कुल्ला करके जलाभिषेक, फिर मांस खिलाना... कहानी उस भक्त की जिसने सहज भक्ति से किया महादेव को प्रसन्न

5 hours ago 1

यह समय महादेव शिव के सबसे प्रिय महीने सावन का है. जलाशयों से लेकर शिवालयों तक के रास्ते पर शिवभक्तों की टोलियां दिखाई दे रही हैं. सबका एक सीधा और सरल सा उद्देश्य, अपने महादेव का गंगा जल से अभिषेक करना. तो चले जा रहे हैं, जत्थे के जत्थे अपने महादेव को नहलाने, उन्हें गंगा स्नान कराने. अद्भुत है न यह विचार, कि जो खुद शीश पर गंगा को धारण करके गंगाधर कहलाते हैं, श्रद्धा में डूबे भक्त उनको गंगाजल से ही स्नान कराने के लिए आतुर रहते हैं.

खैर, भक्ति-भावना और श्रद्धा में तर्क की कोई जगह नहीं होती है. तमाम तरह की विधि बताने वाले शास्त्र और पुराण भी आखिर में यही बात लिखते हैं कि भगवान तो बस भाव के भूखे होते हैं. एक प्रसिद्ध भजन भी है. 'सबसे ऊंची प्रेम सगाई, दुर्योधन के मेवा त्यागे, साग विदुर घर खाई.'

इसीलिए सभी प्रकार की भक्तियों में नवधा भक्ति का खास महत्व रहा है. रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में नवधा भक्ति का स्पष्ट उल्लेख है. वनवास के दौरान भगवान श्रीराम की भेंट माता शबरी से हुई थी. उस समय माता शबरी ने जूठे बेर खिलाकर भगवान श्रीराम का स्वागत किया था. यह माता शबरी के भगवान राम के प्रति प्रेम और स्नेह के भाव को दर्शाता है. उस समय माता शबरी जूठे बेर खिलाने के लिए कुंठित भी हुई थी. तब भगवान श्रीराम ने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देकर दुविधा दूर की थी.

इसी बात को वाल्मीकि रामायण में आदि कवि लिखते हैं कि

'श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥'

यानी, श्रवण, कीर्तन, हरि स्मरण, चरण पूजा, अर्चना, नित वंदना, दास्य भाव से पूजा और सखा भाव के साथ सिर्फ खुद के समर्पण का निवेदन ही नवधा भक्ति है. व्यक्ति चाहे तो इनमें से सब कर ले, या इनमें से कोई एक या फिर कोई भी न करके सिर्फ अपने सत्कर्म का ध्यान रखकर जीवन यापन करने वाला व्यक्ति भी उतनी ही पूजा कर रहा होता है, जितनी कि विधि-विधान से पूजन करने वाला कोई यज्ञ होता. 

Kanvar Yatraहरिद्वार से कांवड़ लेकर जाते शिवभक्त (Photo- PTI)

क्यों सहज और सरल हैं महादेव शिव?
खैर, बात शिव भक्ति की हो रही है तो शिवजी का पूजन और भी सरल है. एक लोटा जल सब समस्या हल ही शिवजी की पूजा का विधान है. अधिक हुआ तो बेल के पत्ते, भांग-धतूरा, गन्ने का रस, दूध, दही-घी, शक्कर. इनकी जितनी भी जैसी भी सुलभ मात्रा मिल जाए, वही शिवपूजन के लिए काफी है. 

महादेव के इतन सहज और सर्वसुलभ होने के बावजूद लोगों में तरह-तरह के विधान, रीतियां-नीतियां, त्याग-परहेज का चलन है, लेकिन इस बात को समझना बेहद जरूरी है कि शिवजी कभी अपनी तरफ से किसी से इस तरह के त्याग की मांग नहीं करते हैं. ये व्यक्ति विशेष की अपनी श्रद्धा और आस्था हो सकती है. शिव और शिवभक्त भी उसी का सम्मान करते हैं, लेकिन अगर तमान त्याग-परित्याग के बाद अगर कोई अपने मन के विकार, दोष, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या जैसे नकारात्मक तत्वों को नहीं छोड़ पा रहा है तो उसकी महान शिवभक्ति का कोई भी अर्थ नहीं है.

