काठमांडू की गलियों से उठी चिंगारी धीरे-धीरे पूरे नेपाल में आग बन गई. Gen-Z युवाओं का यह आंदोलन ऐसा धधका कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं की कुर्सियां डगमगा गईं. हालात ऐसे बने कि जिन्हें कभी अजेय माना जाता था, वे सत्ता छोड़कर अंडरग्राउंड होने को मजबूर हो गए. सड़कों पर युवाओं का सैलाब था, उनके नारों की गूंज ने संसद की ऊंची दीवारों तक को हिला डाला.
नेपाल की धरती पर उठी यह नई लहर केवल एक आंदोलन नहीं है, यह उस पीढ़ी की पुकार है जिसने बचपन से अंधेरे, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को अपनी नियति मान लिया था. सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाना इस चिंगारी को आग में बदलने की आखिरी भूल साबित हुई.
जनता की इस बेचैनी का सबसे बड़ा प्रतीक बने काठमांडू के मेयर बालेन शाह. उनकी साफ-सुथरी छवि, विद्रोही तेवर और व्यवस्था से सीधे टकरा जाने की आदत ने युवाओं को मोहित कर लिया. जिन हाथों में कभी कागज-कलम, गिटार और पेंटब्रश थे, वही हाथ आज सड़कों पर झंडे और विरोध स्वरूप प्लेकार्ड लेकर निकले और इन युवाओं के पोस्टरबॉय थे बालेन शाह.
लेकिन आंदोलन के तीसरे दिन कहानी ने मोड़ लिया. जब आंदोलन के बीच बालेन शाह को अंतरिम सरकार का नेतृत्व सौंपने की बात आई, शाह पीछे हट गए.
क्यों?
कहा जा रहा है कि शाह समझते हैं आज की क्रांति की ऊर्जा जितनी पवित्र है, सत्ता की गलियों में पहुंचते ही उतनी ही दूषित भी हो सकती है. वे जानते हैं कि यदि उन्होंने जल्दबाजी में कुर्सी संभाल ली, तो उनके हाथ भी वही बेड़ियां होंगी जो पुराने नेताओं के हाथों में हैं- समझौते, गठजोड़ और आरोप.
नेपाल के हालात भी बेहद नाजुक हैं. प्रधानमंत्री ओली के इस्तीफे के बाद देश अनिश्चितता की धुंध में है. सेना, राजनीतिक दल और विद्रोही युवा- तीनों की नब्ज़ अलग-अलग दिशा में धड़क रही है. सेना स्थिरता चाहती है, पार्टियां सत्ता का पुनर्वितरण, और युवा केवल बदलाव. ऐसे में बालेन शाह का पीछे हटना शायद रणनीति है. रणनीति ऐसी कि जनता के दिल में जगह भी बनी रहे और गंदगी में भी न उतरना पड़े.
लेकिन यह राह आसान नहीं. युवाओं का गुस्सा काबू में नहीं आता. वे बांग्लादेश का उदाहरण देख रहे हैं, जहां ढाका यूनिवर्सिटी के चुनाव में दोनों मुख्य दलों से निराश जनता ने एक कट्टरपंथी छात्र संगठन को जिताकर सबको चौंका दिया. अगर नेपाल के युवाओं को उनकी उम्मीद का चेहरा नहीं मिला, तो वही गुस्सा किसी भी ओर मुड़ सकता है- फिर चाहे वह बालेन शाह हों या कोई और.
वैसे अंतरिम पीएम की रेस में बालेन शाह अकेले नहीं हैं. धरान के मेयर हर्क संपांग भी युवाओं के बीच लोकप्रिय चेहरा हैं. उनकी सादगी, ईमानदारी और स्थानीय स्तर पर किए कामों ने उन्हें ‘जनता का बेटा’ बना दिया. लेकिन वे भी देशव्यापी नेतृत्व के लिए उतने स्वीकार्य नहीं. यही वजह है कि आंदोलनकारी युवाओं ने एक दौर में उन्हें भी विकल्प माना, पर अंततः समर्थन वापस खींच लिया.
इसी तरह, पूर्व सुप्रीम कोर्ट की चीफ़ जस्टिस सुशीला कार्की का नाम भी उभरा. शिक्षित वर्ग ने उन्हें 'न्यायप्रिय नेता' के रूप में देखा, लेकिन संविधान की सीमाओं और उम्र के सवाल ने उन्हें भी दौड़ से बाहर कर दिया.
और अब सबकी निगाहें कुलमन घीसिंग पर हैं- वही इंजीनियर जिसने पूरे नेपाल को 18 घंटे की लोडशेडिंग से निकालकर उजाले का तोहफा दिया. उन्हें ‘जनता का हीरो’ माना जाता है, लेकिन सवाल वही है- क्या वे आंदोलन के उफनते समंदर को साध पाएंगे, या सत्ता की चक्की उन्हें भी पीस डालेगी?
नेपाल की कहानी इस समय उम्मीद और आशंका के बीच झूल रही है. युवाओं की आंखों में क्रांति का उजाला है, पर उनके हाथों में सब्र नहीं. वे बदलाव तुरंत चाहते हैं, कल नहीं. यही इस आंदोलन की शक्ति भी है और सबसे बड़ा खतरा भी.
बालेन शाह का पीछे हटना शायद यही संदेश देता है- सही समय आने तक जनता के बीच बने रहो, क्योंकि कुर्सी से बड़ा है विश्वास. लेकिन अगर यह विश्वास टूटा, तो वही जनता, वही युवा, बालेन शाह के खिलाफ भी सड़कों पर होंगे.
नेपाल इस समय एक ऐसे मोड़ पर है जहां भविष्य की राजनीति केवल संसद में नहीं, बल्कि सड़कों पर लिखी जा रही है और इन सड़कों का शोर यही बता रहा है कि अगर अंतरिम सरकार युवाओं की आकांक्षाओं को नहीं समझ पाई, तो यह आंदोलन केवल शुरुआत है.
---- समाप्त ----