गरीब, बीमार और अस्थिर, अफ्रीका के नाम के साथ ये तमगे किसने चिपकाए?

5 days ago 1

कांगो से लेकर सूडान और सोमालिया जैसे देशों में सैन्य झड़प हो, या तख्तापलट, अफ्रीका बार-बार खबरों में आता है. लेकिन किसी पॉजिटिव बात के लिए शायद ही इस महाद्वीप की चर्चा होती है. यहां तक कि ज्यादातर ग्लोबल नेता भी यहां जाने से कतराते लगे. क्या इस उपेक्षा के पीछे सिर्फ कूटनीतिक प्राथमिकताएं हैं, या फिर कोई गहरी साजिश?

हमेशा गरीब और बीमार की टैग चिपका रहा

अफ्रीका अक्सर गलत वजहों से चर्चा में रहता आया. कभी वहां तख्तापलट होता है तो कभी लोग आपस में ही गुंथे सुनाई पड़े. इस सब पर खबरें इतनी ज्यादा हैं कि अफ्रीका की इमेज ही गरीब और संघर्षों में जीते महाद्वीप की हो गई, जहां मामूली बात पर भी फसाद हो सकता है. ऐसे हिस्से को उबारने की जिम्मेदारी ली अमेरिका ने. सत्तर के दशक के करीब उसने और चुनिंदा मित्र देशों ने वहां मदद भेजने की शुरुआत की. इस दौरान यूस ने अपने आधिकारिक दस्तावेजों में अफ्रीकी देशों को एड-डिपेंडेंट नेशन कहना चालू कर दिया. 

आगे मामला और बिगड़ा. HIV/AIDS जैसी बीमारियां दिखने लगी थीं. इसके अलावा भी कई संक्रामक बीमारियां आ रही थीं, जिसका केंद्र अफ्रीका को मान लिया गया. अमीर देशों ने मदद तो की लेकिन ये कहते हुए कि ये देश एड रिलायंट हैं यानी बिना सहायता के अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते. साथ ही ये भी माना जाने लगा कि तमाम खतरनाक बीमारियां अफ्रीका से भी पैदा होती हैं. अफ्रीका एक बार फिर काले घेरे में आ गया. 

pm naredra modi with ghana president John Mahama photo PTI

नीतियों ने उसे कमजोर ही दिखाया

बराक ओबामा के दौर में अनुमान था कि खुद इस जगह से जुड़े राष्ट्रपति अफ्रीका को अलग नजरों से देखेंगे. कुछ हद तक ये हुआ भी. ओबामा ने पावर अफ्रीका जैसी योजनाएं शुरू कीं, लेकिन बोलचाल में अब भी हेल्पिंग अफ्रीका राइज जैसे टर्म इस्तेमाल होते हैं. अफ्रीका कमजोर का कमजोर ही बना रहा. कोई इसे बराबरी का नहीं मान सका. नीतियों और रिपोर्ट्स में वो एड रिसीवर ही बना रहा. 

एक बात और हुई. दुनिया से कनेक्ट न होकर ये महाद्वीप खुद में उलझता चला गया. यहां तख्तापलट होने लगे. जाति और कल्चर के आधार पर सत्ता के लिए लड़ाइयां होने लगीं. और तो और आतंकी समूहों ने भी इसे सेफ स्पेस की तरह काम में लेना शुरू कर दिया. चूंकि यहां बाकी दुनिया का ध्यान खास नहीं था, लिहाजा इस्लामिक स्टेट से लेकर अलकायदा भी फैल गया. 

कितना असुरक्षित है अफ्रीका

पश्चिम के नेता अक्सर अफ्रीका में सुरक्षा हालात की बात करते हैं. यूक्रेन जैसे युद्ध से जूझते देश में नेताओं की लगातार विजिट होती रही, लेकिन सिविल वॉर से जूझते देशों को खतरनाक कहकर दूरी रखी गई. राजनीतिक अस्थिरता का हवाला देकर अफ्रीकी यूनियन को काफी समय तक G20 में शामिल नहीं होने दिया गया. अब भी कोई बड़ी बैठक, पीस टॉक या क्लाइमेट पर ही पहल के लिए ग्लोबल मीटिंग यहां नहीं होती. दक्षिण अफ्रीका और मोरक्को या इजिप्ट जैसे देशों को छोड़ दें तो पूरे महाद्वीप के यही हाल हैं. 