सावन आते ही मांसाहार का त्याग क्यों?
मांसाहार, प्याज-लहसुन आदि को तामसिक माना जाता है. इसीलिए सावन महीने में अक्सर सुना जाता है कि लोग मांसाहार का त्याग करते हैं. लेकिन सिर्फ सावन के 30 दिनों के लिए ही. कई लोग सिर्फ मांसाहार के लिए ही सावन खत्म होने का इंतजार भी करते हैं, ध्यान देने वाली बात है कि शिव जो सर्वव्यापी हैं, उनसे लोगों का ये छल छिपता तो नहीं होगा. शिवजी को भोजन से कोई मतलब नहीं है और इसका एक बड़ा उदाहरण तमिल परंपरा के नयनार संतों में से एक महान संत कनप्पा के प्रसंग से मिलता है.

शिवजी के एक विशिष्ट भक्त की कहानी
18वीं-19वीं शताब्दी के बीच जब अंग्रेजों का शासन था, इस दौरान कंपनी पेंटिंग काफी फली-फूली, जिसमें धार्मिक और पौराणिक कथाओं के प्रसंगों का बहुत बारीकी से चित्रण किया गया है. इसी में एक प्रसिद्ध चित्र है संत कनप्पा का. संत कनप्पा के चित्र में दिखाई देता है कि वह एक शिवलिंग के पास खड़े हैं. उनका एक पैर शिवलिंग पर ही टिका हुआ है और वह अपने हाथ से तीर के जरिए अपनी आंख निकाल रहे हैं. पहली नजर में यह चित्र शिवलिंगम का अपमान करता हुआ सा लग सकता है, लेकिन ठहरिए... इस दृश्य के बाद एक अद्भुत घटना घटी. लोककथा और पौराणिक आख्यान बताते हैं कि इसके तुरंत बाद महादेव साक्षात प्रकट हुए, उन्होंने कनप्पा को अपने गले से लगाया और हाथ पकड़कर अपने शिवधाम ले गए.

विश्वास नहीं होता न... लेकिन कनप्पा की भक्ति, सहज-सरल भक्ति का सुंदर उदाहरण है. तमिल लोककथाओं के मुताबिक वह भील परिवार में जन्मे. शुरुआत में नास्तिक थे, अपनी पत्नी के कारण उनकी शिव तत्व से पहचान हुई और जब एक बार उनकी शिवजी से लगन लग गई तो ऐसी लगी कि वह श्रेष्ठ शिवभक्त के रूप में प्रसिद्ध हो गए. उनकी कथा न केवल धार्मिक आस्था को मजबूत करती है, बल्कि यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति में जाति, शिक्षा, साधन या कर्मकांड से ज़्यादा जरूरी है भावना और समर्पण.

तमिलनाडु में श्रीकालहस्ती तीर्थ क्षेत्र में स्वर्णमुखी नदी के तट पर स्थित है, महादेव शिव के पंचप्राण भूतों में से एक प्रमुख वायु लिंग.यह कथा दूसरी-तीसरी शताब्दी की है. जब भारतीय समाज कबीलों में बंटा था और जंगलों में छोटी-छोटी बस्तियां बसाकर रहता था. 

संत कनप्पा, जो कि पहले एक भील शिकारी थे और पूर्व जन्म में अर्जुन
शिकारी परिवार में जन्मे कनप्पा के बचपन का नाम थिन्नाडु था. वीरता उनका परिचय था, धनुष-बाण उनके साथी और शिकार ही उनका असली कर्म. इन सबके बीच उनकी दिनचर्या में कहीं भी भक्ति या पूजा का नाम नहीं था. कैलास पर महादेव के साथ बैठीं देवी पार्वती ने एक बार उनसे पूछा कि क्या इस कलियुग में भी आपका कोई भक्त उदित होने वाला है. तब महादेव ने कहा- देवी! उस भक्त को तो आप भी जानती हैं. ध्यान कीजिए, यह वही है, जिसने नारायण से गीता का ज्ञान सुना, फिर भी मोक्ष नहीं पा सका. पार्वती पूछती हैं तो क्या वीर अर्जुन फिर से जन्म ले रहे हैं?

