क्या पॉल्यूशन कम करने पर बढ़ सकती है ग्लोबल वार्मिंग, नई स्टडी में चेतावनी

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लगभग दशकभर पहले चीन से काफी सारी तस्वीरें और वीडियो आए, जिसमें पॉल्यूशन से परेशान लोग दिखते थे. सर्दियों में हाल और बुरा होता है. इस बीच वहां की सरकार ने कई नियम बनाए. कोयले से चलने वाले कारखानों से लेकर गाड़ियों तक पर सख्ती हुई. नतीजा ये हुआ कि 2010 से दशकभर के भीतर ही वहां जहरीली गैसों का उत्सर्जन काफी कम हो गया. लेकिन इसी सफाई ने वो पर्दा भी हटा दिया, जो सूरज की गर्मी को रोकता था. मतलब, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ गई. 

प्रदूषण कम करने से गर्मी कैसे बढ़ सकती है, चलिए, इसे आसान तरीके से समझें लेकिन इससे पहले ताजा शोध के बारे में पढ़ते चलें. हाल में कम्युनिकेशन्स अर्थ एंड एनवायरमेंट नाम के इंटरनेशनल साइंस जर्नल में एक रिसर्च आई. ये कहती है कि ग्लोबल वार्मिंग में जो हालिया तेजी दिख रही है, वो पूर्वी एशिया में साफ-सफाई की वजह से भी है.

शोध में अमेरिका, नॉर्वे और ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने मिलकर काम किया. वैज्ञानिकों ने पाया कि साल 2010 से अगले दशकभर में धरती का औसत टेंपरेचर 0.23 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ना चाहिए था, लेकिन असल में ये 0.33 डिग्री तक पहुंच गया. ये फर्क पढ़ने-सुनने में भले कम लगे लेकिन ग्लोबल लेवल पर ये काफी ज्यादा है. इस बढ़े हुए ग्राफ में से भी करीब 0.07 डिग्री गर्मी सिर्फ पूर्वी एशिया की साफ हवा की वजह से आई. 

global warming (Photo- Unsplash) ग्लोबल वार्मिंग अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रही है. (Photo- Unsplash)

यानी हवा को साफ करने की कोशिश ने अनजाने में दुनिया को और गर्म कर दिया. लेकिन ऐसा क्या किया चीन ने! लगातार हो रहे हो-हल्ले के बीच बीजिंग ने अपने यहां कारखानों, बिजलीघर और गाड़ियों से हो रहा पॉल्यूशन रोकने पर ध्यान दिया. खासकर सल्फर डाइऑक्साइड नाम की गैस को कम करने पर फोकस किया जो एयर पॉल्यूशन की बड़ी वजह है. कोयले से चलने वाले प्लांट बंद कर दिए गए, फैक्ट्रियों के लिए कड़े नियम बने. इससे हवा साफ होने लगी. लेकिन दुनिया पर इसका उल्टा असर हुआ.

दरअसल हवा में जब सल्फर डाइऑक्साइड के कण होते हैं, जिन्हें एरोसोल भी कहते हैं, तो उनसे टकराकर सूरज की गर्मी वापस उल्टी तरफ चली जाती है. इससे धरती तक वो तापमान नहीं पहुंच पाता. चीन ने जब एरोसोल हटा दिए तो परदा हट गया और हीट सीधे नीचे पहुंचने लगी. 

ग्लोबल टेंपरेचर में थोड़ी और बढ़त में चीन ही नहीं, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल हैं. 

air pollution (Photo- Unsplash) सल्फर डाइऑक्साइड के साथ बाकी ग्रीन हाउस गैसों को कम करना भी जरूरी है. (Photo- Unsplash)

ये सभी मिलकर सोलर जियोइंजीनियरिंग कर रहे हैं. यानी जानबूझकर हवा में ऐसे कण (एरोसोल) छोड़ना जो सूरज की रोशनी को वापस लौटा दें. ये विचार भी ज्वालामुखियों के विस्फोट को देखते हुए आया. दरअसल, जब भी कोई बड़ा विस्फोट होता है, आसपास धूल और धुआं फैल जाता है. इसके बाद उस हिस्से का तापमान काफी दिनों तक कम रहता है. इसी बात ने सोलर जियोइंजीनियरिंग का आइडिया दिया. 

इस आइडिया को लेकर सबसे बड़ा प्रयोग हुआ साल 2022 में मैक्सिको में. एक अमेरिकी कंपनी ने चुपचाप वहां की हवा में सल्फर डाइऑक्साइड से भरे बैलून छोड़े,  ताकि तापमान कुछ कम हो सके. लेकिन भेद खुलने पर हंगामा मच गया. मैक्सिको के वैज्ञानिकों ने विरोध किया कि अगर एरोसोल का संतुलन बिगड़ा तो तेज बारिश-सूखा या बेहद ठंड जैसी कोई एक्सट्रीम स्थिति बन सकती है. आखिरकार कंपनी को अपना प्रयोग रोकना पड़ा. लेकिन ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए ये नई तकनीक चर्चा में आ गई. 

तो क्या एयर पॉल्यूशन कम करने के तरीके गलत हैं
ऐसा तो नहीं है. लेकिन सल्फर डाइऑक्साइड के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड और बाकी ग्रीन हाउस गैसों का कम किया जाना भी जरूरी है, जिसकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है. 

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