चीन की विक्ट्री परेड सिर्फ शक्ति प्रदर्शन नहीं, ड्रैगन ने दोस्तों और दुश्मनों को दिए ये 5 बड़े संदेश

3 days ago 2

चीन ने बुधवार को द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने की 80वीं सालगिरह के मौके पर अपनी सबसे बड़ी सैन्य परेडों में से एक का आयोजन किया. हालांकि चीन ने 1951 में तीन सितंबर को जापानी के सरेंडर की तारीख को विक्ट्री डे घोषित किया था, लेकिन यह दूसरी बार है जब उसने इस मौके पर इतना भव्य आयोजन किया है. इससे पहले 2015 में '70वीं सैन्य परेड' आयोजित की गई थी. चीन इस उत्सव को इतनी धूमधाम से क्यों मना रहा है? ड्रैगन इस शक्ति प्रदर्शन के जरिए क्या संदेश देना चाहता है और यह किसके लिए है? आइए इन कुछ अहम सवालों पर गौर करें.

जापान के लिए संदेश

चीन में इस आयोजन को जापानी हमले के खिलाफ चीनी की जीत की 80वीं सालगिरह कहा जा रहा है, जो इस समारोह के जापान-विरोधी मकसद को बताता है. चीनी ऑब्जर्वर्स का कहना है कि यह आयोजन जापानी को, विशेष रूप से ताइवान मुद्दे पर, पीछे हटने की चेतावनी देने के लिए है. चीन को उम्मीद है कि शक्ति प्रदर्शन जापान को और ज्यादा संयमित बनाएगा और उसे 'ताइवान की समस्याएं जापान की समस्याएं हैं' वाला रुख अपनाने से रोकेगा.

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सूचो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और चीन वैश्वीकरण केंद्र के डिप्टी डायरेक्टर गाओ झिकाई ने तर्क दिया कि चीन को सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले देशों से संयुक्त रूप से एक बयान जारी करने का आह्वान करना चाहिए था, जिसमें जापान को अपने शांतिवादी संविधान में संशोधन करने से रोका जाए, और ताइवान के मुद्दे पर जापान को घेरने की कोशिश की जाए.

ताइवान को नसीहत

चीनी ऑब्जर्वर्स का भी मानना है कि यह आयोजन ताइवान के लिए देखने लायक है. इस शक्ति प्रदर्शन के ज़रिए चीन यह संदेश देना चाहता है कि ताइवान का प्रतिरोध 'रथ को रोकने की कोशिश कर रहे एक कीड़े' जैसा है. ताइवान स्ट्रेट के दोनों किनारों के बीच शक्ति का अंतर बहुत ज़्यादा है, और बीजिंग के मुताबिक ताइवान के लोगों को उनके ही नेताओं की ओर से युद्ध में तोप का चारा बनने के लिए धोखा दिया जा रहा है.

साथ ही विक्ट्री डे को चीन और ताइवान के साझा इतिहास के हिस्से के रूप में पेश किया जा रहा है. चीनी प्रचार में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि 'जापान ने अपने औपनिवेशिक शासन के दौरान ताइवान में चार लाख लोगों की हत्या की है', और इस तरह ताइवान के लोगों को 'कमज़ोर' कहकर उनकी निंदा की जा रही है क्योंकि वे जापान को अपना दोस्त बताते हैं जबकि चीनी को अपना विरोधी मानते हैं.

अमेरिका को दिखाई ताकत

फुडान यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर शेन यी ने कहा, 'तीन सितंबर की सैन्य परेड नए युग में ग्लोबल पावर बैलेंस के बदलाव में एक अहम घटना है.' यह चीन की मजबूत सामरिक क्षमताओं का पहला व्यापक वैश्विक प्रदर्शन है, चीनी विद्वानों का तर्क है कि इसका मकसद चीन की ताकत के आधार पर अमेरिका-चीन संबंधों में एक नई सामरिक स्थिरता स्थापित करना है.

यह चीन के सैन्य विचार 'बिना लड़े दुश्मन को काबू में करने' या 'ताकत के दम पर जंग रोकने' का भी एक तरीका है. आमतौर पर यह उम्मीद की जाती है कि शक्ति प्रदर्शन के बाद अमेरिका संयम बरतेगा, चीन के लिए कम टकराव या लापरवाही बरतेगा, और चीनी नीतियों के साथ ज्यादा तालमेल बैठाने की कोशिश करेगा.