तब महादेव कहते हैं कि, हां- अपने कर्म को भोगने के लिए तो उन्हें जन्म लेना ही होगा, लेकिन बस एक बार वह मुझे पुकार लें तो मैं उन्हें जरूर अपने धाम बुला लूंगा. पार्वती देवी आश्चर्य में पड़ जाती हैं और कहती हैं कि यह थिन्नाडु तो भक्ति मानता ही नहीं और आप कहते हैं कि यह आपको पुकारेगा. महादेव कहते हैं कि, यही तो लीला है और इस भक्त की असली परीक्षा भी. 

खैर... कनप्पा का विवाह जिस कन्या से हुआ वह शिव भक्त थी और श्रीकालहस्ती तीर्थ के गुप्त वायुलिंग के दर्शन करना चाहती थी. यह तीर्थ पूर्वकाल में तीन भक्तों श्री यानी मकड़ी, काल यानी सर्प और हस्ती यानी हाथी की तपस्या से पवित्र हुआ था, इन तीनों ने एकात्म साधना से महादेव को प्रसन्न किया था. मकड़ी कई वर्षों तक वायुलिंग पर जाला बुनकर उसी पर लिपटी रही. सर्प ने शिवलिंग के इर्द-गिर्द घेरा डाल लिया और हाथी ने स्वर्णमुखी नदी से जल लाकर अभिषेक किया. शिवजी प्रसन्न हुए और इसलिए महादेव ने ही इस तीर्थ को श्रीकालहस्ती नाम दिया था. एक दिन थिन्नाडु जब शिकार के लिए निकला तो रास्ता भटकते हुए जंगल में उसी गुप्त स्थान पर पहुंच गया, जहां वह श्रीकालहस्ती वायुलिंग स्थापित था. 

Lord Shivaकिरात शिव और अर्जुन का युद्ध (Photo- AI)

कैसे शिवभक्त बन गए थिन्नाडु?
थिन्नाडु ने यह स्थान अपनी पत्नी को दिखाया तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह उत्साह में बोलीं- अब तो हम रोज यहां आकर वायुलिंग की पूजा कर सकते हैं. तब थिन्नाडु ने कहा- रोज यहां आने की क्या जरूरत, लो मैं अभी इन्हें अपनी कुटिया में ले चलता हूं. ऐसा कहकर जैसे ही थिन्नाडु ने शिवलिंग को अपनी बांहों में समेटा, तुरंत ही उनके भाव बदल गए. उन्होंने शिव को गले लगा लिया था. अब वह शांत हो चुके थे. इतने कि, उन्हें अपनी सांसें, अपनी हृदय गति, अपना रक्त प्रवाह सभी कुछ सुनाई देने लगा. संसार में आनी वाली हर आवाज एक सकारात्मक गूंज में बदल गई और थिन्नाडु के मुख से ऊं का नाद निकल पड़ा. 

यही वह पल था, जब थिन्नाडु बदल गया. वह नास्तिक से आस्तिक हो गया. उसे चारों ओर शिवतत्व के दर्शन होने लगे. पेड़ों में, फलों में, फूलों में, भौरों में, नदियों- झीलों और हवा में भी. सब शिव ही शिव. मन में इतना अनुराग जगने के बाद भी थिन्नाडु था तो एक भील ही. उन्होंने कभी वेद, पुराण या पूजन विधि का ज्ञान नहीं लिया था, लेकिन उनमें भगवान शिव के प्रति जो श्रद्धा थी, वह अलौकिक थी. वे जंगल में शिकार करते और फिर शिवलिंग की पूजा अपने ही निराले ढंग से करने लगे. 

