विवादों में लगातार रहने के बाद आखिरकार फिल्म 'द बंगाल फाइल्स' सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है. डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री की ये फिल्म भारत और पाकिस्तान के बंटवारे से पहले बंगाल में हुए डायरेक्ट एक्शन डे की कहानी है. साथ ही इसमें नोआखली में हुए दंगों को भी दिखाया गया है. मुस्लिम लीग के मुखिया मोहम्मद अली जिन्ना अपना अलग मुल्क चाहते थे, जिसका नाम हो पाकिस्तान. वो चाहते थे कि भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया जाए, जहां सब एक धर्म को माने और रहें. साथ ही जिन्ना की मांग थी कि बंगाल को उन्हें दिया जाए. गांधी और कॉन्ग्रेस पार्टी इस मांग के खिलाफ थी. ऐसे में उन्होंने 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन डे का ऐलान किया. इसके चलते शहरभर में आंदोलन शुरू हुआ, जो आगे चलकर नरसंहार में बदल गया था.
कल और आज के भारत को दिखाती है फिल्म
फिल्म की कहानी की शुरुआत आज, आजादी के 78 साल बाद के भारत में होती है. यहां दिल्ली में सीबीआई के चीफ राजेश सिंह (पुनीत इस्सर), आईपीएस अफसर शिवा पंडित (दर्शन कुमार) को एक दलित लड़की के अगवा होने का केस सौंपते हैं. ये मामला बंगाल के मुर्शिदाबाद का है. गायब हुई लड़की का नाम गीत मंडल है. इस मामले में मुख्य संदिग्ध दो लोग हैं, एक बुढ़िया भारती बनर्जी (पल्लवी) और मुर्शिदाबाद का एमएलए सरदार हुसैनी (शाश्वत चटर्जी). भारती से मुलाकात पर शिवा को पता चलता है कि इसे डिमेंशिया है. भारती अपनी उम्र और बीमारी के चलते ज्यादा बात नहीं कर सकती, लेकिन उसके पास कहने को बहुत कुछ है. वहीं हुसैनी जितना दिखता है, उतना ही कमीना है. बांग्लादेश से गैर-कानूनी रूप से शरणार्थियों को अपने देश में घुसाने, बसाने और उनसे अपना वोट बैंक बनाने के लिए हुसैनी को जाना जाता है.
फिल्म की कहानी डायरेक्ट एक्शन डे और आज के भारत के बीच आगे-पीछे चलती है. उस जमाने में आप यंग भारती बनर्जी (सिमरत कौर) को देखते हैं, जो एक चुलबुली लड़की हुआ करती थी और बाद में स्वतंत्रता सैनानी बनी. डायरेक्ट एक्शन डे के हमलों में भारती ने अपने पिता जस्टिस बनर्जी (प्रियांशु चटर्जी) और मां दोनों को खो दिया. इसी दौरान उसकी मुलाकात अमरजीत अरोड़ा (एकलव्य सूद) से हुई. दोनों मिलकर किसी तरह अपनी जान बचाते हैं और अपने आसपास लोगों की जान जाते देखते हैं. कुछ वक्त के बाद भारती, नोआखली में अपने काका और हिंदू महासभा के सदस्य रॉय चौधरी (दिव्येंदु भट्टाचार्य) पास चली जाती है. लेकिन वहां भी उसे यही सब देखना पड़ता है.
खून-खराबा देखकर होगा मन खराब
डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक हिंसा ही हिंसा है. ज्यादा से ज्यादा खून-खराबा और मारकाट दिखाना ही मानो फिल्ममेकर का मकसद था. फिल्म में खून और मारकाट ज्यादा दिखाना, और कम बातें कहना ही शायद विवेक का स्टाइल है. फिल्म में आपको क्या नहीं देखने को मिलता. आप इसमें बच्चों को गोली खाते, लोगों के मुंह को सीवरों के ढक्कन से कुचलते, बच्चों के चेहरे पर गर्म प्रेस लटकाकर लोगों को धमकाते और एक शख्स को बीच से आधा कटते देखते हैं. किरदारों को बीच से काटना विवेक अग्निहोत्री की फेवरेट चीज है. ऐसा ही एक सीन उन्होंने अपनी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' में भी रखा था. फिल्म में इतनी दंगई और ट्रिगर करने वाले सीन है कि आपका मन खराब होने लगता है और दम घुटने लगता, मगर हिंसा का अंत नहीं होता. इस हिंसा और खून खराबे को अपने शरीर में मोटी कील की तरह ठोका जाता है, इतनी गहराई तक कि बाहर रहने वाला उसका हिस्सा भी आपके दिमाग में समा जाए. ये सब देखकर आपके मन में सवाल उठता है कि कितनी हिंसा, बहुत ज्यादा हिंसा है?
