कैसे खिसकती गई ठाकरे परिवार की सियासी जमीन? उद्धव और राज ऐसे ही नहीं छेड़ रहे 'मराठी वॉर'

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महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में दो दिन पहले एक बड़ी रैली हुई. कहने के लिए महाराष्ट्र सरकार के थ्री लैंग्वेज पॉलिसी वापस लेने को मराठी अस्मिता की जीत बताते हुए आयोजित की गई यह विजय रैली गैर राजनीतिक थी, लेकिन मंच पर साथ नजर आए ठाकरे परिवार के दो कोण इसे खास बना गए. यहां बात हो रही है बाल ठाकरे के पुत्र और शिवसेना (यूबीटी) के प्रमुख उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के प्रमुख राज ठाकरे की. राज ठाकरे ने साल 2005 में शिवसेना से नाता तोड़ा था और तब से अब तक, 20 वर्ष में यह पहला अवसर था जब वह किसी सार्वजनिक मंच पर उद्धव ठाकरे के साथ नजर आए. 

इस विजय रैली में थ्री लैंग्वेज पॉलिसी पर फिलहाल रोक के फैसले को मराठी अस्मिता, मराठी सांस्कृतिक पहचान की जीत के रूप में पेश किया गया. इस विजय रैली में मराठी अस्मिता और ठाकरे बंधु, इन दो की ही गूंज रही. अब बात इसे लेकर हो रही है कि उद्धव और राज ठाकरे क्यों 'मराठी वॉर' छेड़ रहे हैं? इसके पीछे कहीं पिछले एक से डेढ़ दशकों के बीच महाराष्ट्र की पॉलिटिक्स पर कमजोर होती गई पकड़, ठाकरे परिवार की सियासी जमीन मजबूत करने की रणनीति तो वजह नहीं?

जड़ों की ओर लौटता ठाकरे परिवार?

उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के थ्री लैंग्वेज पॉलिसी के विरोध में खुलकर उतर आने को लगातार खिसकती सियासी जमीन बचाने के लिए जड़ों की ओर लौटने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है. इसे समझने के लिए शिवसेना की स्थापना और उस समय के हालात की चर्चा भी जरूरी है. एक मई 1960 को बॉम्बे राज्य का भाषा के आधार पर विभाजन कर दो राज्य अस्तित्व में आए थे- मराठी भाषी महाराष्ट्र और गुजराती भाषी गुजरात. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को बनाया गया. उस समय मुंबई में मराठी भाषी अल्पसंख्यक थे और गैर मराठी आबादी अधिक थी.

एक अंग्रेजी अखबार में कार्टूनिस्ट बाला साहेब ठाकरे यानी बाल ठाकरे ने नौकरी छोड़ दी और मार्मिक नाम से अपना साप्ताहिक अखबार शुरू कर मुंबई में मराठी आंदोलन छेड़ दिया. बाल ठाकरे ने दूसरे राज्यों से रोजी-रोजगार की तलाश में मुंबई आने वाले लोगों का मुखर विरोध किया. मुंबई में महाराष्ट्र के रहने वाले लोगों को रोजगार के अधिक अवसर देने की मांग और मराठा मानुष के अधिकारों की बात से बाल ठाकरे की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी. बाल ठाकरे ने 19 जून 1966 को अपने क्षेत्रीय आंदोलन को 'शिवसेना' के रूप में राजनीतिक दल की शक्ल दे दी.

मराठी अस्मिता की सियासत की उपज शिवसेना की इमेज बाद में फायरब्रांड हिंदुत्व की पॉलिटिक्स से जुड़ गई. पार्टी छोड़ने के बाद राज ठाकरे ने भी गैर मराठी आबादी के खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार किया, लेकिन उद्धव ठाकरे संयमित रहे. मराठी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले के खिलाफ ठाकरे बंधु खुलकर उतर आए, तो इसे ठाकरे परिवार की सियासी जड़ की ओर लौटने की रणनीति से जोड़कर भी देखा जा रहा है.

कमजोर होती गई ठाकरे परिवार की जमीन

कभी बाल ठाकरे के राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले राज ठाकरे ने उद्धव के हाथ में शिवसेना की कमान जाने के बाद पार्टी छोड़ दी थी. राज ठाकरे ने 2005 में शिवसेना छोड़ने का ऐलान किया और 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी एमएनएस के गठन का ऐलान कर दिया. उद्धव ठाकरे के संयमित रुख के मुकाबले राज ठाकरे का रुख अधिक आक्रामक और मराठी आधारित था. राज की पार्टी ने अपने पहले ही चुनाव (2009 का महाराष्ट्र चुनाव) में 5.7 फीसदी वोट शेयर के साथ 13 सीटें जीत लीं.

