इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा को पद से हटाने की प्रक्रिया तेज हो गई है. दिल्ली हाईकोर्ट में रहते हुए वर्मा के आवास से भारी मात्रा में कैश मिला था. करप्शन का उन पर बड़ा दाग लगा, लेकिन जस्टिस वर्मा इस्तीफा देने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में यशवंत वर्मा को उनके पद से हटाने से जुड़े प्रस्ताव का नोटिस सोमवार को लोकसभा और राज्यसभा में दिए गए हैं.
मॉनसून सत्र के पहले दिन सोमवार को लोकसभा में सरकार के द्वारा जस्टिस वर्मा के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया. सत्तापक्ष के 152 सांसदों ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए. वहीं, राज्यसभा में विपक्ष के द्वारा प्रस्ताव लाया गया है, जिसमें 63 सांसदों ने जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का समर्थन किया.
जस्टिस वर्मा को उनके पद से हटाने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही तैयार हैं, लेकिन अब असल लड़ाई क्रेडिट लेने की है. जगदीप धनखड़ ने सोमवार देर शाम उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया है, लेकिन उससे पहले सदन में उन्होंने विपक्ष के प्रस्ताव को नोटिस में लिया है. अब इस्तीफा देने के बाद सभी के मन में है कि राज्यसभा में लाए गए प्रस्ताव का क्या होगा?
जज को हटाने की प्रक्रिया?
जज को हटाने की संविधान में बाकायदा प्रक्रिया है, जिसमें महाभियोग ऑप्शन है. जज को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव का पहला नियम है कि लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 50 सांसदों का प्रस्ताव के पक्ष में साइन करना जरूरी है. सांसदों के हस्ताक्षर करने के बाद महाभियोग का प्रस्ताव लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा चेयरमैन के पास दिया जाता है. महाभियोग या तो लोकसभा में चलेगा या राज्यसभा में.
जस्टिस वर्मा को हटाने के मामले में सरकार ने लोकसभा में प्रस्ताव दिया है तो राज्यसभा में विपक्ष प्रस्ताव लेकर आई है. जस्टिस वर्मा को हटाने से जुड़े लोकसभा अध्यक्ष को ओम बिरला सौंपे गए नोटिस पर राहुल गांधी से लेकर बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद, अनुराग ठाकुर समेत कुल 152 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए हैं. वहीं, राज्यसभा में विपक्ष के द्वारा लाए गए प्रस्ताव में 63 सांसदों ने हस्ताक्षर किए हैं.
धनखड़ के इस्तीफा का प्रभाव
जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव के बाद सोमवार को जगदीश धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया है. हालांकि, मॉनसून सत्र के पहले दिन सोमवार को उन्होंने विपक्ष के प्रस्ताव को सिर्फ संज्ञान में लिया है और उस पर आगे के फैसला के लिए मंगलवार का दिन तय किया था. लेकिन, उससे पहले ही उपराष्ट्रपति के पद से इस्तीफा दे दिया है, जिसे अब स्वीकार भी कर लिया गया है.
जगदीप धनखंड के इस्तीफा देने के बाद अब फैसला लेने की जिम्मादारी राज्यसभा के उपसभापति के ऊपर आ गई है. राज्यसभा उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह पर निर्भर करेगा कि विपक्ष के द्वारा वर्मा को हटाए जाने वाले प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं कि नहीं. संविधान में कहा गया है कि अगर एक ही दिन संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव आता है तो फिर दोनों सदन के सभापति बैठक कर तीन सदस्यीय कमेटी गठित करते हैं.
स्पीकर-सभापति के पाले में गेंद
न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968 के तहत कोई भी प्रस्ताव दोनों सदन एक ही दिन पेश किया जाता है तो उसके लिए प्रक्रिया अलग होती है. ऐसे में अगर कोई प्रस्ताव दोनों सदनों में अलग-अलग तिथियों पर प्रस्तुत किया जाता है, तो जो प्रस्ताव पहले सदन में प्रस्तुत किया जाता है, उसे ही विचार में लिया जाता है और दूसरा प्रस्ताव गैर-अधिकारक्षेत्रीय हो जाता है. ऐसे में प्रस्ताव सिर्फ एक सदन में प्रस्तुत किया जाता है, तो उस सदन के पीठासीन अधिकारी को प्रस्ताव पर विचार करने और उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार होता है.
