जगन्नाथ प्रभु का रथ और हमारे जीवन का पहिया... जिंदगी की उधेड़बुन के बीच क्या सिखाती है रथयात्रा?

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ओडिशा के पुरी जगन्नाथ में रथयात्रा का महोत्सव जारी है. भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ मौसी गुंडिचा के घर पहुंचे हुए हैं और यहां वह कुछ दिन निवास करते हैं. इस दौरान श्रीमंदिर के बजाय गुंडिचा धाम में ही उनकी पूजा होती है. इसके बाद वह जब श्रीमंदिर में लौटते हैं तो इसे बाहुदा या बहुड़ा रथयात्रा कहते हैं. ओडिया में बहुड़ा का अर्थ होता है वापसी.

ओडिशा की प्राचीन परंपरा है रथयात्रा

खैर, रथयात्रा ओडिशा की प्राचीन परंपरा है और यह सिर्फ ओडिशा का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती है, बल्कि यह प्राचीन काल से चली आ रही ऐसी विरासत है जो अब भारतीय संस्कृति का पहचान है. रथयात्रा को सिर्फ एक देवत्व की यात्रा या विलासिता से भरे परिवहन के साधन के तौर पर नहीं देखना चाहिए, बल्कि रथयात्रा अपने आप में एक दर्शन है और जीवन के कई मूलमंत्रों को बहुत ही सहज ढंग से सिखाने का काम करती है.

सबसे प्राचीन परिवहन के साधन हैं रथ

रथों का वर्णन भारत के सबसे प्राचीन परिवहन के साधन के तौर पर मिलता है. वैदिक परंपरा में जहां पहियों के इस्तेमाल का जिक्र आता है, वहीं राजाओं द्वारा अलग-अलग अलंकारों से सजे रथों का जिक्र भी मिलता है, कहीं-कहीं तो प्राचीन रथों का वर्णन ऐसा मिलता है कि वह सोने-चांदी के पत्तरों से मढ़े हुए थे और इनमें कीमती रत्न भी जड़े हुए थे. साल 2014-2018 के बीच उत्तर प्रदेश के बागपत में मौजूद सनौली क्षेत्र में खुदाई हुई थी, जिसमें से मिट्टी में दबा पूरा का पूरा रथ मिला था.

Rathyatra Odisha

बागपत में खुदाई के दौरान निकला था प्राचीन रथ

इस रथ की एतिहासिकता और भित्तीय प्रमाण इसे महाभारत काल के आस-पास का ठहराते हैं. बागपत का प्राचीन नाम व्याघ्रपत बताया जाता है, कुछ इसे वारणावत से भी जोड़ते हैं और पांडवों को जिस लाक्षागृह में जलाकर मारने की साजिश रची गई थी, वह भी यहां के बरनावा में है, जहां एक प्राचीन गुफा है, जिसे लाक्षागृह स्थल बताया जाता है. इसलिए इस दावे को और भी बल मिलता है कि हो न हो यह रथ महाभारत काल का हो सकता है.

अध्यात्म में रथ के क्या हैं मायने?

हालांकि रथ किसी भी काल का हो, लेकिन अध्यात्म में रथ को सिर्फ परिवहन के एक साधन के तौर पर नहीं बल्कि 'जीवन की एक सीख' के तौर पर देखा गया है. रथ को निरंतरता का प्रतीक माना गया है. इसके पहिए इस बात का भी प्रतीक हैं कि समय या कालचक्र किसी के लिए नहीं रुकते और हमेशा से आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं. एतरेय ब्राह्मण ग्रंथ में एक सूक्ति है 'चरैवेति चरैवेति' यानी चलते रहो-चलते रहो. एक ही शब्द को दो बार प्रयोग करने की क्या जरूरत रही होगी? असल में यह रथ के दोनों पहियों के लिए किया गया समान संबोधन है, अगर जीवन में लक्ष्य को पाना है तो एक समान गति से चलते रहना होगा.

गृहस्थ जीवन की सीख देता है रथ

पारिवारिक जीवन में गृहस्थ जीवन को भी गाड़ी की संज्ञा दी गई है, जहां पति-पत्नी इसके एक-एक चक्के के तौर पर बताए गए हैं. दोनों में से एक भी चक्का डिगा तो परिवार बेपटरी हो जाएगा. इसका उदाहरण सूर्य से भी लिया जाता है, जहां सूर्य देव लगातार अपने रथ पर आकाश के परिक्रमा पथ पर चल रहे हैं, बिना रुके. कुछ भी हो जाए, उनका रथ नहीं रुक सकता. दिन और रात उनके रथ के दो पहिए हैं और मन ही उनके रथ की रास है, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उनके चार घोड़े हैं. इन पर काबू करके ही सूर्य देव का रथ लगातार सफल जीवन की ओर बढ़ रहा है. गृहस्थों को उनसे सीखना चाहिए.

