90 का वो जन आंदोलन... जब नेपाल में राजा को छोड़नी पड़ी थी गद्दी, बहाल हुआ था लोकतंत्र

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आज जिस तरह लाखों युवा और छात्र नेपाल की सड़कों पर उतर आए हैं और संसद भवन सहित राष्ट्रपति आवास तक को आग में झोंक दिया है. ठीक उसी तरह 1990 में भी एक आंदोलन हुआ था, जिसकी वजह से वहां के राजा को गद्दी छोड़नी पड़ी थी. यह नेपाल का पहला जन आंदोलन कहा जाता है, जो एक लोकतंत्र समर्थक जन विद्रोह था. 

 नेपाल में जन आंदोलन I (जन आंदोलन I) एक ऐतिहासिक लोकतंत्र समर्थक विद्रोह था, जिसकी परिणति अप्रैल 1990 में हुई और जिसने देश के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। तीन दशकों तक, नेपाल में  रही, जिसे 

नेपाल के राजा ने भंग कर दी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार 
राजा महेंद्र ने 1960 में पहली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को भंग करने के बाद जबरदस्ती निरंकुश पंचायत प्रणाली लागू की थी. इस प्रणाली ने राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके साथ ही नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित कर दिया और सत्ता को राजतंत्र में केंद्रित कर दिया था.  समय के साथ, राजनीतिक दमन, आर्थिक मंदी और मौलिक स्वतंत्रताओं को नियंत्रित कर देने की वजह से जनता में निराशा बढ़ती गई. 

1980 के दशक के अंत में जब पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक आंदोलन हो रहे थे. तब नेपाल में भी लोगों के बीच वहां की सरकार और जबरदस्ती थोपी गई पंचायत प्रणाली के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा था. इसके परिणाम स्वरूप नेपाली कांग्रेस और संयुक्त वाम मोर्चा सहित विपक्षी दलों ने एक व्यापक नागरिक प्रतिरोध शुरू करने का फैसला लिया. 

पंचायत प्रणाली के खिलाफ एकजुट हो गए थे विपक्षी दल
नेपाल न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार,  18 फरवरी 1990 विपक्षी दलों ने आधिकारिक तौर पर जन आंदोलन शुरू किया. इसके तहत निरंकुश राजशाही की समाप्ति और बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना का आह्वान किया गया. हफ्तों तक, पूरे देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हड़तालें और प्रदर्शन हुए. इनका तब के राजा और राजतांत्रिक सरकार ने हिंसक दमक किया.

दमनात्मक कार्रवाई के बावजूद, छात्रों, मजदूरों, अन्य पेशेवरों और आम नागरिकों की यापक भागीदारी के साथ आंदोलन और तेज हो गया. इसके परिणाम स्वरूप 8 अप्रैल, 1990 को, राजा बीरेंद्र ने अंततः नरमी दिखाई और राजनीतिक दलों पर से प्रतिबंध हटा लिया. इससे एक नए संविधान का मार्ग प्रशस्त हुआ.

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इस जन विद्रोह ने नेपाल की राजनीतिक दिशा में एक निर्णायक मोड़ ला दिया, जिसने 28 साल पुरानी निरंकुश पंचायत व्यवस्था को प्रभावी ढंग से ध्वस्त कर दिया और बहुदलीय लोकतंत्र के युग का सूत्रपात किया. इस जन आंदोलन I ने नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र और बहुदलीय लोकतंत्र के एक नए युग की शुरुआत की. 

क्यों 18 फरवरी को शुरू हुआ था आंदोलन
नेपाल के जन आंदोलन को आधिकारिक तौर पर 18 फरवरी, 1990 को शुरू किया गया. यह तारीख जानबूझकर पंचायत दिवस के साथ मेल खाने के लिए चुनी गई थी, जो मौजूदा व्यवस्था को सीधी चुनौती देने का प्रतीक था.

जन आंदोलन की मुख्य वजहें
जन आंदोलन I कोई स्वतःस्फूर्त विस्फोट नहीं था, बल्कि निरंकुश पंचायत व्यवस्था में जड़ें जमा चुकी लंबे समय से चली आ रही शिकायतों का परिणाम था. 1961 में राजा महेंद्र द्वारा शुरू की गई पंचायत व्यवस्था ने सारी शक्ति राजतंत्र के भीतर केंद्रीकृत कर दी थी. इससे शासन में जनता की सार्थक भागीदारी समाप्त हो गई थी. राजनीतिक जीवन से लोगों के इस व्यवस्थित बहिष्कार ने गहरे आक्रोश और मोहभंग को जन्म दिया, जिसने एक बड़े आंदोलन का मंच तैयार किया.

भारत की आर्थिक नाकेबंदी ने आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की
1989 की भारतीय नाकेबंदी ने नेपाल के जन आंदोलन I को जन्म देने वाले राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. दोनों देशों के बीच बिगड़ते राजनयिक संबंधों, खासकर व्यापार और पारगमन संधियों के कारण उस वर्ष मार्च में भारत नाकेबंदी लगाई थी.  

 ईंधन, खाद्यान्न, दवा और कच्चे माल सहित आवश्यक वस्तुओं के प्रवाह को प्रतिबंधित करने के भारत के फैसले ने नेपाल को लगभग रातोंरात आर्थिक संकट में डाल दिया था. इसका प्रभाव तत्काल और विनाशकारी था. इससे रोजमर्रा का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया और अर्थव्यवस्था ठप हो गई.

तब पड़ोसी देश पर भी निकला था नेपाली नागरिकों का गुस्सा
नाकेबंदी ने नेपाल की आर्थिक कमज़ोरी और अपने दक्षिणी पड़ोसी पर उसकी अत्यधिक निर्भरता को साफ तौर पर उजागर कर दिया. इससे नेपाली जनता में राष्ट्रवादी भावनाएं भड़क उठीं, न केवल भारत के विरुद्ध, बल्कि राजशाही और सत्तारूढ़ पंचायती राज व्यवस्था के विरुद्ध भी, जिसे व्यापक रूप से राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में असमर्थ माना जाता था.

जन आंदोलन में छात्रों की क्या भूमिका थी?
नेपाल के जन आंदोलन I में छात्र की भागीदारी एक महत्वपूर्ण ताकत थी.  छात्रों और युवाओं ने अद्भुत साहस, ऊर्जा और संगठनात्मक कौशल का प्रदर्शन किया था. पंचायत प्रणाली के विरुद्ध प्रतिरोध के एक लंबे इतिहास के साथ, छात्र संगठन 1990 के जन आंदोलन के शुरू होने से पहले ही राजनीतिक विरोधों में  सक्रिय भूमिका निभा रहे थे.

 जब देशव्यापी विद्रोह का आह्वान किया गया, तो देश भर के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रों ने असाधारण जोश और प्रतिबद्धता के साथ इसमें शामिल हुए. छात्रों ने प्रदर्शनों का नेतृत्व किया, रैलियां आयोजित कीं और सुरक्षा बलों का सीधा सामना किया.

गिरफ़्तारियों, हिंसा और धमकियों के ज़रिए छात्र आंदोलन को दबाने की सरकार की कोशिशें काफी हद तक उल्टी साबित हुईं. असहमति को दबाने के बजाय, इन दमनकारी हथकंडों ने आक्रोश और दृढ़ संकल्प को और भी ज़्यादा भड़का दिया. 

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