कुछ इस तरह शिवपूजा करते थे थिन्नाडु 
थिन्नाडु ने पूजा की कोई पारंपरिक विधि नहीं अपनाई. उन्होंने नियम बना लिया था. वह पहले शिकार करते थे, फिर मांस को पकाते थे और उसे लेकर अपने शिव के साथ बैठ जाते और शिवजी को अपने हाथों से मांस खिलाते थे. एक दिन तो ऐसा हुआ कि थिन्नाडु के हाथों में पके हुए मांस का दोना था, वह शिव जी को खिलाने जा रहे थे, लेकिन फिर उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए जल भी लेना होगा. 

थिन्नाडु ने अंजुलि में जल लिया, वह सारा टपक गया. पत्ते का दोना बनाकर पानी भरा, लेकिन वह वायुलिंग तक पहुंचते-पहुंचते बह गया. तब कोई उपाय न देख, थिन्नाडु ने मुंह में पानी भर लिया और मांस का दोना लेकर वायुलिंग के पास पहुंचा. उसने मुख में भरे जल को शिवलिंग पर उगल दिया और बड़े ही प्रेम से शिवजी को मांस खिलाने लगा. 

कहने लगा, खाओ शंकर जी, बहुत स्वादिष्ट है. मैंने बहुत दूर तक दौड़ाकर इस हिरण को मारा है और खुद आपके लिए इसे पकाया है. इस तरह वह बार-बार शिवजी से प्रार्थना करने लगा. थिन्नाडु को यही प्रार्थना आती है तो वह अपने तरीके से वही कर रहा था. 

उस वायुलिंग की पूजा एक महर्षि भी किया करते थे और उन्होंने उस लिंग को सभी से छिपा रखा था, ताकि कोई और इस दुर्लभ दिव्य लिंगम तक पहुंच न सके. उस दिन उन्होंने थिन्नाडु को इस तरह शिवलिंग को मांस का प्रसाद खिलाते देखा तो बहुत क्रोधित हो गए और अनर्थ-अनर्थ कहकर चीखने लगे. 

महर्षि ने क्यों दिया थिन्नाडु को दंड?
थिन्नाडु ने उनकी आवाज सुनी तो कहने लगा- मैं अपने प्रिय शिवा को गर्म-गर्म भोजन खिला रहा हूं. आप अनर्थ-अनर्थ क्यों कह रहे हैं? यह सुनकर वह महर्षि और क्रोधित हो गए और उन्होंने थिन्नाडु को अपने शिष्यों से बंदी बनवा लिया. फिर उसे दंड देने का आदेश दिया. थिन्नाडु शिवा-शिवा कहता रहा और सारा दर्द सहता रहा. 

इसी बीच एक कोड़ा थिन्नाडु की आंख पर लगा, उसे तो कुछ नहीं हुआ लेकिन उसने देखा कि वायुलिंग पर बने एक नेत्र से खून बहने लगा. थिन्नाडु ने खुद को बंधन से छुड़ाया और शिवलिंगम के पास जाकर रोने लगा. उसने कहा- आपकी आंख को चोट लगी है, इससे खून बह रहा है. क्या करूं, क्या करूं... ऐसा बोलते ही थिन्नाडु बोला- मेरी पत्नी कहती है कि भगवान अपने भक्तों की आंखों से देखते हैं, आप मेरी आंखों से देखोगे शिवा... ऐसा कहते-कहते थिन्नाडु ने तीर भोंककर अपनी दायीं आंख निकाल दी और शिवलिंग की आंख वाली जगह पर लगा दी. शिवलिंग ने थिन्नाडु की आंख स्वीकार कर ली और शिवलिंग पर उसकी पुतली चारों ओर घूमने लगी.

लेकिन... तभी थिन्नाडु ने देखा कि दूसरी आंख से भी खून निकल रहा है. ऐसा देखकर थिन्नाडु ने कहा- लो भगवन् आप ये आंख भी ले लो. लेकिन, रुके. आंख निकलते ही मुझे दिखना बंद हो जाएगा, तो मैं सही जगह पर निशान के लिए पैर लगा देता हूं, ताकि मुझे पता रहे कि आंख कहां लगानी है. बस मैं, थोड़ी देर के लिए ही आप पर पैर लगाऊंगा. आंख लगते ही पैर हटा लूंगा. 

