चित्तौड़गढ़ का जौहर, प्रयागराज के अक्षय वट पर कब्जा... क्रूर या सहिष्णु! कैसा शासक था अकबर?

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NCERT की कक्षा 8 की सोशल साइंस की किताब चर्चा में आ गई है. वजह है मुगल पीरियड और इस दौरान के मुगल शासकों के शासन की नई तरह की समीक्षा. ये किताब 2025-26 एकेडमिक सेशन से ही स्‍कूलों में लागू होगी और इसमें अकबर के काल को कुछ क्रूर और कुछ सहिष्णु के तौर पर बांटा है.

यह पुस्तक, "एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडिया एंड बियॉन्ड" सीरीज का हिस्सा है, जो अकबर के शासन को क्रूरता और सहिष्णुता का मिश्रण बताती है, खास तौर पर इसमें अकबर के शासन काल के दौरान चित्तौड़गढ़ में हुए 30,000 लोगों के नरसंहार का भी उल्लेख है. 

क्या हुआ है किताब में बदलाव?
अकबर के शासन को किताब में क्रूरता और सहिष्‍णुता का मिश्रण बताया गया है. इसमें लिखा है कि 1568 में चित्तौड़ के किले की घेराबंदी के दौरान अकबर ने लगभग 30,000 नागरिकों की हत्या और बचे हुए महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाने का आदेश दिया था. किताब में जो विश्लेषण दिया गया है, उसका संदर्भ अकबरनामा और अबुल फजल के लेखों और दस्तावेजों से लिया गया है. 

NCERT की ओर से किए गए इन बदलावों के बाद एक बार फिर मुगल बादशाह अकबर और उसके शासन का दौर चर्चा में आ गया है. हालांकि मुगलिया दौर हमेशा ही चर्चा की वजह बनता रहा है. बीते दिनों छावा फिल्म के रिलीज होने के बाद मुगल सम्राट औरंगजेब काफी चर्चा में रहा था. इसके पहले अकबर का दौर भी महाराणा प्रताप के साथ हुए उसके युद्ध के कारण चर्चा में बना ही रहता है. स्कूल की पाठ्य पुस्तक में बदलाव के बाद एक बार फिर ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर अकबर कैसा बादशाह था? क्रूर या सहिष्णु. 

चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी... एक क्रूर इतिहास
प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व के शोधार्थी डॉ. अंकित जायसवाल बताते हैं अकबर का शासनकाल कई अलग-अलग घटनाओं का मिला-जुला इतिहास है, इसलिए किसी एक घटना से उसके पूरे शासनकाल या व्यक्तित्व का निचोड़ नहीं निकाला जा सकता है. वह NCERT की ही पुरानी किताब के इतिहास के हवाले से बताते हैं कि  "चित्तौड़ में किसानों और योद्धाओं का जो कत्लेआम हुआ वह अकबर के शासनकाल में पहला और अंतिम अवसर था", इसी से इस घटना की क्रूरता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

...जब किले के भीतर हुआ था तीस हजार लोगों का कत्लेआम
वह कहते हैं कि लगभग सभी इतिहासकार चित्तौड़ में लगभग 30000 लोगों के नृशंस कत्लेआम को अकबर के छवि पर एक बड़ा धब्बा ही मानते हैं. अकबर को भी बाद में अपराधबोध हुआ था, तभी तो उसने जयमल और फत्ता की हाथी पर बैठी पत्थर की मूर्तियां आगरे के अपने किले के दरवाजे पर लगवाई थी. इसे अकबर के पश्चाताप के तौर पर देखा जाता है. हालांकि कोई पश्चाताप किसी कत्लेआम से बड़ा नहीं हो जाता है. समय आने पर इतिहास उसका जिक्र क्रूर अध्याय के तौर पर करता ही है. 

अकबर के जीवन काल में कई ऐसे युद्ध हुए जिनका परिणाम जिस तरह से सामने आया वह अकबर को क्रूर शासक के तौर पर स्थापित करता है. चित्तौड़ गढ़ के दुर्ग पर किया गया अकबर का हमला-घेराबंदी और नृशंस हत्याकांड इसके सबसे क्रूर उदाहरण के तौर पर देखा जाता है. 

