एक हाथी और एक चींटी सोलन से साथ-साथ शिमला जा रहे थे. पैदल. कैथलीघाट से एक किलोमीटर पहले सड़क फोरलेन नहीं रहती. सामने से आती हुई बोलेरो को साइड देते वक्त हरियाणा रोडवेज़ की वोल्वो अचानक थोड़ा ज्यादा ही बाएं चली आई, तो हाथी को भी बचने के लिए करतब करनी पड़ी. क़िस्मत सही थी कि वो खाई में नहीं गिरा. पर हड़बड़ी में हाथी का पिछला बायां पैर चींटी पर पड़ गया. चींटी ज़ोर से चिल्लाई. पता है उसने हाथी को क्या कहा, बोलो? अरे, हमें क्या मालूम. हाथी चींटी की भाषा नहीं समझता, चींटी हाथी की नहीं. हम तो दोनों की नहीं.
ठीक वैसे ही क़ानून जिस ज़बान में बात करता है, वो आम इंसान की समझ से परे है. इसीलिए वकील लगाने पड़ते हैं, दलीलों के लिए. वकीलों के लिए फ़ीस लगती है. अच्छे वकीलों के लिए अच्छी फ़ीस. अदालतों में जिरह होती है. मुक़दमों में गिरह होती है. सब खुलता है तो पता चलता है कि क़ानून की परतें होती हैं और अधिकारों की शर्तें होती हैं.
जैसे अभिव्यक्ति का अधिकार है, उस पर युक्तियुक्त निर्बंधन है. युक्तियुक्त ही उपयुक्त है और परिभाषा के बंधनों से मुक्त है. न्यायाधीश समय-समय पर निर्बंधन का परिबंधन करते हैं. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने समय रैना के मामले में कहा कि अभिव्यक्ति का अधिकार व्यावसायिक मंचों पर उपयुक्त मात्रा में ही उपलब्ध होगा. आप जो मर्ज़ी है बोलो लेकिन उससे अगर आपका व्यावसायिक हित सधता है, तो समस्या है.
समय रैना ने एक कार्यक्रम में भारत में जीवनरक्षक दवाओं के बेहिसाब दामों पर तंज कसा था. उसने एक दंपती के मासूम बच्चे को उदाहरण बनाया. उदाहरण यह था कि इस दंपती के लिए एक और बच्चा कर लेना ज्यादा आसान है, बजाय एक जीवन रक्षक इंजेक्शन की आस पालने के. क्योंकि जितने रुपए में एक इंजेक्शन आता है, उतने का सपना तक नहीं देखा इस दंपती ने, अपने सबसे सुनहरे सपनों में. उस बच्चे की बीमारी का उदाहरण तो बहाना था, रैना का उद्देश्य व्यवस्था को उसका जोक सुनाना था.
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पर सेंस ऑफ़ ह्यूमर जोक सुनाने की क्षमता नहीं है, जोक सुन पाने की क्षमता है. सबकी क्षमता अलग है. सब संवेदनशील हैं. लेवल अलग है. कोई हाथी सा संवेदनशील है, कोई चींटी सा. चींटी हाथी के कान में चुटकुला कह दे तो हाथी हंस पड़ता है. वहीं, चींटी कान में घुस जाए तो फिर सामने जो आए, उसे अल्लाह बचाए. सहनशील भी सब अलग-अलग स्तर पर हैं. न्यायालय ने भी यही कहा कि हास्य जीवन का हिस्सा है लेकिन हम ख़ुद पर हंसें तो अच्छा है. दूसरों का मज़ाक़ उनकी संवेदनशीलता को छेड़ना है. जब व्यावसायिक फ़ायदे के लिए हंसी बटोरी जाए तो फिर व्यक्ति की अभिव्यक्ति स्थगित हो जाती है. संवेदनाओं के तार छेड़ने पर संगीत निकलेगा, ताल निकलने में तबला पिटेगा. आयोजक भी पिट सकता है. मंच टूट सकता है. मामला हत्थे से छूट सकता है.
