पितृ या पितर हमारे वे पूर्वज हैं. वे भले ही अब इस संसार में नहीं हैं, फिर भी वे हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं या ऐसा कह लीजिए कि हम उनसे मृत्यु के बाद भी जुड़े रहते हैं. वे हमारे मातृ और पितृ पक्ष के रूप में हमारे बीते हुए संबंधी होते हैं. जो इस धरती पर अपना जीवन काल पूरा कर चुके होते हैं.
उन्हीं पितृ (पितरों) के प्रति श्राद्ध करना हमारा कर्तव्य बताया गया है. वैदिक शास्त्रों में यूं तो 12 प्रकार के श्राद्ध का वर्णन आया है, फिर भी प्रमुख रूप से पांच प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख किया जाता है, जो हमारे पितरों की संतुष्टि और उनके आशीर्वाद के लिए किए जाते हैं.
नित्य श्राद्ध: प्रतिदिन भोजन करने से पहले पितरों को प्रतीकात्मक रूप से भोजन अर्पित करना.
नैमित्तिक श्राद्ध: मृत्यु की वर्षगांठ जैसे विशेष अवसरों पर किया जाता है.
काम्य श्राद्ध: किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए पितरों के आशीर्वाद हेतु किया जाता है.
वृद्धि श्राद्ध: परिवार में कोई शुभ कार्य होने पर कृतज्ञता के रूप में किया जाता है.
पार्वण श्राद्ध: पितृ पक्ष के दौरान किया जाता है.
हम सभी जो श्राद्ध कर रहे हैं, ये पितृ पक्ष के दौरान किया जाने वाला पार्वण श्राद्ध ही है. हिंदू धर्म में प्राचीन काल से श्राद्ध कर्म किए जाते रहे हैं. इनमें दान और पिंडदान शामिल हैं, जो पितरों को भूख-प्यास से मुक्ति दिलाते हैं. जैसे बछड़ा कई गायों में अपनी मां को ढूंढ लेता है, वैसे ही हमारे द्वारा अर्पित पिंडदान पितरों तक पहुंचता है. रामायण में श्राद्ध के कई उदाहरण मिलते हैं, जो इसके महत्व को दर्शाते हैं.
पितृ के आशीर्वाद से हुई दशरथ की संतानें
कथा आती है कि सूर्यवंशी राजा दशरथ अयोध्या के शासक थे. उनके कोई पुत्र नहीं था जो उनके विशाल साम्राज्य का उत्तरदायित्व संभाल सके. ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें पितृ पक्ष में महालया श्राद्ध करने की सलाह दी. इसके बाद, वशिष्ठ ने दशरथ को कांची कामकोटि में मां कामाक्षी की पूजा करने का सुझाव दिया.
मां कामाक्षी और पितरों के आशीर्वाद से दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए: राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न. राम ने मिथिला की राजकुमारी सीता से विवाह किया. बाद में, कैकेयी की इच्छा के कारण राम को 14 वर्ष के लिए वनवास जाना पड़ा. सीता और लक्ष्मण उनके साथ गए. कुछ समय बाद दशरथ का निधन हो गया.
मंदाकिनी तट पर श्रीराम ने किया दशरथ का पिंडदान
महर्षि वशिष्ठ ने कैकेय (भरत के मामा के घर) से भरत को वापस बुलाने के लिए दूत भेजे. अयोध्या लौटकर भरत ने अपने पिता के अंतिम संस्कार और श्राद्ध कर्म किए. 14वें दिन मंत्रियों ने भरत को कोशल का राजा बनने का प्रस्ताव दिया, किंतु भरत ने न केवल इसे ठुकरा दिया, बल्कि राम को वापस अयोध्या लाकर राजा बनाने का निश्चय किया.
भरत चित्रकूट में श्रीराम से मिले. पिता के निधन की बात सुनकर श्रीराम परेशान हो गए. इसके बाद मंदाकिनी नदी के तट पर राम, सीता और लक्ष्मण ने पिंडदान किया और फिर राम ने भरत को अयोध्या लौटकर राज्य संभालने के लिए मनाया. भरत चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट आए और उधर राम, सीता व लक्ष्मण दंडक वन में भटकते रहे और फिर तीनों पंचवटी में निवास करने लगे. वहां उन्होंने गोदावरी नदी के पवित्र तट पर पितृ तीर्थ में अपने पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध कर्म किए.