राज ठाकरे के पार्टी छोड़ने से पहले 2004 के चुनाव में 20 फीसदी वोट शेयर के साथ 62 सीटें जीतने वाली शिवसेना को 2009 में करीब चार फीसदी वोट का नुकसान उठाना पड़ा. शिवसेना 2009 में 16.3 फीसदी वोट के साथ 44 सीटें जीतकर अपनी गठबंधन सहयोगी बीजेपी के भी बाद चौथे नंबर पर रही थी. 2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने 282 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा और 19.5 फीसदी वोट शेयर के साथ 63 सीटें जीत दूसरे नंबर रही. इस चुनाव में एमएनएस को 2.5 फीसदी वोट और 12 विधानसभा सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था. एमएनएस 3.2 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट ही जीत सकी थी.

2019 के महाराष्ट्र चुनाव में शिवसेना 16.6 फीसदी वोट शेयर के साथ 56 सीटें जीतने में सफल रही थी. एमएनएस 2.3 फीसदी वोट शेयर के साथ केवल एक सीट ही जीत सकी थी. महाराष्ट्र चुनाव 2024 में उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना (यूबीटी)  चुनाव का वोट शेयर 2004 में 20 फीसदी के मुकाबले 2024 में आधा होकर 10 फीसदी रह गया. सीटों की संख्या भी 20 पर आ गई. राज ठाकरे की अगुवाई वाली एमएनएस शून्य पर सिमट गई और वोट शेयर वंचित बहुजन अघाड़ी के 2.2 फीसदी से भी कम 1.6 फीसदी पहुंच गया. महाराष्ट्र चुनाव नतीजों के बाद उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, दोनों ठाकरे बंधुओं के सियासी भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है. 

हिंदी के विरोध से बचते दिखे उद्धव

राज ठाकरे जहां मराठी लोगों के अधिकारों को लेकर मुखर रहे, आक्रामक तेवर दिखाए. वहीं, उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी हिंदी विरोधी इमेज से बचने की कवायद में भी जुटी नजर आई. उद्धव ठाकरे ने डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे को 'जय गुजरात' बोलने पर घेरा, बीजेपी पर विभाजनकारी राजनीति का आरोप लगा कठघरे में खड़ा किया, लेकिन वह हिंदी के खिलाफ कुछ भी बोलने से बचते नजर आए. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हिंदी थोपे जाने के खिलाफ लड़ाई में ठाकरे बंधुओं के समर्थन की बात कही, तो तुरंत ही शिवसेना (यूबीटी) के मुख्य प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद संजय राउत ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पार्टी और ठाकरे परिवार का रुख स्पष्ट कर दिया.

संजय राउत ने कहा कि दक्षिण के राज्यों का रुख है कि हिंदी न बोलेंगे, ना बोलने देंगे. हमने किसी को भी हिंदी बोलने से नहीं रोका है. हमारी लड़ाई बस यहीं तक है कि प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी के लिए सख्ती बर्दाश्त नहीं करेंगे. उद्धव और उनकी पार्टी मराठी अस्मिता की पिच पर खुलकर खेल रही है, लेकिन कोशिश यह भी है कि कहीं से भी हिंदी विरोधी का टैग ना लगे. इसके पीछे सियासी मजबूरी भी है. उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य जिस वर्ली सीट से विधायक हैं, वहां उत्तर भारतीय मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. वर्ली सीट पर उत्तर भारतीय कितनी मजबूत स्थिति में हैं, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1951 के चुनाव में यहां से सोशलिस्ट पार्टी के पंडित भगीरथ झा जीते थे.

गैर मराठी साथ आए नहीं, उद्धव से छिटके मराठी भी

शिवसेना की स्थापना के समय से ही पार्टी और ठाकरे परिवार की ताकत मराठी वोटबैंक रहा है. पिछले कुछ वर्षों में सख्त भाषा का इस्तेमाल करने वाली शिवसेना की न सिर्फ भाषा बदली, नरमी आई, बल्कि हर तबके में स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए पार्टी ने फायरब्रांड हिंदुत्व की पॉलिटिक्स से भी किनारा कर लिया. मराठी मानुष की पॉलिटिक्स के कारण गैर मराठियों के बीच शिवसेना की राजनीतिक जमीन पहले से ही कमजोर थी, आम लोगों से जुड़े मुद्दों से पार्टी की दूरी के कारण मराठी भी दूर होते चले गए.

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