बिहार की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी सुधारने के नाम पर हड़बड़ी चल रही है. चुनाव आयोग ने बिहार में जो वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) शुरू किया है, उसका तकरीबन 88 प्रतिशत काम कल (सोमवार) ही पूरा हो चुका था. पांच से दस प्रतिशत मतदाताओं का फॉर्म बचा हुआ है, जिसके लिए अभी दस दिनों का समय है. मतलब, कम समय को लेकर जो सवाल उठाए जा रहे थे, उसमें चुनाव आयोग समय के अनुसार ठीक है.
लेकिन बाकी सवालों के जवाब अब भी बाकी हैं, क्योंकि आयोग के कर्मचारियों ने जिस तरह ये फॉर्म जमा किए हैं — कहीं आधार नंबर लिया गया, कहीं नहीं, कहीं जन्म प्रमाण पत्र मांगा गया, कहीं नहीं, कहीं बीएलओ ने अपने विवेक से फॉर्म भरकर संस्तुति दे दी, तो कहीं एक बूथ पर सैकड़ों नाम पहले से ही कटे हुए पाए गए. ऐसे में चुनाव आयोग की यह एसआईआर प्रक्रिया फिर सवालों के घेरे में है.
सवाल प्रक्रिया को लेकर भी हैं और राजनीति से जुड़े भी. शायद इन्हीं उलझनों को लेकर अब केंद्र की एनडीए सरकार की सबसे महत्वपूर्ण साझेदार तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) भी चुनाव आयोग तक अपनी मांगों की सूची पहुंचा चुकी है.
नायडू की पार्टी के ऐतराज
चंद्रबाबू नायडू की पार्टी ने सीधे तौर पर कहा है कि एक तो चुनाव के ठीक पहले ऐसा वोटर लिस्ट सुधार बिल्कुल न हो. दूसरे, जिनके पास पहले से वोटर कार्ड है, उनसे दस्तावेज न मांगे जाएं और चुनाव आयोग एसआईआर जैसी प्रक्रिया के बहाने नागरिकता तय करने जैसे फैसले तो बिल्कुल न करे.
सीधे शब्दों में कहें तो चंद्रबाबू नायडू की पार्टी ने भी बिहार में चल रही एसआईआर से सहमति नहीं जताई है. ऐसे में तमाम सवाल वोटर लिस्ट की गड़बड़ी को लेकर उठाए जा रहे हैं. राजनीतिक दल जो आशंकाएं जता रहे हैं, उन्हीं मुद्दों पर आज के दंगल में चर्चा करेंगे.
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कैसे हो रही है गड़बड़ी?
जेडीयू का दावा है कि यह विशेष गहन पुनरीक्षण एक सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन जब सवाल दस्तावेज मांगने का आता है, तब गड़बड़ी दिखती है. आयोग का कहना है कि दस्तावेज जरूरी नहीं हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर बीएलओ दस्तावेज मांग रहे हैं.
जेडीयू का दावा है कि वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है. यह साफ-सुथरी लिस्ट नहीं है. फिर जब गड़बड़ी को ठीक करने का प्रयास हो रहा है, तो समस्या क्या है?
जेडीयू की सफाई
आजतक से बातचीत करते हुए राजीव रंजन ने कहा कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता होनी चाहिए. जो भी नाम हटाए जाएं, उनका सार्वजनिक तौर पर ब्यौरा होना चाहिए. लोग देखें कि उनका नाम क्यों हटा. जिन्हें नाम हटाने पर आपत्ति है, वे अपनी बात रखें.
दूसरी बात कि दस्तावेज अनिवार्य नहीं होने चाहिए. जन्म प्रमाण पत्र या आधार देना अनिवार्य नहीं है. इस प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं है. बीएलओ को यह साफ निर्देश होना चाहिए कि दस्तावेज मांगना अनिवार्य नहीं है. पर जमीनी स्तर पर बीएलओ दस्तावेज मांग रहे हैं.
तीसरी बात यह कि चुनावी प्रक्रिया के अंतिम समय में इतनी जल्दबाजी क्यों हो रही है?
विपक्ष का हमला
माले महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि यह कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है. हमें इसकी जानकारी तब मिली, जब बीएलओ घर-घर जाकर दस्तावेज मांगने लगे. आधार, जन्म प्रमाण पत्र, माता-पिता का नाम और उनके दस्तावेज भी मांगे जा रहे हैं. पूरे बिहार में इस प्रक्रिया के कारण दहशत का माहौल है.
बीजेपी की चुप्पी और एनडीए की फूट?
एनडीए की मुख्य पार्टी टीडीपी ने भी इस प्रक्रिया पर आपत्ति जताई है. टीडीपी चाहती है कि चुनाव से ठीक पहले ऐसा कुछ न हो, जिससे भ्रम पैदा हो.
चुनाव आयोग से टीडीपी ने भी लिखित में मांग की है कि जिनके पास पहले से वोटर आईडी कार्ड है, उनसे फिर से दस्तावेज मांगना नाजायज है.
इससे पहले कांग्रेस, आरजेडी, वाम दलों, झामुमो, टीएमसी, सपा, शिवसेना (उद्धव गुट) जैसे दल भी आयोग को पत्र लिख चुके हैं.
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आयोग की सफाई
चुनाव आयोग की तरफ से कहा गया है कि यह एक नियमित प्रक्रिया है, जिसमें किसी को डरने की जरूरत नहीं है. दस्तावेज देना अनिवार्य नहीं है.
लेकिन जब आयोग कहता है कि दस्तावेज अनिवार्य नहीं हैं, और बीएलओ दस्तावेज मांग रहे हैं, तो लोगों को भ्रम होता है. इसमें आयोग की जवाबदेही बनती है कि वह अपने कर्मचारियों को स्पष्ट निर्देश दे और राज्य सरकार से भी कहे कि बीएलओ की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता हो.
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