जब ब्रेस्ट कैंसर की जांच की बात आती है तो ज्यादातर लोगों के दिमाग में सबसे पहले जो टेस्ट आता है, वो है मैमोग्राम (Mammogram).
भारत ही नहीं, दुनिया के कई अन्य देशों में जिन महिलाओं के परिवार में ब्रेस्ट कैंसर का इतिहास है, उन्हें यही टेस्ट करवाने की सलाह दी जाती है. लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि मैमोग्राम हर महिला के लिए उतना असरदार नहीं होता, खासकर भारत जैसी जगहों पर.
डॉ. मनदीप सिंह मल्होत्रा, सीनियर ऑन्कोलॉजिस्ट और Art of Healing Cancer के को-फाउंडर बताते हैं कि भारत में ब्रेस्ट कैंसर के पैटर्न पश्चिमी देशों से अलग हैं. हमारे यहां बीमारी कम उम्र में शुरू होती है, महिलाओं की ब्रेस्ट टिश्यू ज्यादा घनी (dense) होती हैं, फॉलो-अप सुविधाएं सीमित हैं और सामाजिक रुकावटें भी बहुत हैं.
भारत में क्यों कम असरदार साबित हो रहा है मैमोग्राम?
भारत में ब्रेस्ट कैंसर महिलाओं में औसतन 10 साल पहले शुरू हो जाता है यानी जहां पश्चिमी देशों में यह 55 से 60 की उम्र में ज्यादा दिखता है, वहीं भारत में 45–49 साल की उम्र में आम है. देश के कुछ हिस्सों जैसे नॉर्थ ईस्ट में ये उम्र और भी कम (35 से 40 साल) होती है.
कम उम्र में शुरू होना और घने ब्रेस्ट टिश्यू... यही दो कारण हैं कि मैमोग्राम में कैंसर के शुरुआती संकेत पकड़ में नहीं आते. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में जांच केंद्रों की कमी, डर, शर्म और जागरूकता की कमी भी बड़ी वजहें हैं.
क्या कहते हैं डॉक्टर?
सीनियर गायनोकोलॉजिस्ट और IVF स्पेशलिस्ट डॉ. वैशाली शर्मा कहती हैं कि 35 से 45 साल की महिलाओं में ब्रेस्ट टिश्यू घनी होती है, इसलिए मैमोग्राम की जगह अल्ट्रासाउंड ज्यादा असरदार साबित होता है. जिन महिलाओं के परिवार में ब्रेस्ट कैंसर का इतिहास है, उन्हें जेनेटिक टेस्टिंग करवानी चाहिए और स्क्रीनिंग जल्दी शुरू करनी चाहिए.
वो आगे कहती हैं कि हम महिलाओं को हर महीने सेल्फ-ब्रेस्ट एग्जामिनेशन करने के लिए प्रेरित करें. साल में एक बार क्लिनिकल ब्रेस्ट एग्ज़ामिनेशन और अगर कोई बदलाव दिखे तो तुरंत डॉक्टर से जांच करवाएं. ग्रामीण इलाकों में स्क्रीनिंग प्रोग्राम, टेलीमेडिसिन और AI-बेस्ड अल्ट्रासाउंड टेक्नोलॉजी जैसी सुविधाएं पहुंचानी चाहिए. साथ ही वो ये भी कहती हैं कि फिजिकल एक्टिविटी, हेल्दी वेट और ब्रेस्टफीडिंग जैसी आदतें ब्रेस्ट कैंसर का खतरा कम करती हैं.
भारत में क्या है ब्रेस्ट कैंसर की स्थिति
भारत में अब ब्रेस्ट कैंसर सबसे आम कैंसर बन गया है. ये पश्चिमी देशों की तुलना में ज्यादा तेजी से और कम उम्र में महिलाओं को प्रभावित कर रहा है. दुखद बात ये है कि यहां 40-50% महिलाएं ब्रेस्ट कैंसर से बच नहीं पातीं क्योंकि बीमारी का पता देर से चलता है. जहां पश्चिमी देशों में 60-70% केस स्टेज-1 में पकड़ लिए जाते हैं. वहीं भारत में केवल 1-8% महिलाएं इतनी जल्दी डायग्नोस हो पाती हैं.
ज्यादातर मरीज (30-50%) तब सामने आते हैं जब कैंसर स्टेज-3 तक पहुंच चुका होता है.
...तो आखिर मैमोग्राम काम कैसे करता है?
डॉ. मनदीप बताते हैं कि मैमोग्राम फैटी ब्रेस्ट टिश्यू में बेहतर काम करता है. लेकिन भारतीय महिलाओं में, खासकर 40-45 साल की उम्र तक ब्रेस्ट ज्यादा डेंस होती है. इससे कैंसर के शुरुआती संकेत छूट जाते हैं या गलत रिपोर्ट (false alarm) आ जाती है. भारत की लगभग 30% महिलाएं (45-50 वर्ष) ऐसी हैं जिनमें ये घनत्व (density) मैमोग्राम की सटीकता कम कर देता है.
क्यों जरूरी है सेल्फ-एग्जामिनेशन?
टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के एक अध्ययन में पाया गया कि क्लिनिकल ब्रेस्ट एग्ज़ामिनेशन (CBE) के साथ मैमोग्राफी जोड़ने पर भी ना तो जल्दी डिटेक्शन बढ़ा और ना ही मौतें कम हुईं. वहीं संजय गांधी पीजीआई की स्टडी में सामने आया कि जो महिलाएं हर महीने सेल्फ ब्रेस्ट एग्जामिनेशन (SBE) करती थीं, वे किसी भी बदलाव को जल्दी पहचान पाईं और तुरंत इलाज करा सकीं.
एक्सपर्ट्स का सुझाव
डॉ. मनदीप सिंह कहते हैं कि हर महीने खुद ब्रेस्ट की जांच करना, किसी गांठ, निप्पल में बदलाव या डिस्चार्ज पर ध्यान देना बहुत जरूरी है. हर साल क्लिनिकल ब्रेस्ट एग्जामिनेशन करवाएं और अगर उम्र 45 से ज्यादा है या कोई लक्षण हैं तो टार्गेटेड इमेजिंग करवाएं. वो कहते हैं कि पब्लिक हेल्थ कैंपेन अक्सर मैमोग्राफी को ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ की तरह पेश करते हैं, जो सही नहीं है. ये कई महिलाओं को सेफ रहने की गलत भावना दे सकता है, खासकर जब उनकी ब्रेस्ट डेंस हो और रिपोर्ट सटीक न हो.
बता दें कि मैमोग्राफी का ब्रेस्ट कैंसर की जांच में एक अहम रोल है लेकिन इसे एकमात्र भरोसेमंद तरीका नहीं माना जाना चाहिए. भारत में महिलाओं के लिए सेल्फ-एग्जामिनेशन, क्लिनिकल चेकअप और सही उम्र में टार्गेटेड टेस्टिंग, यही असली गेम चेंजर साबित हो सकते हैं.
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