आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के 15 दिन श्राद्ध या पितृ पक्ष के नाम से जाने जाते हैं. इन दिनों में खास तौर पर पितरों के लिए पिंडदान और तर्पण किया जाता है और मान्यता है कि इससे पितृ प्रसन्न होते हैं और उनके आशीष से वंश रक्षा तो होती ही है, साथ ही जीवन भी सफल होता है. श्राद्ध के महत्व को बताने वाली कई पौराणिक कथाएं पुराणों में दर्ज हैं. ऐसी ही एक कथा हरिवंश पुराण में आती है, जो कि महाभारत का ही एक परिशिष्ट भाग है.
हरिवंश पुराण में अध्याय 16 से अध्याय 24 तक श्राद्ध कल्प विधान की महिमा बताई गई है. यह महिमा तब बताई गई, जब जनमेजय को अपने पिता का श्राद्ध करना था. तब उन्होंने महर्षि वैशंपायन और महामुनि वेद व्यास से इसका महत्व और कारण पूछा था. इस प्रश्न के उत्तर में महर्षि वैशंपायन ने भीष्म पितामह की कथा सुनाई, जिन्होंने महाराज युधिष्ठिर को महर्षि मार्कंडेय के द्वारा बताया श्राद्ध का महत्व समझाया था.
कथा के अनुसार, मार्कंडेय ऋषि ने भीष्म को संबोधित करते हुए कहा कि यह सारा संसार श्राद्ध की ही श्रद्धा से चल रहा है और इसी के पुण्य से संतुलित भी है. इसके प्रमाण में वह एक कथा सुनाते हुए कहते हैं कि, प्राचीन काल में सात ब्राह्मणों ने श्राद्ध के प्रभाव से उत्तम जन्म प्राप्त किया था. इनके नाम थे – वागदुष्ट, क्रोधन, हिंसन, पिशुन, कवि, खसृम, और पितृवर्ती. ये सभी विश्वामित्र के पुत्र थे और अपने पिता के शाप के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेते रहे. फिर भी, श्राद्ध के पुण्य से उन्हें बाद में उत्तम जन्म और ज्ञान प्राप्त हुआ.
सात ब्राह्मणों का अधर्म और श्राद्ध का प्रभाव
ये सात ब्राह्मण गार्ग्य के शिष्य बनकर उनके आश्रम में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए रह रहे थे. एक बार गुरु की आज्ञा से वे उनकी दुधारू गाय और उसके बछड़े को वन में चराने ले गए. रास्ते में भूख से पीड़ित होने के कारण, उन्होंने गाय को मारने का क्रूर विचार किया. कवि और खसृम ने इसका विरोध किया, लेकिन अन्य भाइयों ने उनकी बात नहीं मानी. तब पितृवर्ती नाम के धर्मात्मा ब्राह्मण ने सुझाव दिया कि यदि गाय को मारना ही है, तो उसे पितरों के लिए श्राद्ध के रूप में अर्पित करना चाहिए. ऐसा करने से गाय को भी धर्म की प्राप्ति होगी और उन्हें अधर्म का दोष नहीं लगेगा. सभी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और गाय को पितरों के लिए अर्पित कर उसका उपयोग किया. इसके बाद, उन्होंने गुरु को झूठ बोलकर कहा कि गाय को सिंह ने मार डाला और बछड़े को गुरु को सौंप दिया. इस पापकर्म के कारण, मृत्यु के बाद ये सात भाई व्याध (शिकारी) के रूप में जन्मे.
विभिन्न योनियों में जन्म और श्राद्ध का फल
पहले जन्म में व्याध (शिकारी) बनकर ये सात भाई दशार्ण देश में पैदा हुए. उनके नाम थे – निर्वैर, निर्वत, शांत, निर्मल, कृति, वैधस, और मातृवर्ती. ये सभी धर्म का पालन करते थे और झूठ से दूर रहते थे. अपने पूर्व जन्म के कर्मों का स्मरण करते हुए, वे ध्यान में लीन रहते थे. माता-पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने धनुष त्यागकर वन में अनशन द्वारा प्राण त्याग दिए. इसके बाद, उनके शुभ कर्मों के कारण वे कालंजर पर्वत पर मृग (हिरण) के रूप में उत्पन्न हुए. उनके नाम थे – उन्मुख, नित्यवित्रस्त, स्तब्धकर्ण, विलोचन, पंडित, घस्मर और नादी. इस जन्म में भी उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण था. वे धैर्यपूर्वक कष्ट सहते और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तपस्या में लीन रहे.
