पुनपुन के महादलित: 18 साल पूरे लेकिन वादे अधूरे, मूलभूत जरूरतों के लिए जूझ रहा CM नीतीश का डेहरी गांव

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आजतक का कैमरा जैसे ही बिहार की राजधानी पटना से करीब 40 किलोमीटर दूर पुनपुन के डेहरी गांव की गलियों में दाखिल करता है, मिट्टी और कीचड़ की मिली-जुली गंध हवा में महसूस होती है. बच्चों के खेलने की जगह खुले नाले के किनारे है, जहां मच्छरों की भनभनाहट और बदबू एक साथ आती है. महिलाएं सिर पर घड़ा रखकर पानी भरने निकली हैं. वही रोज का संघर्ष, वही अधूरी उम्मीद.

डेहरी गांव, जिसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हर साल स्वतंत्रता दिवस पर सम्मान के प्रतीक के रूप में याद करते हैं. यहीं के किसी बुजुर्ग को वे झंडा फहराने के लिए आमंत्रित करते हैं. लेकिन उसी झंडे के नीचे, वही गांव आज विकास के नाम पर अधूरा खड़ा है.

2007 का फैसला और 2025 की हकीकत

साल 2007 में नीतीश कुमार सरकार ने एक नई सामाजिक श्रेणी बनाई. जिसे कहा गया महादलित. इसका उद्देश्य था कि दलित समाज के उन सबसे कमजोर वर्गों तक सरकारी योजनाओं का फायदा पहुंचे, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे पीछे छूट गए थे. तब कहा गया कि 'महादलित समाज को शिक्षा, रोजगार, मकान और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं दी जाएंगी.'

लेकिन आज, 18 साल बाद, उस वादे की हकीकत गांव की सड़कों पर बिखरी नालियों, सूखे नलों और अधूरे प्रोजेक्टों के रूप में देखी जा सकती है.

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डेहरी गांव - एक अधूरा चित्र

डेहरी गांव, जहां ज़्यादातर आबादी महादलित हैं, पटना से ज्यादा दूर नहीं. बावजूद इसके, यह अब भी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है.

'हर घर जल' योजना के तहत पाइप डाले गए, लेकिन ज्यादातर नल में पानी नहीं आता. ड्रेनेज सिस्टम की खुदाई सालों पहले हुई, लेकिन पाइप आज तक नहीं डाले गए हैं. गर्मियों में पानी के लिए लोग कई किलोमीटर चलकर जाते हैं, वहीं बरसात में कच्ची सड़कें दलदल में बदल जाती हैं.

गांव की महिलाएं बताती हैं कि 'पाइपलाइन डाली गई, मगर पानी कभी आया नहीं. हर घर जल बस कागज पर है. रसोई बनाने, कपड़े धोने के लिए भी पानी मिलना मुश्किल होता है.

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राशन, मजदूरी और भ्रष्टाचार की जकड़न

गांववासियों की सबसे बड़ी शिकायत स्थानीय प्रशासन और मुखिया से है. 'सरकार पैसा भेजती है, लेकिन काम दिखाई नहीं देता,' उनका कहना है. राशन हर तीन महीने में मिलता है और वो भी पूरा नहीं.

एक बुजुर्ग महिला बताती हैं कि 'डीलर दो महीने का राशन खुद रख लेता है. हम पूछने जाते हैं तो बोलते हैं कि अभी सरकार ने भेजा नहीं.'

गांव के पुरुष मजदूरी से जीवन चलाते हैं, कई लोग मनरेगा में काम करते हैं. लेकिन शिकायत है कि मेहनताना अब तक नहीं मिला. एक शख्स ने बताया, 'डेढ़ लाख रुपए बकाया हैं. पूछते हैं तो जवाब मिलता है कि अभी करेंगे. कहां लड़ने जाएं?'

नीतीश कुमार के वादे और लोगों की नाराज़गी

गांव के लोगों का कहना है कि जब भी मुख्यमंत्री का दौरा तय होता है, अचानक काम शुरू होते हैं, सड़कों की साफ-सफाई होती है, नाली खुदी दिखाई देती है. लेकिन यात्रा खत्म होते ही सब रुक जाता है.

