दुनिया एक नए जियोपॉलिटिकल तूफान के मुहाने पर है. डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट की नीति पर काम करते हुए तमाम देशों पर भारी टैरिफ लगाना शुरू कर दिया. इसमें भारत से लेकर चीन तक शामिल हैं. रूस तो पहले से ही प्रतिबंधित देश रहा. अब यही तीनों देश आपस में मेलजोल बढ़ा रहे हैं. ये लड़ाई टैरिफ की कम, पुतिन-मोदी-जिनपिंग बनाम ट्रंप ज्यादा दिख रही है. इसके बाद वाइट हाउस कुछ नर्म भी पड़ सकता है, या हो सकता है कि चोट खाए राजा की तरह और ज्यादा आक्रामक हो जाए.
कहां, क्या बदल रहा है
अमेरिका लंबे समय से दुनिया का सबसे ताकतवर देश बना हुआ है. उसकी सैन्य शक्ति से लेकर फॉरेन पॉलिसी ने उसे एक तरह से बॉस बना दिया. लेकिन हाल में ये सिंहासन हिलता दिख रहा है. ज्यादातर देश ट्रंप की नीतियों से नाराज हैं. यहां तक कि उसका परम सहयोगी रहा यूरोप भी ट्रंपियन धमकियों से उखड़ा हुआ है.
यहां तक तो फिर भी ठीक रहा लेकिन देशों पर भारी टैरिफ बढ़ाना ट्रंप के लिए उल्टा पड़ गया. उन्होंने सोचा था कि इसके जरिए वे अपनी मनचाही डील पक्की कर सकेंगे, लेकिन पासा पलट गया. कई मुल्क अमेरिका को बायपास करते हुए अपना ही बाजार और सैन्य ताकत बना सकते हैं. या कम से कम इतना कर सकते हैं कि यूएस नाम का ऊंट पहाड़ के नीचे आ जाए.
ऐसे गठबंधन पहले भी दिख चुके
दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान ऐसा ही दौर आया था. तब अमेरिका और सोवियत संघ (अब रूस) दो महाशक्तियां थे. लड़ाई खत्म होने के बाद लगभग सारे ही देश या तो यूएस की तरफ चले या रूस की तरफ. एक तरफ अमेरिका के नेतृत्व वाला नाटो था, दूसरी तरफ रूस का वारसॉ पैक्ट.
इधर भारत समेत कई देश थे, जो किसी खेमे से अलग थे. इन देशों ने तटस्थता के झंडे तले नॉन-अलायंड मूवमेंट की नींव रखी. यह एक तरह से तीसरा दल था जो खुद को महाशक्तियों के दबाव से बचाने की कोशिश में था. गठबंधनों में बीच-बीच में शेयर्ड इंट्रेस्ट वाले गुटों का भी तड़का लगता रहा, जो एक महाद्वीप, एक हित या एक धर्म वाली सोच के चलते साथ दिखे.

आज भी हालात कुछ हद तक वही
अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों के खिलाफ चीन-रूस का अलायंस बन चुका. भारत भी इसमें सहयोगी दिखने लगा है. वो रूस के करीब तो था ही, लेकिन बीजिंग के साथ आना बड़ा फैसला रहा. कोविड के दौर में चीन और भारत के बीच सीमा तनाव गहराया था, जिसके बाद से दोनों के बीच लगभग अबोला रहा. अब दोनों देशों के नेता चीन के तियानजिन शहर में मिल-बैठ रहे हैं. हो सकता है कि इससे दोनों की ही अमेरिकी बाजार पर निर्भरता कम हो. ये भी हो सकता है कि अलग-थलग पड़ता देखकर ट्रंप ही अपने फैसले बदल लें.