Akbar The Great

मेवाड़ की स्वतंत्रता और अबुल फजल की टिप्पणी
इतिहास से जुड़े सोर्स और संदर्भों की मानें तो सन् 1562 तक अकबर ने या तो कई राजपूती इलाकों को जीत लिया था, या फिर किसी न किसी तरह संधि कर ली थी. आमेर के राजा भारमल भी इनमें से एक थे, लेकिन मुगलों को राजपूतों से हमेशा ही खटका रहा था और मेवाड़ अभी तक स्वतंत्र था. 

अबुल फजल इस बारे में लिखते हैं. 'मेवाड़ की बात और थी, वहां के राणा ने शहंशाह की बात मानी और न ही उनके सामने धरती की ओर देखा (यानी कभी सिर नहीं झुकाया)

फजल, लिखते हैं कि, '1567 में मिर्जा और उज़्बेक रईसों के विद्रोह को संभालने के बाद, अकबर ने अपनी आंखें राजस्थान और उसके राज्य मेवाड़ की ओर फिरा दीं. घेराबंदी से पहले, आसफ खान और वजीर खान के नेतृत्व में मुगलों ने मांडलगढ़ पर हमला किया और विजय पाई, जहां रावत बलवी सोलंगी को हराया गया था.

चित्तौड़गढ़ किले की घेराबंदी
20 अक्टूबर 1567 को, उन्होंने चित्तौड़गढ़ के किले के पास पडाव डाला. महाराणा उदय सिंह द्वितीय चित्तौड़गढ़ के किले से पहले ही निकल चुके थे और जयमल-फत्ता की कमान में 8,000 सैनिकों और 1,000 मुश्तैरों को पीछे छोड़ते हुए वनों की गहराइयों में छिप गए थे. चित्तौड़गढ़ पहुंचने के बाद,  शहंशाह ने राणा के इलाके को लूटने के लिए आसफ खान को रामपुर और हुसैन कुली खान को उदयपुर और कुंभलगढ़ भेजा. काफी छापेमारी के बावजूद उदय सिंह नहीं मिले. 

वर्तमान राजस्थान में स्थित चित्तौड़गढ़, एक विशाल पहाड़ी किला था और मेवाड़ का केंद्र था. 700 एकड़ में फैला यह किला 180 मीटर ऊंची पहाड़ी पर था. इसने 1303 में अलाउद्दीन खिलजी और 1535 में गुजरात के बहादुर शाह के घेरों का सामना किया था. इसकी दीवारें, द्वार और प्रमुख स्मारक 7वीं से 16वीं सदी के बीच बने थे.

1567 तक, अकबर ने मालवा और राजपूताना के अधिकांश हिस्सों सहित उत्तरी भारत पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था. अन्य राजपूत शासकों, जैसे अंबर और बीकानेर, ने कूटनीति और वैवाहिक गठबंधनों के माध्यम से अकबर के साथ समझौता किया था, लेकिन राणा उदय सिंह द्वितीय ने मुगल अधिपत्य स्वीकार करने से इनकार कर दिया. उनके द्वारा विद्रोही मुगल सामंतों, जैसे मालवा के बाज बहादुर, को समर्थन देने से अकबर और अधिक क्रुद्ध हो गए.

यहां मालवा के बाज बहादुर का जिक्र करना जरूरी हो जाता है. मांडू का जांबाज राजा, जिसकी रानी रूपमती अथाह सुंदरी थी, उसे भी अकबर की ही क्रूरता के आगे झुकना पड़ा और हीरा चाटकर (जहर खाकर) जान देनी पड़ी. मांडू में यह कहानी लोककथा की तरह प्रसिद्ध है.