आगे चलकर, वे चक्रवाक पक्षी के रूप में जलद्वीप में उत्पन्न हुए. उनके नाम थे – निपुण, निर्मम, शांत, निर्विद्वंद, निपुग्रह, निवृत्ति, और निवत. इस जन्म में भी उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया और नदी के किनारे तप करते हुए प्राण त्याग दिए.
हंस योनि और मानसरोवर में तप
इसके बाद, वे मानसरोवर में हंस के रूप में उत्पन्न हुए. उनके नाम थे – सुमना, शुचिवाक, शुद्ध, पंचम, छिद्रदर्शन, सुनेत्र, और स्वतंत्र. इस जन्म में भी उन्हें अपने पूर्व जन्मों का स्मरण था. वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए योग साधना में लगे रहे. स्वतंत्र नामक हंस ने एक बार राजा विभ्राज का वैभव देखकर उनके समान बनने की इच्छा की. इस इच्छा के कारण, शुचिवाक ने उसे शाप दिया कि वह कांपिल्य नगर का राजा बनेगा और उसके दो मित्र उसके मंत्री होंगे.
शेष चार हंसों ने इस शाप को देखकर स्वतंत्र और उसके मित्रों से संबंध तोड़ लिया. बाद में, सुमना ने कृपा करके कहा कि यह शाप शीघ्र समाप्त होगा और उन्हें फिर से ज्ञान प्राप्त होगा.
कांपिल्य नगर में ब्रह्मदत्त के रूप में जन्म
इसके बाद, स्वतंत्र ब्रह्मदत्त के रूप में, छिद्रदर्शन पांचिक के रूप में, और सुनेत्र कंडीरक के रूप में कंपिल नगर में जन्मे. वे वेद-वेदांग के विद्वान थे और योग साधना में लीन रहे. शेष चार हंस, सुमना, शुचिवाक, शुद्ध, और पंचम दरिद्र क्षत्रिय कुल में जन्मे और योग साधना में तत्पर रहे.
ब्रह्मदत्त और उनकी पत्नी सन्नति की कथा
एक बार ब्रह्मदत्त अपनी पत्नी सन्नति के साथ उपवन में विहार कर रहे थे. वहां उन्होंने एक चीटे और चीटी की बातचीत सुनी, जिसमें चीटा चीटी से प्रेम भरी याचना कर रहा था. यह सुनकर ब्रह्मदत्त हंस पड़े, जिससे सन्नति नाराज हो गईं. उन्होंने कहा कि कोई मनुष्य बिना तप और योग शक्ति के प्राणियों की भाषा नहीं समझ सकता.
ब्रह्मदत्त ने सन्नति को मनाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं मानीं. तब ब्रह्मदत्त ने भगवान नारायण की उपासना की. छठी रात को भगवान ने दर्शन देकर कहा कि प्रातःकाल में उन्हें कल्याण प्राप्त होगा. उसी समय, चार ब्राह्मणों के पिता, जो अपने पुत्रों से श्लोक सीख चुके थे, ब्रह्मदत्त को श्लोक सुनाने आए. इन श्लोकों को सुनकर ब्रह्मदत्त, पांचाल, और कंडक को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो गया. वे मूर्छित हो गए, लेकिन बाद में होश में आने पर उन्होंने ब्राह्मणों को धन और भोग प्रदान किए.
ब्रह्मदत्त ने अपने पुत्र विश्वकसेन का राज्याभिषेक किया और सन्नति के साथ वन में योग साधना के लिए चले गए. सन्नति ने बताया कि उन्होंने क्रोध का नाटक केवल ब्रह्मदत्त को योग की ओर प्रेरित करने के लिए किया था. दोनों ने योग साधना द्वारा परम गति प्राप्त की. पांचाल और कंडक ने भी योग साधना द्वारा मुक्ति प्राप्त की.
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