तो क्या अफ्रीका में कुछ भी बढ़िया नहीं

यहां बहुत कुछ ऐसा है, जो पूरे संसार में नहीं मिलेगा. मसलन, ये दुनिया का सबसे युवा महाद्वीप है, जहां 60 फीसदी के करीब आबादी 25 साल से कम उम्र की है. यहां नेचुरल रिसोर्स काफी ज्यादा रहा. लेकिन इसका भी उसे नुकसान ही हुआ. चीन से लेकर रूस तक के लिए वो एक्सट्रैक्शन जोन बनकर रह गया. देश रिमोट डिप्लोमेसी चला रहे हैं, मतलब दूर बैठकर गुडी-गुडी बातें करते हैं, लेकिन साथ नहीं बैठते. ज्यादातर लीडरों की मुलाकात आर्थिक मंच तक सीमित रही. 

africa people photo - Unsplash

क्या अफ्रीका ने इस भेदभाव को समझा

हां. हाल के सालों में अफ्रीकी देशों से विरोध की आवाजें आ रही हैं. सैन्य शासन वाले देशों जैसे माली, बुर्किना फासो और नाइजर में कुछ समय पहले काफी आंतरिक अस्थिरता रही. सैन्य सरकारों ने अमेरिका के साथ-साथ पूरे पश्चिम को घेरते हुए आरोप लगाया कि वे जान-बूझकर अफ्रीका की निगेटिव ब्रांडिंग कर रहे हैं और उसके निजी मामलों में दखल दे रहे हैं. बुर्किना के सैन्य लीडर कैप्टन इब्राहिम ट्राओरे ने कह दिया था- वी आर नो लान्गर इन द इरा ऑफ पपेट स्टेट्स. इसके बाद से ही कई देशों ने नो मोर पपेट डिप्लोमेसी जैसी बातें कहनी शुरू कीं. 

कंस्पिरेसी है, ये कैसे पक्का हो

ये निश्चित तौर पर तो नहीं कहा जा सकता लेकिन नेचुरल रिसोर्सेज और युवा आबादी के बाद भी इस महाद्वीप को जैसे गरीबी, भुखमरी, करप्शन और बीमारियों से जोड़ा गया, वो इशारा तो है. कई ऐसे उदाहरण भी हैं, जो इस तरफ सीधा संकेत करते हैं. साल 2010 के करीब लीबिया के तत्कालीन राष्ट्रपति मुअम्मर गद्दाफी ने पैन-अफ्रीकन गोल्ड करेंसी लॉन्च करने की सोची. प्लान था कि तेल जैसे रिसोर्स का व्यापार डॉलर की बजाए गोल्ड में हो.

गद्दाफी चाहते थे कि अफ्रीकी देश पश्चिमी करेंसी सिस्टम पर निर्भर न रहें. लेकिन सालभर के भीतर ही नाटो ने लीबिया पर सैन्य एक्शन लिया. गद्दाफी की न सिर्फ सरकार गिरी, बल्कि उनकी हत्या भी कर दी गई. कई रिपोर्ट्स में कहा गया कि गद्दाफी की आर्थिक आजादी की सोच पश्चिम के गले नहीं उतरी. अगर अफ्रीका तेल और खनिज अपनी करेंसी में बेचने लगता तो वेस्ट की पकड़ कमजोर पड़ जाती. हालांकि ये साजिश कभी साबित नहीं हो सकी. 

africa youth photo Unsplash

अफ्रीका को लाचार दिखा पश्चिम को क्या फायदा

इसका जवाब जानना हो तो जाति, धर्म, नस्ल और लिंग के हजारों उदाहरण हमें आसपास दिख जाएंगे. लेकिन अफ्रीका चूंकि 50 से ज्यादा देशों से मिलकर बना एक पूरा का पूरा महाद्वीप है, लिहाजा इसमें बाकियों के आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक फायदे बने रहे.

यह दुनिया का सबसे रिर्सोस रिच हिस्सा है. इसका फायदा अगर सच बोलकर लिया जाए तो उस हिस्से को बराबरी पर लाना होगा. इसमें आर्थिक नुकसान है. तो पश्चिमी देशों ने अफ्रीका को लगातार पिछड़ा और अशांत बताते हुए वहां मदद के नाम पर दखल देना और संसाधनों पर कब्जा शुरू कर दिया. साथ ही एड के नाम पर पॉलिसी से छेड़छाड़ का मौका मिल जाता है. 

महाद्वीप को लगातार हीन बताया गया, जिससे वहां के ब्राइट युवा अपने ही देशों को छोड़कर पलायन करने लगे. अमेरिका कम कीमत पर उनका इस्तेमाल कर पाता है और उन्हें उनके ही देश से अलग कर देता है. स्थानीय असंतोष को शांत करने के नाम पर भी कभी रूस के वैगनर गुट और कभी कोई दूसरा समूह वहां दखल देते रहते हैं और अपने हिसाब की सरकारें बनाते-बिगाड़ते हैं. 

---- समाप्त ----

Read Entire Article