तीनों साथ दिखने तो लगे, लेकिन क्या ये साथ टिकाऊ हो सकता है
अगर ये तिकड़ी सच में एक टीम बन जाए तो कई बड़े बदलाव होंगे. दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी इन्हीं तीन देशों में रहती है. तीनों ही के पास बाजार हैं, न्यूक्लियर पावर हैं और इकनॉमी है. ऐसे में अमेरिका का सुपरपावर वाला स्टेटस डगमगा सकता है. लेकिन ये इतना आसान भी नहीं. चीन-भारत के अपने बॉर्डर विवाद हैं. इधर रूस भी कई बार यूएस के करीब दिखता है. कुल मिलाकर, सबसे अपने हित और अहित हैं, जो वक्त के साथ बदल सकते हैं.
वैसे भी इतिहास कहता है कि अलायंस ज्यादा समय तक वैसे नहीं रह पाते जैसे शुरुआत में होते हैं. सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद यूएस और रूस एक-दूसरे के सहयोगी थे, लेकिन जंग खत्म होते ही दोनों दुश्मन बन गए. इसका कारण था पावर पॉलिटिक्स. हर बड़ा देश चाहता है कि उसका दबदबा बना रहे. इसी तरह से रूस और चीन के बीच भी अच्छे रिश्ते बीच-बीच में गड़बड़ाए थे.

अमेरिका को हटाना जरूरी भी है या नहीं
इस देश के पास सिर्फ ताकत नहीं, बल्कि ग्लोबल सिस्टम चलाने का तजुर्बा भी है. मसलन, यूएन से लेकर वर्ल्ड बैंक तक, ज्यादातर फैसलों में वही लीड करता है. इसकी वजह भी है. वही इनका सबसे बड़ा फंडिंग सोर्स रहा. अमेरिका की ताकत भले एकतरफा लगे, लेकिन कई बार उसी ताकत की वजह से दुनिया में बैलेंस भी बना रहता है. ये वैसा ही है, जैसे घर का मुखिया अलग कड़क हो तो बाकी परिवार एक सीध में चलता है और रिश्ते टिके रहते हैं.
इसके बावजूद यह भी सच है कि ट्रंप फिलहाल उतावली में फैसले लेते दिख रहे हैं. भारत पर भी उन्होंने भारी टैरिफ लगा दिया. यहां तक कि वे भारत और पाकिस्तान के मामलों में भी दखल दे रहे हैं, जो दिल्ली को कतई मंजूर नहीं. ऐसे में भारत का चीन और रूस के साथ दिखना ट्रंप को थोड़ा असहज तो करेगा. ये तिकड़ी बनी रहे, तो दुनिया का पावर सेंटर एशिया की तरफ खिसक जाएगा. तब ये भी हो सकता है कि विकासशील देशों को ज्यादा आवाज मिले. अब तक ये हक वेस्ट के पास रहा.
कौन बन सकता है बिना ताज का बादशाह
अमेरिका का दबदबा थोड़ा भी कम हो, तो उसकी जगह कौन लेगा? चीन आर्थिक ताकत के मामले में अमेरिका को टक्कर दे सकता है, लेकिन कई देश उससे नाराज हैं. बीजिंग का इतिहास रहा कि वो कर्ज देकर देशों के अंदरुनी मामलों में घुसपैठ करता रहा. वहां मानवाधिकार हनन की भी खबरें आती रहीं. पहले से कालिमा लिए देश को नेता कम ही देश मंजूर करेंगे.
अब आता है- रूस. ये बड़ी सैन्य ताकत तो है लेकिन उसकी पहुंच सीमित है. उसका बाजार और इकनॉमी भी उतनी मजबूत नहीं इसलिए अकेला सुपर पावर वो भी नहीं हो सकता.
भारत के पास संभावनाएं कुछ ज्यादा हैं. वो इकनॉमिक और सैन्य तौर पर मजबूत तो है ही, साथ ही उसके रिश्ते भी बाकियों से बेहतर हैं. हालांकि भारत खुद को वर्ल्ड लीडर कहने की बजाए वसुधैव कुटुम्बकम की सोच को प्रमोट करता है. यानी भारत अभी एक ब्रिज की भूमिका में रहना चाहता है, जो पश्चिम और पूर्व दोनों से संबंध रख सके.
---- समाप्त ----