ऐसी फिल्मों को सेंसर बोर्ड क्यों सेंसर नहीं करता ये बात मेरी समझ के बाहर. डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री को लगता है कि वो 3 घंटे से ज्यादा वक्त की पिक्चर बनाएंगे तो वो गहरी हो जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं है. ये फिल्म इतनी लंबी है और इसमें इतना वायलेंस है कि आप भूल ही जाते हैं कि आखिर पिक्चर की कहानी क्या थी? और कौन-सा किरदार क्या है? ये शुरू से आखिर तक बोरिंग है. इसकी कहानी कहीं से भी आपको अपने साथ नहीं जोड़ती, न ही कोई खास सेंस बनाती है. इसमें खून खराबे के अलावा कुछ भी नहीं है. आपको दर्दभरे सीन्स दिखाकर इमोशनल करने की कोशिश की जाती है, लेकिन आपका दिमाग इतना कुछ देखने के बाद थक चुका होता है और आप बस थिएटर से किसी तरह निकालना चाहते हैं.
कैसी है एक्टर्स की परफॉरमेंस?
फिल्म में कई बढ़िया कलाकारों ने काम किया है. पिक्चर के लीड हीरो दर्शन कुमार हैं. शिवा पंडित के किरदार में उनकी परफॉरमेंस बहुत खास नहीं है. पल्लवी जोशी और सिमरत कौर ने अपने भारती के किरदार को अच्छे से निभाया है. पल्लवी की परफॉरमेंस जिंदगी के दर्द और ट्रॉमा झेल चुकी मां भारती के रूप में अच्छा है. लेकिन सिमरत कौर ने उन्हें भी पीछे छोड़ दिया है. सिमरत की आंखें काफी कुछ बोलती हैं. उनका साथ यहां एकलव्य सूद ने अमरजीत अरोड़ा बनकर दिया है. दोनों की केमिस्ट्री अच्छी थी. हालांकि दोनों के बीच की डायलॉगबाजी काफी बनावटी है. बंगाल पर सिमरत का मोनोलॉग उतना गहरा असर आपके ऊपर नहीं डालता जितना उम्मीद थी.
भ्रष्टाचार के हाथों हारे पुलिस अफसर के रोल में मिथुन चक्रवर्ती ने बढ़िया काम है. गुलाम सर्वर हुसैनी के रोल में नमाशी चक्रवर्ती का काम काबिल-ए-तारीफ है. नमाशी ने दिखा दिया कि वो शानदार एक्टर हैं. इसी तरह राजेश खेर भी मोहम्मद अली जिन्ना के किरदार में एकदम सही तरह से ढले हैं. हालांकि उनके सामने महात्मा गांधी के रोल में अनुपम खेर फीके पड़ गए. गांधी के रोल में अनुपम खेर का काम ठीकठाक है. बंगाल की कहानी होने के चलते उनसे बंगाली एक्सेंट में बात करवाने की क्या जरूरत थी ये मुझे समझ नहीं आया है. गोपाल पाठा के रोल में सौरव दास, एक्टर प्रियांशु चटर्जी, शाश्वत चटर्जी और दिव्येंदु भट्टाचार्य का काम भी ठीक है. पिक्चर में कोई गाना नहीं है. लेकिन रोहित शर्मा का बैकग्राउंड स्कोर आपके दिल तक जरूर पहुंचता है. इसकी एडिटिंग सख्ती से करके इसे छोटा किया जाता तो शायद ये थोड़ी बेहतर लगती.
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