ऐसा युद्ध जो जमीन पर ही नहीं, भूमिगत भी लड़ा गया
अक्टूबर 1567 में, अकबर 40,000 सैनिकों के साथ आगरा से चित्तौड़गढ़ की ओर बढ़ा, जिसका उद्देश्य राणा को झुकाना था. उसकी सेना तोपों, बंदूकों और घेराबंदी उपकरणों से लैस थी. सेना ने चित्तौड़गढ़ पहाड़ी के आधार पर शिविर स्थापित किया और आपूर्ति को रोक दिया.चित्तौड़गढ़ किले में, जो राजपूत गौरव का प्रतीक था, जयमल राठौड़ के नेतृत्व में 8,000 योद्धा मुगल सेना का सामना करने के लिए तैयार थे. राणा उदय सिंह द्वितीय अरावली पहाड़ियों में पीछे हट गए थे, और उन्होंने अपने विश्वसनीय सेनापति को सिसोदिया राजधानी की रक्षा का जिम्मा सौंपा था.

जल्द ही, तोपों ने गोलाबारी शुरू की, जिससे किले की 30 फुट मोटी दीवारों पर लोहे के गोले दागे गए. लेकिन किले की ऊंचाई और रक्षा प्रणाली ने मुगल सेना के प्रयासों को विफल कर दिया. जयमल के सैनिकों ने दीवारों से जवाब दिया, तीरों, बंदूक की गोली और गुलेल से पत्थरों से मुगलों पर हमला किया. रात के समय, राजपूतों ने मुगल खेमों पर छापेमारी की.

राजपूतों के प्रतिरोध और सेना की विफलता से निराश होकर, अकबर ने अपने सैनिकों को ढकी हुई खाइयों (सबात) के जरिए किले की ओर बढ़ने का आदेश दिया. मुगल सैनिकों ने किले के नीचे सुरंगें खोदीं और बारूद भरकर नींव को उड़ाने की कोशिश की. लेकिन राजपूत सतर्क थे. उन्होंने जवाबी सुरंगें खोदीं और भूमिगत युद्ध लड़ा. चित्तौड़गढ़ का युद्ध ऐसा भयानक था, जो सिर्फ जमीन पर ही नहीं, बल्कि भूमिगत भी लड़ा गया था.

हफ्ते महीनों में बदल गए, लेकिन रक्षक डटे रहे. अकबर की नींद उड़ गई, लेकिन जीत का परचम नहीं लहरा रहा था. खैर, फरवरी 1568 में, जयमल राठौड़ नहीं रहे, एक मुगलनिशानची के तीरों का निशान बन गए और उनकी मृत्यु ने रक्षकों का मनोबल तोड़ दिया और किले के पतन का संकेत दिया.

Akbar The Greatलेखक John F. Richards की किताब The Mughal Empire

...और फिर हुआ जौहर
फिर हुआ जौहर. किले की महिलाओं ने 23 फरवरी, 1568 को जौहर किया, ताकि वे मुगलों के हाथों न आएं. पुरुषों ने केसरिया वस्त्र पहने और मुगल सेना पर अंतिम हमला किया. 23-24 फरवरी, 1568 को, लगभग चार महीने की घेराबंदी के बाद, मुगलों ने ढह चुकी दीवार के हिस्से से किले में प्रवेश किया. मुगल स्रोतों का दावा है कि लगभग सभी रक्षक मारे गए, जिसमें 8,000-10,000 राजपूतों की मृत्यु हुई. लंबे प्रतिरोध से क्रुद्ध अकबर ने किले की गैर-लड़ाकू आबादी के सामान्य नरसंहार का आदेश दिया, जिसमें 20,000 से 30,000 नागरिकों की मृत्यु हुई. चित्तौड़गढ़, घायल और शांत, एक खोखली जीत के रूप में खड़ा रहा.

