प्रेग्नेंसी हर महिला के लिए एक खास जर्नी होती है, लेकिन महिलाओं को कई बार प्रेग्नेंसी के दौरान कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इस स्थिति में फीटल मेडिसिन एक्सपर्ट्स की जरूरत होती है. फीटल मेडिसिन को पेरीनेटोलॉजी और मैटरनल फीटल मेडिसिन के नाम से भी जाना जाता है. इसमें प्रेग्नेंसी के दौरान भ्रूण और मां की सेहत पर फोकस किया जाता है. इस प्रक्रिया में भ्रूण में होने वाली असमानता और दिक्कत का पता लगाकर इलाज किया जाता है. सीके बिरला अस्पताल की सीनियर फीटल मेडिसिन एक्सपर्ट डॉक्टर मोलश्री गुप्ता ने आजतक डॉट इन से बात करते हुए फीटल मेडिसिन से जुड़ी सभी जरूरी चीजों के बारे में बताया है. आइए जानते हैं फीटल मेडिसन क्या और कैसे इसके जरिए गर्भ में ही भ्रूण में होने वाली खतरनाक बीमारी का पता लगाकर जन्म से पहले ही उसका इलाज किया जा सकता है.
फीटल मेडिसिन क्या है और क्यों ज़रूरी है?
डॉ मोलश्री बताती हैं कि फीटल मेडिसिन एक सुपर-स्पेशलिटी है जो गर्भ में पल रहे बच्चे की हेल्थ पर फोकस होती है. इसमें ना सिर्फ अल्ट्रासाउंड से बीमारियों की पहचान की जाती है, बल्कि कुछ मामलों में गर्भ के अंदर ही इलाज भी कर सकते हैं. जैसे-
- गर्भ में एनीमिया होने पर बच्चे को 'इन्ट्रायूटेराइन ब्लड ट्रांसफ्यूज़न' दिया जा सकता है.
- जुड़वां बच्चों में एक को खतरा हो तो विशेष लेज़र सर्जरी या माइक्रोवेव एब्लेशन से बैलेंस बनाया जा सकता है.
- अगर किसी बच्चे में दिल की कोई समस्या या यूरिन में कोई दिक्कत हो, तो उसे भी गर्भ में पहचाना और मैनेज किया जा सकता है.
फीटल मेडिसिन एक्सपर्ट की जरूरत एक फीमेल को कब होती है अपनी प्रेग्नेंसी में?
फेटल मेडिसिन एक्सपर्ट की जरूरत प्रेग्नेंसी के विभिन्न चरणों में पड़ सकती है, लेकिन इसकी शुरुआत प्रेग्नेंसी से पहले ही हो जाती है. अगर परिवार में जन्मजात या हेरिटेबल कंडीशंस (जैसे थैलेसीमिया) की हिस्ट्री हो. इसके अलावा, अगर मां की उम्र 35 साल से ज्यादा है, या मां को डायबिटीज, हाइपरटेंशन, थायरॉइड जैसी मेडिकल प्रॉब्लम या कोई दवा/रेडिएशन एक्सपोजर हुआ हो तो भी फीटल मेडिसिन की सलाह दी जाती है. प्रेग्नेंसी के दौरान बच्चे की जांच के लिए तीन मुख्य स्कैन होते हैं:
1. डेटिंग स्कैन- हार्टबीट और ग्रोथ जांचने के लिए.
2. 12 वीक स्कैन- बच्चे के ब्रेन, हार्ट, किडनी और नाक की हड्डी की जाँच, जिससे जेनेटिक प्रॉब्लम का पता चल सकता है.
3. 5 महीने में एनोमली स्कैन - बच्चे की संरचनात्मक जांच होती है, जैसे हार्ट, ब्रेन आदि का विकास सही हो रहा है या नहीं. अगर रिस्क फेक्टर्स मौजूद हों तो ऐम्नियोसेंथेसिस कराया जाता है, जिसमें बच्चे के आस-पास के फ्लूइड की जांच कर डीएनए का विश्लेषण किया जाता है ताकि समस्याओं की पुष्टि हो सके.
हाई रिस्क प्रेग्नेंसी क्या होती है?
डॉ मोलश्री ने बताया, जब गर्भावस्था के दौरान कोई समस्या पैदा हो – जैसे मां को हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, थायरॉइड या कोई गंभीर बीमारी हो, या अल्ट्रासाउंड में बच्चे में कोई विकृति (abnormality) दिखे – तो इसे ‘हाई रिस्क प्रेग्नेंसी’ माना जाता है. कभी-कभी बच्चे का वजन नहीं बढ़ता, या प्लेसेंटा की स्थिति ठीक नहीं होती. ऐसे में मां और बच्चे दोनों को विशेष देखभाल की ज़रूरत होती है. हाई रिस्क प्रेग्नेंसी में वे महिलाएं भी आती है जिनकी उम्र ज्याया हो, या जिन्होंने प्रेग्नेंसी के दौरान शराब या स्मोकिंग आदि की हो, या जो प्रेग्नेंसी के दौरान रेडिएशन के संपर्क में आई हों.
फीटल मेडिसिन में क्या है 'RULE OF THREE'
फीटल मेडिसिन में, "RULE OF THREE" एक तरीका है जिससे डॉक्टर अल्ट्रासाउंड स्कैनिंग करते हैं. इसमें भ्रूण के शरीर के हर हिस्से की अलग-अलग तरीकों से जांच की जाती है. इससे डॉक्टरों को भ्रूण की सेहत का पूरा आंकड़ा मिलता है और किसी भी समस्या का पता लगाने में मदद मिलती है.
प्रेग्नेंसी के दौरान ये स्कैन होते हैं बेहद जरूरी
प्रेग्नेंसी के दौरान कुछ खास समय पर जांच होना बेहद जरूरी है. ताकि हाई रिस्क प्रेग्नेंसी के खतरे को कम किया जा सके और बच्चों में होने वाली किसी भी दिक्कत का समय से पहले ही पता लगाया जा सके-
पहला चेकअप (11-14 हफ्ते): शुरुआती रिपोर्ट कार्ड इस समय NT स्कैन और डबल मार्कर टेस्ट होता है. डॉक्टर इससे पता लगाते हैं कि कहीं बच्चे में डाउन सिंड्रोम जैसी अनुवांशिक समस्या तो नहीं.
दूसरा चेकअप (18-22 हफ्ते): पूरी बॉडी की जांच यह सबसे जरूरी टेस्ट है. एनॉमली स्कैन में बच्चे के हर अंग की जांच होती है - दिल, दिमाग, किडनी, हाथ-पैर सब कुछ.
तीसरा चेकअप (28-32 हफ्ते): ग्रोथ रिपोर्ट इस समय देखा जाता है कि बच्चा सही तरीके से बढ़ रहा है या नहीं, उसका वजन ठीक है, और पेट में पानी की मात्रा सही है.
जन्म से पहले दिल की जांच: फीटल इकोकार्डियोग्राफी से बच्चे के दिल की धड़कन और संरचना की जांच हो जाती है.
जेनेटिक टेस्टिंग: जरूरत पड़ने पर एम्नियोसेंटीसिस जैसे टेस्ट से पता चल जाता है कि कोई जेनेटिक बीमारी तो नहीं.
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