पुष्कर में भी हुआ था महाराज दशरथ का श्राद्ध
क्या हमारे द्वारा अर्पित पिंडदान पितरों तक पहुंचता है? इसका उत्तर गरुड़ पुराण में वर्णित एक घटना से मिलता है.राम, सीता और लक्ष्मण पुष्कर (वर्तमान राजस्थान) पहुंचे और वहां पितरों के लिए श्राद्ध कर्म किया. सीता और राम ने ब्राह्मणों को बहुत ही श्रद्धा से भोजन परोसा.
अचानक सीता भागकर कुछ पेड़ों के पीछे छिप गईं. जब राम ने इसका कारण पूछा, तो सीता ने बताया कि उन्होंने अपने ससुर दशरथ, उनके पिता और दादा को स्वर्ग से पिंडदान स्वीकार करने के लिए उतरते देखा. चूंकि वे राजसी वस्त्रों में थे और सीता वल्कल वस्त्रों में थीं, इसलिए उन्हें संकोच हुआ और वे छिप गईं. राम इस चमत्कार पर आश्चर्यचकित हुए कि सीता ने तीन पीढ़ियों के पितरों को देखा.रावण और युद्धपंचवटी में रावण ने छल से सीता का अपहरण कर लिया और उन्हें लंका ले गया. राम और लक्ष्मण ने उनकी खोज में सैकड़ों योजन की यात्रा की. उन्होंने अयोमुखी और कबंध जैसे राक्षसों का सामना किया. हनुमान की मदद से सीता का लंका में पता चला.
पितृ पक्ष से प्रारंभ हुआ था राम-रावण युद्ध
सुग्रीव की वानर सेना ने राम सेतु बनाया, जो समुद्र पर बने एक आश्चर्यजनक निर्माण का नमूना है. जब रावण ने सीता को लौटाने से इनकार किया, तो युद्ध अनिवार्य हो गया. दक्षिणायन के पहले दिन, जो पितृ पक्ष का प्रारंभ था, राम ने अपने पितरों की पूजा की और पूर्णिमा के दिन पार्वण श्राद्ध किया. फिर, शंख की रणभेरी आवाज के साथ ‘जय श्री राम’ के नारों के बीच रावण और उसकी राक्षस सेना के खिलाफ युद्ध शुरू हुआ. राम की वानर सेना ने कई राक्षसों को मार गिराया. उन्होंने कुम्भकर्ण का वध किया, और लक्ष्मण ने अमावस्या से एक दिन पहले मेघनाद को मार डाला.
अमावस्या, जो पितृ पक्ष का अंतिम दिन था, पर रावण स्वयं युद्ध में उतरा. इस पूरे 16-दिवसीय पितृ पक्ष में राम ने अपने पितरों की पूजा में कोई कमी नहीं रखी.पितरों और माँ दुर्गा के आशीर्वाद से राम ने पितृ पक्ष के बाद नौवें दिन रावण का वध किया. विभीषण को लंका का राजा बनाया गया, और राम-सीता अयोध्या लौटे, जहां वे सिंहासन पर विराजमान हुए.गया में श्राद्धवनवास से पहले सीता ने गंगा और यमुना नदियों की पूजा का व्रत लिया था.
फल्गू नदी पर रेत से पिंडदान
उनकी इच्छा के अनुसार, राम और सीता ने प्रयाग, काशी और गया की तीर्थ यात्रा की. गया में राम ने पंच तीर्थ यात्रा की और प्रेतशिला में पिंडदान किया. जब दशरथ पिंड स्वीकार करने नहीं आए, तो सीता ने बताया कि फल्गु नदी के तट पर खेलते समय उन्होंने गीली रेत से पिंड बनाया था, जिसे दशरथ ने स्वीकार किया था. राम को आश्चर्य हुआ कि पितृ रेत का पिंड भी स्वीकार कर सकते हैं.
सीता ने अपने कथन की पुष्टि के लिए आम के पेड़, फल्गु नदी, स्थानीय ब्राह्मणों, एक बिल्ली, गाय और पीपल के पेड़ को साक्षी के रूप में बुलाया, पर वे डर के कारण चुप रहे. अंत में, सूर्य देव ने सीता के कथन की पुष्टि की. तब दशरथ एक विमान में प्रकट हुए और बताया कि गया में कई बार सामान्य पिंडदान में बाधाएं आती हैं. उन्होंने राम का पिंड स्वीकार किया और चले गए. इस तरह दशरथ ने पितृ के रूप में श्रीराम और अपने सभी पुत्रों को आशीर्वाद दिया. रामायण यह कथाएं श्राद्ध विधान के महत्व को बताती हैं.
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