राजनीतिक रूप से यह काफी प्रतीकात्मक गांव माना जाता है, क्योंकि यही वह जगह है जहां नीतीश कुमार हर साल झंडा फहराने के लिए किसी बुजुर्ग को सम्मानित करते हैं. मगर यही सम्मान उस हकीकत को नहीं ढक पाता जिसमें लोग पीने के पानी, बिजली और ड्रेनेज के लिए इंतजार करते हैं.

एक ग्रामीण का कहना था, 'कुछ बदला है, लेकिन अब जो मिला था, वो भी वापस लिया जा रहा है.महिलाओं के नाम पर 10,000 रुपये दिए, पर कह रहे हैं कि एक दिन वापस करना होगा. फिर क्या फायदा?'

महिलाओं की स्थिति - वादों से आगे कुछ नहीं

महिलाओं के नाम पर सरकारी योजनाएं तो हैं, लेकिन उनका असर साफ नहीं दिखता. गांव की एक महिला बोली, 'सरकार ने 10,000 रुपये दिए, लेकिन उससे क्या बदल जाएगा? एक बकरी भी पूरी नहीं आती. हमने सुना है, बाद में वो भी वापस लेना पड़ेगा.'

पानी और सफाई की समस्या से सबसे ज़्यादा महिलाएं जूझ रही हैं. उन्हें न केवल रोज़ किलोमीटरों तक चलकर पानी लाना पड़ता है, बल्कि गंदगी और मच्छरों से बीमारियों का खतरा भी झेलना पड़ता है.

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प्रधानमंत्री मोदी और नीतीश पर लोगों की राय

गांव के कुछ लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की. 'मोदी जी ठीक हैं, ऊपर से सोच अच्छी है, लेकिन नीचे जो अफसर हैं, वो सब बिगाड़ देते हैं.'

जब उनसे पूछा गया कि नीतीश कुमार के आने के बाद क्या बदलाव दिखा, तो जवाब मिला, 'नीतीश आए, पर हालात वही हैं. लालू के समय जैसा था, वैसा ही अब भी है.'

धरातल की सच्चाई - अधूरी योजनाएं, अधूरा विकास

हर घर जल योजना के तहत गांव में नल और पाइपलाइन हैं, लेकिन पानी नहीं. नाली निर्माण अधूरा है, जिससे गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है. मनरेगा भुगतान अटका पड़ा है, और राशन वितरण में भ्रष्टाचार खुला रहस्य बन चुका है.

इस सबके बीच, सबसे ज़्यादा मेहनतकश और जरूरतमंद तबका, महादलित महसूस करता है कि 18 साल पहले उन्हें 'खास' बनाकर भी 'अलग-थलग' छोड़ दिया गया.

गांववालों की आवाज़ - भरोसा टूटा लेकिन उम्मीद बाकी

गांव के रहने वाले राजनिकांत कहते हैं, 'हम बहुत गरीब हैं. डर लगता है कि जो थोड़ा मिला है, वो भी कहीं वापस न लेना पड़े. सरकार ने दिए 10,000 रुपये उससे क्या होगा? बस एक बकरी खरीद सकते हैं.'

कुछ लोग खुले में यह भी कहते नजर आए, 'पहले शराब से थोड़ा कमाई होती थी, अब बैन के बाद वो भी बंद. अब मजदूरी भी नहीं मिलती.'

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18 साल का सफर - एक अधूरी कहानी

महादलित समुदाय को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने का जो सपना 2007 में बिहार सरकार ने देखा था, उसका वास्तविक परिणाम 2025 में नजर नहीं आता.

सरकार का दावा है कि फंड जारी किए जा रहे हैं, लेकिन गांव का सिस्टम और स्थानीय प्रशासन उस विकास को जमीन तक पहुंचा नहीं पा रहा.

डेहरी गांव के लोग कहते हैं, 'पैसे तो आते हैं, लेकिन काम नहीं होता. अगर नीचे वाले ही काम न करें, तो ऊपर वाला क्या करेगा?'

अंतिम तस्वीर

डेहरी गांव का नज़ारा एक प्रतीक बनकर रह गया है. एक ऐसी बस्ती का, जहां हर साल झंडा ज़रूर फहरता है, लेकिन लोगों की उम्मीदें बार-बार गिर जाती हैं.

18 साल का इंतज़ार, और अब भी वही सवाल है कि क्या कभी उनके गांव में सचमुच विकास पहुंचेगा?

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