घरेलू और वैश्विक दर्शकों के लिए संदेश

इस घटना के इर्द-गिर्द चीन के बयान गौर करने लायक हैं. चीनी मीडिया में छपे कई आर्टिकल में बीजिंग के इस कदम के वैचारिक आधार पर ज़ोर दिया गया. गुआंचा में छपे एक आर्टिकल में लिखा था, 'फासीवाद को किसने हराया? ब्रिटेन और अमेरिका ने नहीं, जैसा कि पश्चिम दावा करता है, बल्कि चीन और सोवियत संघ ने फासीवाद को हराया, जिन्होंने बड़ी कुर्बानियां दीं.'

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कई चीनी ऑब्जर्वर्स ने इस ओर ध्यान दिलाया कि कैसे यूरोपीय और अमेरिकी देशों ने द्वितीय विश्व युद्ध में चीन की ओर से चुकाई गई भारी मानवीय और भौतिक कीमत को, पैसिफिक वॉर की अंतिम विजय में चीनी युद्धक्षेत्र की अहम भूमिका को गंभीरता से कम करके आंका है. यहां तक कि नज़रअंदाज़ भी किया है. चीनी ऑब्जर्वर्स ने ऐलान किया कि युद्ध का असली सार समाजवादी देशों की ओर से साम्राज्यवादी राष्ट्रों को हराना था, और आज के चीन में भी यही संघर्षशीलता जारी है. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि समाजवाद, साम्राज्यवाद को उसके सभी रूपों में हराकर रहेगा, चाहे वह फ़ासीवाद हो या ट्रंप के टैरिफ.

आखिर में इस आयोजन के जरिए बीजिंग अपने शक्ति प्रदर्शन और पोस्ट वॉर वर्ल्ड ऑर्डर के मुख्य गारंटर के रूप में अपनी भूमिका को मजबूत करना चाहता है. चीनी विद्वानों का मानना है कि आज, 1900 के बाद पहली बार ग्लोबल जीडीपी में सबसे धनी साम्राज्यवादी देशों का हिस्सा करीब 50 प्रतिशत से घटकर 31 प्रतिशत रह गया है और ग्लोबल साउथ के उदय के साथ उनकी आर्थिक पकड़ कमज़ोर होती जा रही है. चीन इस ग्लोबल साउथ को अपने नेतृत्व में एकजुट करने की कोशिश कर रहा है. इस आयोजन के दौरान रूस और नॉर्थ कोरिया जैसे देशों के साथ अपने गठबंधन का प्रदर्शन करते हुए, चीन का मूल मकसद एक मल्टीपोलर वर्ल्ड को मजबूत करना है, जिसमें चीन एक पावर सेंटर के रूप में काम करेगा.

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कुल मिलाकर, चीन को उम्मीद है कि शक्ति का यह विशाल प्रदर्शन उसे दुनियाभर में और दोस्त बनाने में मदद करेगा, और जो लोग अभी तक तय नहीं कर पाए हैं, उनके लिए यह संदेश साफ़ होगा कि समय चीन के पक्ष में है. आंतरिक रूप से भी, इससे लोगों को राष्ट्रीय ध्वज के इर्द-गिर्द एकजुट होने में मदद मिलेगी, जिससे चीनी अर्थव्यवस्था के सामने आने वाली चुनौतियों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाएगा.

जहां तक भारत का सवाल है, वह इस पूरे मामले में काफ़ी सोच-समझकर रुख अपनाता दिख रहा है. भारत-अमेरिका के बीच बढ़ते व्यापारिक तनाव के बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेकर और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अहम द्विपक्षीय बैठकों में शामिक होकर अपनी हाई-प्रोफाइल चीन यात्रा पूरी की. हालांकि, उन्होंने अगले ही दिन निर्धारित चीन की सैन्य परेड में हिस्सा नहीं लिया, साथ ही चीन पहुंचने से ठीक पहले जापान की एक बेहद सफल यात्रा भी की. ऐसा लगता है कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता पूरी तरह से सामने आ रही है.

(अंतरा घोषाल सिंह ORF, नई दिल्ली में फेलो हैं. उन्होंने चीन के नेशनल त्सिंग हुआ यूनिवर्सिटी से स्नातक किया है और ताइवान के नेशनल सेंट्रल यूनिवर्सिटी में चीनी भाषा फेलो रही हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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