वेद-पुराणों में मौजूद रथों का दर्शन शास्त्र

रथ के इस दर्शन शास्त्र को वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों से निकालकर पुराण कथाओं में और भी सुंदर व्याख्या और सुंदर उदाहरणों के साथ दर्शाया गया है. रामायण और महाभारत दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिनके हर प्रसंग जीवन को कसौटी पर कसते हैं. इनमें रथ के दर्शन शास्त्र का उल्लेख बहुत विस्तार से हुआ है. रामचरित मानस में भी इसकी झलक मिलती है. श्रीराम और रावण के निर्णायक यु्द्ध के पहले का प्रसंग है. राम, अपने शत्रु रावण से युद्ध के लिए आगे बढ़ते हैं, उधर रावण भी मैदान में आ डटा है.

कैसा था श्रीराम का रथ?

विभीषण, श्रीराम की ओर देखते हैं और चिंतित हो जाते हैं. वह श्रीराम से कहने लगे कि, 'प्रभु! आपके पास न रथ है, न कवच न जूते ही हैं तो आप रावण को कैसे जीत सकेंगे. विभीषण की इन अधीर बातों को सुनकर श्रीराम मुस्कुरा कर बोले- 'हे मित्र विभीषण, आप अधीर न हों, मैं जिस विजय रथ पर हूं वह साधारण नहीं है. जिससे रावण का हराना है, और उस पर विजय पानी है वह रथ दूसरा ही है.

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इसके बाद श्रीराम ने अपने उस दिव्य रथ का वर्णन किया. उन्होंने उस रथ की जैसी विशेषताओं को बताया है, हम और आप उसे जानते भी हैं और समझते भी हैं, केवल उसे जीवन में अपनाना ही कठिन हो जाता है. श्रीराम ने अपने दिव्य रथ का वर्णन किस तरह किया, देखिए, संत तुलसीदास चौपाई में क्या लिखते हैं...

सौरज धीरज तेहि रथ चाका. सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे. छमा कृपा समता रजु जोरे॥

श्रीराम बताना शुरू करते हैं कि वह जिस तरह के रथ पर हैं, शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं. सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं. बल, विवेक, इंद्रियों का वश में होना और परोपकार, ये चार उसके घोड़े हैं. ये घोड़े क्षमा, दया और समता की डोर से रथ में जुते हुए हैं. ईश्वर का भजन ही उस रथ का कुशल सारथी है. वैराग्य ही ढाल है और संतोष तलवार है. दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है. निर्मल और अचल-स्थिर मन तरकस के जैसा है. मन का वश में होना, अहिंसा यम-नियम और शुचिता ये बहुत से बाण हैं. ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है. यही विजय का उपाय है.

संत तुलसीदास लिखते हैं कि...

ईस भजनु सारथी सुजाना. बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा. बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥

अमल अचल मन त्रोन समाना. सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा. एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥

इसके बाद श्रीराम, विभीषण को समझाते हुए कहते हैं कि, हे विभीषण! आप अधीर मत होइए. इस तरह का धर्मपरायण रथ जिसके पास होता है तो संसार का कोई भी शत्रु उसके सामने नहीं टिकता है. यह मेरा रथ अजेय है और इस रथ के जरिए मनुष्य जीवन और मृत्यु जैसे शत्रु को भी जीत सकता है.

महाभारत में रथ का वर्णन

रथ का दूसरा वर्णन महाभारत में मिलता है. जहां इस शरीर को ही रथ बताया गया है. मन को चंचल घोड़े बताया गया है, बुद्धि को सारथी और, इंद्रियों पर वश को ही घोड़ों से जुती रास (रस्सी) बताया गया है.

श्रीकृष्ण शोकग्रस्त अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं...

एवं बुद्धः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना .
जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् 

इस प्रकार हे महाबाहु! आत्मा को बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान के इस रथ पर चढ़कर कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो.

श्रीकृष्ण यहां जोर देकर कहते हैं कि, हमें आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी शत्रु का संहार करना चाहिए. क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है और यह दिव्य शक्ति है. संसार के सभी पदार्थ भौतिक हैं. ये भौतिक पदार्थ आत्मा की स्वाभाविक उत्कंठा को कभी पूरा नहीं कर सकते इसलिए इनको प्राप्त करने की कामना करना व्यर्थ ही है. इसलिए परिश्रम करते हुए हमें बुद्धि को इसी अनुसार कार्य करने का प्रशिक्षण देना चाहिए और फिर मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए.

कठोपनिषद् में रथ के ही आधार पर इस बात को और भी विस्तार से समझाने की कोशिश की गई है.

'आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु.
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्.
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः (कठोपनिषद)

यह उपनिषद कहता है कि एक रथ है जिसे पांच घोड़े खींच रहे हैं. उन घोड़ों के मुख में लगाम पड़ी है. यह लगाम रथ के सारथी के हाथ में है और रथ के पीछे आसन पर यात्री बैठा हुआ है. यात्री को चाहिए कि वह सारथी को सही निर्देश दे जो लगाम को नियंत्रित कर घोड़ों को सही दिशा की ओर जाने में मार्गदर्शन दे सके. यदि यात्री सो जाता है तब घोड़े निरंकुश हो जाते हैं.

दर्शन शास्त्र में शरीर है रथ का रूपक

इस रूपक मनुष्य का शरीर ही रथ है, घोड़े पांच इन्द्रियां हैं और घोड़ों के मुख में पड़ी लगाम मन है. सारथी बुद्धि है और रथ में बैठा यात्री शरीर में वास करने वाली आत्मा है. इन्द्रियां (घोड़े) अपनी पसंद के पदार्थों की कामना करती हैं. मन (लगाम) इन्द्रियों को मनमानी करने से नहीं रोक पाता. बुद्धि (सारथी) मन (लगाम) के सामने घुटने टेक देता है. इस प्रकार मायाबद्ध आत्मा बुद्धि को उचित दिशा में चलने का निर्देश नहीं देती. इसलिए रथ को किस दिशा की ओर ले जाना है, इसका निर्धारण इन्द्रियां अपनी मनमानी के अनुसार करती हैं. आत्मा इन्द्रियों के सुखों का अनुभव करती है, लेकिन ये इन्द्रियां उसे तृप्त नहीं कर पाती.

इसी कारण से रथ के आसन पर बैठी आत्मा (यात्री) इस भौतिक संसार में अनन्त काल से चक्कर लगा रही है. यदि आत्मा अपनी दिव्यता के बोध से जागृत हो जाती है और अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करने का निश्चय करती है तब वह बुद्धि को उचित दिशा की ओर ले जा सकती है. तब फिर बुद्धि अपने से  मन और इन्द्रियों द्वारा शासित नहीं होगी और रथ आत्मिक उत्थान की दिशा में दौड़ने लगेगा. इसलिए आत्मा द्वारा इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए.

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गीता में भी मानव शरीर को दी गई है रथ की उपमा

गीता में भी शरीर को रथ की उपमा देते हुए कहा गया है कि इन्द्रियां इसके घोड़े हैं, मन सारथी और आत्मा स्वामी है. शरीर और मन का संबंध शासित और शासक जैसा है. शरीर वही कुछ करता है, जिसका मन निर्देश देता है. मन जिधर लगाम खींचता है, शरीर रथ के घोड़े उसी दिशा की ओर दौड़ पड़ते हैं. ऐसा कोई शारीरिक क्रियाकलाप नहीं, जो मन की इच्छा के विपरीत होता हो. जिसकी आज्ञा के बिना कोई काम न हो, उसे मालिक नहीं, तो और क्या कहेंगे?

शरीर में ऐसा कोई अंग अवयव नहीं, जो मन की उपेक्षा कर सके. मन से बलवान आत्मा है, इससे ज्यादा ताकतवर शरीर में कोई नहीं. श्रीकृष्ण का संदेश स्पष्ट है, अपने मन को संयमित करें, इंद्रियों को नियंत्रित करें, और कर्म पर ध्यान दें, न कि फल पर. आसक्ति, इच्छा और क्रोध के चक्र से बचने के लिए, अपने मन को उस क्षण ही वापस ले आएं जब वह भटकने लगे. यह न केवल मन की शांति देता है, बल्कि आपको अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य की ओर ले जाता है.

क्या है पुरी की रथयात्रा का वास्तविक संदेश?

रथ बेशक एक प्राचीन वाहन था जो विशेष धातुओं और तत्वों से बना था, हो सकता है कि वह आज की तुलना में कहीं अधिक वैज्ञानिक रूप से उन्नत रहा हो. हर देवता के पास एक रथ था जो जमीन, आकाश और जल में यात्रा कर सकता था. यह जादुई रथ हमें क्या संदेश देते हैं? रथ के पहिए जीवन के पहियों के प्रतीक हैं, सड़क 'बड़ा दांडा' निर्वाण (जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति) का मार्ग है, और रथ वह स्थान है जहां हम खड़े हैं. भगवान अपनी वार्षिक यात्रा के माध्यम से हमें वही संदेश दे रहे हैं, जो उन्होंने अर्जुन को दिया था. रथयात्रा हर साल निकल रही है, इस बार भी निकली है, आगे भी निकलेगी, लेकिन क्या हम रथयात्रा के मर्म को समझ पा रहे हैं? क्या हमारा जीवन रथ सही दिशा में है? सवाल अपने आप से पूछने की जरूरत है.

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