Lord Shiva

थिन्नाडु ने दान कर दी आंखें?

ऐसा कहकर भक्त थिन्नाडु ने शिवलिंग पर आंख वाली जगह पर पांव रखा और अपनी दूसरी आंख भी निकालने लगा. उसने जैसे ही तीर आंख में चुभोया, तभी वायुलिंग ने निकले एक हाथ ने उसका हाथ पकड़ लिया, थिन्नाडु ने चेहरा उठाकर ऊपर देखा तो एक दिव्य प्रकाश धरती से लेकर आकाश तक फैला हुआ था और इसके बीचों-बीच महादेव अपने साकार स्वरूप में सामने थे. उनके साथ देवी पार्वती भी थीं. वायुलिंग की पूजा करने वाले महर्षि यह सब देखकर चकित रह गए और थिन्नाडु के पैरों में गिर पड़े. 

महादेव ने थिन्नाडु से कहा- मैंने तुम्हारा अभिषेक, तुम्हारा प्रसाद, तुम्हारे आंखें सबकुछ स्वीकार कर लिया है. मैंने तुम्हें ही स्वीकार कर लिया है, या यूं कहो तुमने मुझे स्वीकार कर लिया है. अब तुम मेरे हो, मैं तुम्हारा हूं. तुमने मुझे अपनी आंखें (कन्नु) दान कर दीं, इसलिए आज से तुम्हारा नाम भक्त कनप्पा होगा. तमिल में आंखों के लिए कन्नु शब्द का प्रयोग किया जाता है. 

उन्होंने कनप्पा को बताया कि पिछले जन्म में तुम अर्जुन थे. मैं ही किरात रूप में तुम्हारे पास आया था और तुम्हारे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने के अहंकार को तोड़ा था. तब तुमने मुझसे मोक्ष मांगा था, लेकिन तुम्हारे महाभारत में होने वाले प्रारब्ध के कारण वो मैं तुम्हें नहीं दे सका था और सही समय की प्रतीक्षा करने के लिए कहा था. आज वो समय आ गया है, कनप्पा. अब तुम मेरे साथ शिवलोक चलो. और ऐसा कहकर भगवान शिव अपने उसे भोले, भील भक्त को हाथ पकड़कर अपने साथ शिवलोक ले गए. कनप्पा की इस दिव्य कथा पर आधारित हाल ही में एक फिल्म भी बनी है, जो बीते महीने ही रिलीज हुई थी. अभिनेता अक्षय कुमार, अभिनेत्री काजल अग्रवाल और प्रभास इस फिल्म में मूख्य भूमिकाओं में थे.

तमिल परंपरा के नयनार संत
कनप्पा को तमिल परंपरा के 63 नयनार संतों में महत्वपूर्ण स्थान मिला है. ये प्रमुख शैव संत हैं. तमिलनाडु के कुंभकोणम के पास दारासुरम गांव में मौजूद ऐरावतेश्वर मंदिर में इन सभी संतों की प्राचीन मूर्तियां दीवारों में उकेरी दिखाई देती हैं. श्रीकालहस्ती क्षेत्र (आंध्र प्रदेश) में वायुलिंग की पूजा होती है और वहीं कनप्पा का भी मंदिर स्थापित है. कनप्पा की यह कथा बताती है कि शिव केवल सच्चे मन की गहराई से प्रसन्न होते हैं. उन्हें किसी भी मंत्र, तंत्र, भोग-प्रसाद, नियम-विधान से कहीं अधिक प्रिय अपने भक्त का सरल हृदय है. 

शिव मंदिरों में नहीं मिलते, शिव पहाड़ों में नहीं बसते. शिव केवल भक्तों के मन में रमते हैं. केवल एक नेक साफ और सच्चे दिल में. हर-हर महादेव

---- समाप्त ----

Read Entire Article