अदालत का ये निर्देश सुनकर कविहृदय लोग कांप जाएंगे क्योंकि कवि तो दोपहर की धूप में कह उठते हैं कि आकाश में कोहरा घना है. आकाश कुढ़ सकता है क्योंकि ये उसी की व्यक्तिगत आलोचना है. आख़िर उसकी भी कुछ संवेदना है. कवि को, कॉमेडियन को नेपथ्य में जाना पड़ेगा, दुष्यंत कुमार की तरह गाना पड़ेगा- 'दोस्तों, अब मंच पर सुविधा नहीं है; आज-कल नेपथ्य में सम्भावना है.' आख़िर कविगण तालियां ही नहीं, माल भी बटोरते हैं. शब्दों का व्यावसायिक उपयोग अगर अभिव्यक्ति के अधिकार के निर्बंधन से बाहर है, तो फिर ये नई विडंबना है क्योंकि अदृश्य संवेदनाओं के आहत होने की संभावना है. कोई हताहत चिल्लाता है, तो मृत का शरीर दिखाना पड़ता है. संवेदनाओं के आहत होने पर किसी सबूत की दरकार नहीं. इस विडंबना का फ़ायदा नहीं उठाए, ऐसी कोई सरकार नहीं. असम से गुजरात तक, पंजाब से तमिलनाडु तक सरकारें आलोचना पर क़ानून का शिकंजा चला चुकी हैं. अब संवेदना वाले मामले पर भी चाबुक फिरा सकते हैं.
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संवेदना बहुत विषयपरक है. सब्जेक्टिव. जिस पर आप हंसते हैं, उस पर कोई रोता है. अंधों में काना राजा फ़नी नहीं होता है. ना अंधे व्यक्ति के लिए, ना काने के लिए. लंगड़ा आम भले आमों का राजा हो पर किसी विकलांग से पूछिए एक पैर से माज़ूर होने का मतलब. सरकार ने उन्हें रातोंरात विकलांगता से मुक्ति दिलाई और सब दिव्यांग हो गए. पर आज तक कोई शरीर से समर्थ आदमी नहीं मिला जो दिव्य होना चाहता है. जबकि दिव्यांग में एक दिव्य तत्व है. इसी का महत्व है. एक ही शब्द से शारीरिक और धार्मिक, दोनों संवेदनाएं आहत हो सकती हैं. किसी को दीवाना कहना परिबंधन के बाहर है या भीतर; तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर; ये पहेलियां बहेलियों के लिए हिसाब का मसला नहीं रह गए, कानूनी किताब का मसला हो गए.
तो हे साहित्यिकों, कमेडियनों, कवियों, हास्य कलाकारों, प्रमोदियों और अनुरागियों, अब जहां लगा टिकट, वहीं समस्या विकट. आना नहीं संवेदनाओं के नंगे तारों के निकट.
मेरा न्यायापालिका में पूरा विश्वास है और मैं जानता हूं कि न्यायमूर्ति जो कहेंगे सबके हित में कहेंगे. ये कंफ़्यूजन क्लीयर करेंगे. मैं ईश्वर को जानता नहीं पर नाम जानता हूं. अलग-अलग नाम हैं, अलग-अलग परिभाषाएं हैं. पर धर्म पर टिप्पणी नहीं कर सकता क्योंकि भावनाएं आहत हो जाती हैं. ईशनिंदा का क़ानून भी है पर ईश की परिभाषा के बिना. भारत में सब सत्य है. सत्यमेव जयते है. तथ्य के आलोक में सत्य देख सकते हैं या सत्य के आलोक में तथ्य देख सकते हैं. इनमें कौन प्रकाशित और कौन सा प्रकाश है, ये परिभाषित नहीं है.
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हाथी सॉरी कह रहा है, चींटी को लग रहा है सब बकवास है. चींटी थैंक यू कह रही है कि तुम्हारे पैर के साये में बच गई नहीं तो टायर के नीचे आ जाना था. हाथी को चींटी की भाषा का ज्ञान नहीं, ना तो चींटी को हाथी की भाषा का भास है. हमारे लिए तो दोनों बकवास है. ये सम्मान का अधिकार है, या अधिकार का ह्रास है.
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