उत्तर प्रदेश की सियासत में इन दिनों जातीय रंग गाढ़ा हो चला है. इटावा के दांदरपुर में यादव कथावाचकों की जाति पूछकर पिटाई, सिर मुंडवाए जाने, चुटिया काटे जाने और मूत्र का छिड़काव किए जाने की घटना में आरोप ब्राह्मणों पर लगा है. इस घटना के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) खुलकर यादवों के पक्ष में उतर आई.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया कि सच्चे कृष्ण भक्तों को अगर कथा कहने से रोका जाएगा तो ये अपमान कोई क्यों सहेगा. उन्होंने तंज करते हुए यह तक चुनौती दे दी कि प्रभुत्ववादी और वर्चस्ववादी लोग यह घोषित कर दें कि पीडीए की ओर से दिया गया दान, चढ़ावा कभी स्वीकार नहीं करेंगे.
सपा के खुलकर पीड़ित कथावाचक मुकुट मणि यादव और संत यादव के पक्ष में उतर आने, अखिलेश के कटाक्ष के बाद अहीर रेजिमेंट और अन्य यादव संगठनों ने ब्राह्मणों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इटावा की घटना के बाद इस मामले ने जिस तरह से जातीय रंग ले लिया है, अब बात इसे लेकर भी होने लगी है कि अखिलेश यादव का एंटी ब्राह्मण कार्ड कहीं उनकी अगुवाई वाली सपा के लिए बैकफायर ना कर जाए?
यूपी में 10 फीसदी ब्राह्मण वोट
उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है. सूबे के कुल मतदाताओं में अनुमानों के मुताबिक ब्राह्मणों की भागीदारी करीब 10 फीसदी है. अनुमानों की मानें तो यूपी की लगभग हर विधानसभा सीट पर कम से कम पांच हजार से अधिक ब्राह्मण वोटर हैं. सूबे के करीब 30 जिलों की लगभग 100 विधानसभा सीटों पर जीत-हार तय करने में ब्राह्मण मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
सीटों का यह आंकड़ा पूर्ण बहुमत के लिए जरूरी 202 के जादुई आंकड़े का करीब-करीब आधा है. फैजाबाद, वाराणसी, जौनपुर, गोरखपुर, बलिया, गोंडा, बस्ती, महराजगंज, कानपुर, रायबरेली, अमेठी, सीतापुर, हरदोई, प्रयागराज, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, झांसी, हरदोई जैसे जिले ब्राह्मण वोटर्स का गढ़ माने जाते हैं.
जिसके साथ गया यह वोट, उसकी बनी सरकार
यूपी में ब्राह्मण मतदाता संख्या के लिहाज से भले ही उतने प्रभावी नहीं लगते, लेकिन सत्ता का अतीत अलग ही कहानी बयान करता है. लंबे समय तक ब्राह्मण कांग्रेस के साथ रहे और यूपी में ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने लंबे समय तक सरकार चलाई. 1989 के बाद राम मंदिर आंदोलन, मंडल-कमंडल की पॉलिटिक्स के दौर में ब्राह्मणों के बीच बीजेपी मजबूत हुई.
गठबंधन पॉलिटिक्स के सहारे ही सही, बीजेपी ने भी सूबे की सत्ता का स्वाद चखा. साल 2002 के बाद ब्राह्मण बीजेपी से नाराज हुए और 2005 से ही मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने ब्राह्मण सम्मेलनों के जरिये इन्हें साधने की कवायद शुरू कर दी. मायावती की पार्टी ने 2007 के विधानसभा चुनाव में 56 ब्राह्मणों को टिकट दिया, जिनमें से 41 चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे.
बसपा ने तब पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी. 2012 में सपा बड़ी जीत के साथ सत्ता में आई, अखिलेश यादव की अगुवाई में सरकार बनाई तो उसके पीछे भी ब्राह्मण मतदाताओं की भूमिका खुद सपा प्रमुख अखिलेश यादव बता चुके हैं. 2017 के चुनाव से इस वर्ग का बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ हो लिया और लगातार दो बार से सूबे में कमल निशान वाली पार्टी की बहुमत की सरकार है.
सीएसडीएस की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 के विधानसभा चुनाव में 83 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया था. इसके उलट सपा को महज सात फीसदी ब्राह्मण वोट मिले थे. यह बड़ी वजह थी कि 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले हर दल का फोकस योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली सरकार में ब्राह्मण उत्पीड़न, ब्राह्मणों के साथ हुई आपराधिक घटनाओं और ब्राह्मणों के एनकाउंटर का डेटा बताने पर था. हालांकि, विपक्ष को इसका फायदा नहीं मिला और पिछले चुनाव के मुकाबले छह फीसदी अधिक यानी 89 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया.
सपा को भी मिलता रहा है ब्राह्मण वोट
ब्राह्मण वोटर्स के बीच सपा की सियासी जमीन भी मजबूत रही है. छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्र सपा में मुलायम सिंह यादव के बाद नंबर दो हुआ करते थे. पार्टी ने सांसद चुने जाने के बाद अखिलेश यादव के इस्तीफे से रिक्त हुए विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर माता प्रसाद पांडे के चयन को भी ब्राह्मणों को साधने की रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा था.
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यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में 52 ब्राह्मण विधानसभा सदस्य निर्वाचित हुए थे, जिनमें बीजेपी के 46 विधायकों के बाद पांच की संख्या के साथ सपा दूसरे नंबर पर थी. पिछले साल लोकसभा चुनाव में भी सपा ने चार ब्राह्मणों को टिकट दिया था. इनमें से एक बलिया सीट से सनातन पांडेय चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे.
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पीडीए के साथ ब्राह्मणों को भी जोड़कर नया वोट गणित गढ़ने की कोशिश में जुटे अखिलेश देवरिया में प्रेम यादव की हत्या के बाद एक ब्राह्मण परिवार के पांच सदस्यों की लिंचिंग के मामले में भी खुलकर किसी का पक्ष लेने से बचते दिखे थे. अखिलेश ने प्रेम यादव के परिवार से मुलाकात की तो वह ब्राह्मण परिवार से भी मिलने गए थे. मुलाकात हुई या नहीं, यह अलग बात है.
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पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इस कदम को किसी एक वर्ग के साथ खड़े दिखने पर कहीं दूसरा नाराज न हो जाए, इसका ध्यान रखते हुए बैलेंस स्टैंड के रूप में देखा गया था. लेकिन इटावा की घटना के बाद अखिलेश ने ब्राह्मणों को प्रभुत्ववादी और वर्चस्ववादी तक कह दिया. एक आपराधिक घटना को जातीयता के रंग में रंगने का राजनीतिक नफा होगा या नुकसान? यह देखने वाली बात होगी.