ने इसकी प्रगति पर सवाल उठाए, यह कहकर कि जमीन पर कोई बदलाव नहीं दिख रहा है.

कांग्रेस की यह रणनीति मुस्लिम और पिछड़े समुदायों के वोटों को साधने की कोशिश है, क्योंकि सीमांचल में मुस्लिम बहुल आबादी है. एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार मखाना बोर्ड के लिए शुरुआती फंड आवंटित हो चुके हैं और उच्च स्तरीय बैठकें भी हो रही हैं. बजट के कुछ हफ्ते बाद केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दरभंगा स्थित मखाना रिसर्च सेंटर का दौरा भी किया था. लेकिन किसानों को अब तक कोई ठोस जानकारी नहीं दी गई और इस देरी को लेकर असंतोष है. कांग्रेस इसी को एक मौके के रूप में देख रही है ताकि वह खुद को क्षेत्र की वंचित कृषक जातियों की आवाज़ के रूप में पेश कर सके.

मल्लाहों के वोट की ही असली लड़ाई

मल्लाह समुदाय अति पिछड़ा समुदाय में आता है. मखाना उत्पादन वाले क्षेत्र में यह खासा राजनीतिक प्रभाव रखता है. यह समुदाय राजनीतिक रूप से जागरूक होने के चलते अन्य पिछड़ी जातियों को अपने पीछे लामबंद करता है. परंपरागत रूप से जेपी आंदोलन से ही बिहार में गैर कांग्रसी समाजवादी पार्टियों के साथ जुड़ा रहा है. राहुल जब मखाना के खेतों में घुटने भर लगे पानी में पहुंचे तो उनके साथ विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के संस्थापक मुकेश सहनी भी थे, जो खुद को मल्लाह का बेटा कहते हैं.

कभी अमित शाह के साथ हेलिकॉप्टर में घूमकर सबको चौंकाने वाले सहनी इस बार चुनावों में महागठबंधन के लिए ताल ठोंक रहे हैं. सहनी की पार्टी वीआईपी 2020 में एनडीए में थी. पार्टी ने जिन 11 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से तीन जीती थीं. लेकिन बाद में पार्टी के विधायक भाजपा में चले गए जिससे सहनी और सत्ता पक्ष के रिश्ते बिगड़ गए और वह विपक्ष की ओर चले गए. इंडियन एक्सप्रेस अपने सूत्रों के हवाले से लिखता है कि महागठबंधन से सहनी ने 60 सीटों तक की मांग की है और खुद को डिप्टी सीएम उम्मीदवार के रूप में पेश कर रहे हैं. ऐसी अटकलें हैं कि अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो वे फिर से पाला बदल सकते हैं.

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