अकबर के इस नरसंहार के बारे में लेखक John F. Richards ने अपनी किताब The Mughal Empire में जिक्र किया है. वह कुछ ऐसे लिखते हैं कि, 'धुएं के उठते गुबारों ने संकेत दे दिया कि अब राजपूती महिलाएं जौहर संस्कार शुरू कर चुकी हैं. उनके परिवार के लोग मारे गए, स्त्रियां अकेली रह गईं और उन्होंने यह कदम उठा लिया. वे अब सर्वोच्च बलिदान में मरने के लिए तैयार हो गईं. सिर्फ एक दिन में इस संघर्ष में लगभग सभी रक्षकों की मृत्यु हो गई. मुगल सैनिकों ने 20-25,000 आम लोगों, शहर के निवासियों और आसपास के क्षेत्र के किसानों को सिर्फ इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने इस संघर्ष में राजपूतों की मदद की थी, उनके साथ लड़े थे.'

रानी फूलकुंवर और अन्य राजपूत महिलाओं ने जौहर कुंड में प्रवेश किया और अपने सतीत्व की रक्षा की. इसके बाद, राजपूत योद्धा केसरिया बाना पहनकर किले से बाहर निकले और मुगल सेना से वीरतापूर्वक लड़े, लेकिन वे मारे गए. चित्तौड़गढ़ में हुए तीन जौहरों में से यह तीसरा जौहर, राजपूतों की वीरता और बलिदान का प्रतीक है, और आज भी इसे याद किया जाता है. 

यह भी पढ़ेंः अकबर ने किले में घेरा, जहांगीर ने कटवाया, कई बार जलवाया फिर भी राख से पनप गया अक्षय वट

 ये तो हुई चित्तौड़गढ़ की बात. अकबर पर बाद के शासन काल में भी कई आरोप लगते रहे हैं. हालांकि उसके नाम यह दर्ज है कि अकबर ने जजिया कर जैसी व्यवस्थाएं बंद कीं, लेकिन दूसरी ओर उसके कुछ फैसले आलोचना का विषय भी बने. इसकी बानगी है प्रयागराज में संगम तट पर खड़ा अक्षयवट 

Prayagraj Akshaya Vat

प्रयागराज के अक्षयवट को किले में घेरा
प्रयागराज में संगमतट पर पातालपुरी मंदिर के भीतर मौजूद है अक्षयवट. इतिहासकार जिक्र करते हैं कि ये अक्षयवट कई बार आक्रांताओं के हमलों का भी शिकार हुआ. सन् 1575 में जब मुगल बादशाह अकबर प्रयाग पहुंचा तो उसे यहां की दोआबा (गंगा-यमुना से सिंचित जमीन) बहुत रास आई. अकबर ने यहां आकर आत्मिक खुशी महसूस की और फिर उसने इस स्थान पर एक किला बनाने का विचार किया. यमुना नदी के किनारे किला बनाते हुए उसने प्राचीन पातालपुरी मंदिर को भी किले के भीतर ही समेट लिया और इस तरह यह अक्षय वट भी इसके भीतरी हद में आ गया.

इस तरह अकबर ने भी किला निर्माण करते हुए इस वट वृक्ष के बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचाया. ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि अकबर ने 1583-84 में इस किले को बनवाया था और तब ही इस वट वृक्ष की फैले विस्तृत स्थल पर किले का कब्जा हो गया. वरना इसके पहले इस वट वृक्ष के चारों तरफ इसकी छाया में 1000 लोग आराम से बैठ सकते थे. अक्षयवट के मुख्य तने के किले के भीतर कैद हो जाने से लोग काफी असंतुष्ट थे और उनका ये असंतोष बाद में तब और बढ़ गया, जब आगे चलकर जहांगीर ने इसे जलवाया-कटवाया और औरंगजेब ने इसे किले के भीतर ही कैद रखते हुए लोगों की इसतक पहुंच खत्म करदी. 

हिंदुस्तानी सरजमीं पर अकबर भी अन्य राजाओं-महाराजाओं की तरह बीता हुआ समय ही हो चुका है,  लेकिन समय-समय पर उसका शासनकाल चर्चा में आ ही जाता है. अकबर क्रूर था या सहिष्णु... इतिहास का पूरा एक अध्याय इसका जवाब देने के लिए काफी है. 

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