अगर पुरातत्वविद मेरे बचपन की खुदाई करें तो उन्हें बहुत गहराई में कुछ समोसों के अवशेष मिलेंगे. तिकोने पहियों पर दौड़ता बचपन गुजारा है मैंने. मुझे बिल्कुल याद नहीं इसलिए मेरा दावा है कि मेरा अन्नप्राशन समोसों से ही हुआ होगा. पिछले जन्म में जब मेरी हत्या की गई होगी तो जहर समोसों में ही मिलाया गया होगा क्योंकि मेरे दुश्मनों को भी पता था कि समोसों से मेरा क्या रिश्ता है. आज विश्व समोसा दिवस है. उत्सव का दिवस है. मुझे समोसों पर लिखा तुषार कपूर का वो गाना याद आ रहा है जिसे धुन में ही पढ़ा जाना चाहिए- इस प्यार को मैं क्या नाम दूं...
समोसों को बनाने की विधि से छेड़छाड़ करना जघन्यता है. क्रूरता है. धोखा है. समोसों को घर पर नहीं बनाया जा सकता. कुछ भी कर लें. जिस हलवाई के समोसे खाकर आप बड़े हुए हैं, वो भी वैसे समोसे घर पर नहीं बना सकता. उन्हें बनाने के कुछ नियम हैं. विशालकाय काले बर्तनों में बने समोसों ने ही हर बार मिटाई मुखर्जी नगर में रहने वाले लड़कों की भूख, जो सिर्फ समोसे खाकर ही गुजार देते थे दिन और फोन आने पर पिता से कहते थे- इस बार हो जाएगा.
मी-टाइम की सीढ़ियां चढ़ते समाज को समोसे ही बार-बार खींच लाए सामूहिकता के पहले पायदान पर. समोसों को अकेले नहीं खाया जा सकता. महीनों बात करने के बाद जब पहली बार उनकी मुलाकात हुई तो उन्होंने समोसे ही मंगवाए. आज दोनों के परिवार मिल रहे हैं शादी की बात करने के लिए और सामने समोसे ही रखे हैं. हम हर छोटी-बड़ी खुशी में समोसे ले आते हैं. दरअसल समोसे ही अपने साथ खुशियां लेकर आते हैं.
समोसे छोटे शहरों के ईष्ट हैं. उन्हें इतराने की वजह देते हैं. लड़ने की ऊर्जा देते हैं. किसी आंदोलनरत कस्बे में समोसे की दुकान खोलना सत्ता के लिए टेरर फंडिंग के समान है. वो नक्सली जो बहुत पहले ही टूट जाते और हथियार छोड़ थाम लेते मुख्यधारा का हाथ, उन्हें समोसों ने ही जंगल में रोके रखा. एक उत्सवधर्मी देश में न जाने कितने व्रत समोसों की वजह से टूट गए. मुझे कहने दीजिए कि महानगरों के कृत्रिम समोसे जिन्हें टेस्टट्यूब से पैदा किया गया है, छोटे शहरों द्वारा जने गए प्राकृतिक समोसों के आगे कुछ भी नहीं हैं.
मंच और भीड़ में जब-जब लकीरें खिंचीं तो समोसे हर बार आमजन के हो लिए. वो सस्ते हैं और यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है. वो रंग जो ना भूरा है और ना ही पीला. उस रंग का क्या नाम है? उसे किसी कैनवास पर रीक्रिएट नहीं किया जा सकता. उस रंग में ही एक ऊष्मा है. सूर्य सा तेज है. हवन की अग्नि जैसी दहक. सोने जैसा चमकीला और चमकीले जैसा सुरीला रंग. दूषित से दूषित तेल भी समोसों को छानकर शुद्ध और कम से कम एक बार इस्तेमाल योग्य बनाया जा सकता है. उनकी खुशबू सिर्फ नाक के छेदों से होकर हमारे भीतर नहीं जाती. पसीने को निकालने वाले छिद्र उसे खुद अवशोषित कर लेते हैं.
उनका स्वाद सभी इंद्रियों को शिथिल करने वाला है. समोसे कहां से आए और कहां चले जाएंगे ये मेरा विषय नहीं है, मेरी चिंता उस मुल्क को लेकर है जहां समोसे नहीं हैं. उन देशों में मानवता पर संकट है. वो समोसे ही थे जिन्होंने देशों को हंगर इंडेक्स में गिरने नहीं दिया. वो ना जाने कितने बेरोजगारों और कितने प्रवासियों की दोपहरों का आहार बने. मुझे याद है, स्कूल में मेरे साथ पढ़ने वाला एक लड़का अक्सर समोसा-रोटी या समोसा-चावल खाकर रात को सो जाता था. उसे समोसे के विज्ञान की ठीक-ठीक समझ थी. वो समोसों को कुरकुरे खोल में लिपटी आलू की सब्जी की तरह देखता था जिसे जैसे चाहो वैसे बरता जा सकता है. समोसों का वैभव किसी चटनी, छोले या सॉस का मोहताज नहीं है.
कई-कई बार समोसे लंबे, अटूट और प्रेमबद्ध रिश्तों के लिए उपमाएं बने. नायकों ने लिखा- "जब तक रहेगा समोसे में आलू, तेरा रहूंगा ओ मेरी शालू".
किशमिश, काजू, पनीर, मूंगफली मिलाने के बाद भी समोसे देशज ही रहे- ठेकुआ की तरह. कुछ आक्रांताओं ने उनमें मैगी और चॉकलेट भरने का भी प्रयास किया लेकिन समोसों ने हर बार अपना अस्तित्व बचा लिया. संकट के दिनों में वो लौट गए लखनऊ से हरदोई जाती सड़क के किनारे बनी उसी झोपड़ी में जहां जून की बहुत-बहुत गर्म दोपहर में एक दुबले-पतले आदमी ने आइसोलेशन में उनके मूल स्वाद का प्रसव कराया था. उसने दुनिया के सबसे अच्छे समोसे किसी फूड कम्पटीशन के लिए नहीं बनाए थे, वो समोसे सिर्फ और सिर्फ राहगीरों की भूख मिटाने के लिए बनाए गए थे.
अविनाश मिश्र की कविता है,
जिन्हें पढ़ने की उम्र में किताबें नहीं मिलीं
जिन्हें जवान होने पर संभोग नहीं मिला
जिन्हें सर्दियों में गर्म कपड़े नहीं मिले
जिन्हें बीमार पढ़ने पर दवाइयां नहीं मिलीं
जिन्हें मर जाने पर मुखाग्नि नहीं मिली
उन्हें भी मिलते रहे हैं समोसे
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