जस्टिस वर्मा के मामले में एक ही दिन संसद के दोनों ही सदनों में प्रस्ताव लाए गए हैं. लोकसभा में सरकार लाई है तो राज्यसभा में विपक्ष लेकर आई है, लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया है. संसद के दोनों ही सदनों में एक ही दिन दी जाती है, तब तक कोई समिति गठित नहीं की जाएगी जब तक कि प्रस्ताव दोनों सदनों में स्वीकार न कर लिया गया हो, जहां ऐसा प्रस्ताव दोनों सदनों में स्वीकार कर लिया गया हो, वहां जांच समिति का गठन संयुक्त रूप से गठित की जाती है.
यशवंत वर्मा के मामले में अगर लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं और राज्यसभा में उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह विपक्ष के लाए गए प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं. ऐसी स्थिति में लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा के उपसभापति दोनों मिलकर ही तीन सदस्यी कमेटी का गठन करेंगे. इस तरह वर्मा को हटाने वाले प्रस्ताव पर फैसला ओम बिरला और हरिवंश सिंह को करना है. वहीं, अगर उपसभापति हरिवंश सिंह राज्यसभा में लाए प्रस्ताव को नहीं करते हैं तो ओम बिरला कर लेते हैं तो भी तीन सदस्यीय कमेटी गठित कर दी जाएगी.
तीन सदस्यीय कमेटी का होगा गठन
जस्टिस वर्मा को हटाने वाले प्रस्ताव को लोकसभा और राज्यसभा को स्वीकार कर लिया जाता है तो फिर संयुक्त रूप से कमेटी बनाई जाएगी. लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा उपसभापति मिलकर एक और तीन सदस्यों की एक जांच कमेटी बनाएंगे, जिसके एक सदस्य सुप्रीम कोर्ट के जज, हाईकोर्ट के एक चीफ जस्टिस और एक न्याय विद को रखा जाएगा.
तीन सदस्यीय कमेटी तीन महीने की जांच करने का काम करेगी. अगर इस समिति ने पाया कि आरोप बेबुनियाद है तो मामला खत्म, नहीं तो जांच रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों पर संसद में बहस होती है. इस प्रक्रिया में आरोपी जज को सफाई देने का मौका मिलता है. नियम ये भी है जिस संसद सत्र में प्रस्ताव पेश किया गया है. उसी में फैसला हो जाना चाहिए.
कमेटी अगर जांच में पाती है कि भ्रष्टाचार हुआ है तो जज को हटाने के लिए महाभियोग पास कराने के लिए दो तिहाई बहुमत जरूरी होता है. भारतीय संसद में लोकसभा के 543 सदस्यों में नंबर करीब 362 का बनता है. ऐसे में जस्टिस वर्मा के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव पास होना होगा तो कम से कम 362 सांसदों की मंजूरी जरूरी होगी. अगर महाभियोग राज्यसभा में आया तो 245 में से कम से कम 163 सांसदों की मंजूरी चाहिए होगी.
देश में छह बार आया महाभियोग
भारत में जज को हटाने के लिए महाभियोग का रास्ता तय किया जाता है. देश में तक 6 बार इस महाभियोग चलाया गया, लेकिन एक भी जज को हटाया नहीं जा सका. सबसे चर्चित मामला दो जजेस के केस रहे. जस्टिस रामास्वामी महाभियोग के बाद भी सरवाइव कर गए. जस्टिस सौमित्र सेन ने बिलकुल 11th आवर पर जलालत से बचने के लिए इस्तीफा देकर महाभियोग टाल दिया.
1970 में सुप्रीम कोर्ट के जज रहे जेसी शाह के खिलाफ करीब 200 सांसदों का महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा स्पीकर जीएस ढिल्लों ने स्वीकार ही नहीं किया था. ऐसे में अब देखना होगा कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ लाए गए महाभियोग कितना सफल रहता है कि नहीं?
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