साल 1884 में जब हेनरी मैक्सिम ने 'मैक्सिम मशीन गन' का अविष्कार किया तब घुड़सवार हमलों को युद्ध में अप्रचलित माना जाने लगा. लेकिन 23 सितंबर 1918 को, वर्तमान इजरायल के हाइफा शहर में, इतिहास में पहली और आखिरी बार जोधपुर लांसरों की घुड़सवार टुकड़ी ने भाले और तलवारों के साथ हमला कर तुर्की की मजबूत मोर्चाबंदी को ध्वस्त कर दिया.
इस ऐतिहासिक जंग को 'हाइफा का युद्ध' (Battle of Haifa) कहा जाता है, जिसमें जोधपुर लांसर्स ने अहम भूमिका निभाई थी. इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हुए, जिनकी बहादुरी ने 400 साल पुराने तुर्की शासन का अंत कर दिया. इस हमले में मैसूर और हैदराबाद की सेनाएं रिजर्व में थीं जबकि अग्रिम मोर्चे पर जोधपुर लांसर्स ने ही नेतृत्व किया.
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आज भी शहीदों को श्रद्धांजलि देता है इजरायल
आज भी इजरायल हर साल उन भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देता है जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में हाइफा को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया. इस लड़ाई में कैप्टन अमन सिंह जोधा और मेजर दलपत सिंह शेखावत ने निर्णायक भूमिका निभाई. जब मेजर दलपत सिंह दुश्मन की गोली से घायल हुए, तब कैप्टन अमन सिंह ने सैनिकों का नेतृत्व करते हुए हाइफा शहर को आजाद कराया.
तोपों पर भारी पड़ीं तलवारें
भारतीय सैनिकों के हाथों में सिर्फ तलवारें और भाले थे, जबकि तुर्कों के पास मशीनगन और तोपें थीं- फिर भी यह घुड़सवार हमला सफल रहा. सेना के लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) अभय कृष्ण का कहना है, 'भारतीय सेना का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से इसे वैश्विक स्तर पर कभी उचित सम्मान नहीं मिला. आज की युवा पीढ़ी भी इस महान इतिहास से अनजान है.'
वो बताते हैं, 'ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी, ऑस्ट्रो-हंगेरियन और ओटोमन (तुर्की) साम्राज्य के खिलाफ कई निर्णायक लड़ाइयां लड़ीं. लेकिन क्या कोई पूछता है कि ये जीत किस कीमत पर मिली? लगभग 74,000 भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी. दुख की बात है कि आज अमेरिका और ब्रिटेन में भी इस बलिदान को भुला दिया गया है.'
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बड़ी संख्या में तुर्कों और जर्मनों ने किया सरेंडर
हाइफा की लड़ाई में तुर्कों और जर्मनों ने बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण किया. इस युद्ध में 8 भारतीय सैनिक शहीद हुए और 34 घायल हुए, जबकि 1,350 से अधिक तुर्क और जर्मन सैनिकों को बंदी बनाया गया. इनमें 23 ओटोमन अधिकारी, 2 जर्मन अधिकारी और 664 अन्य सैनिक शामिल थे. तुर्कों के कुल हताहतों का आंकड़ा आज भी अज्ञात है.
इतिहास में इससे पहले या बाद में कभी भी कोई घुड़सवार हमला इस तरह सफल नहीं रहा. जोधपुर लांसर्स ने असंभव को संभव कर दिखाया, और युद्ध के इतिहासकार आज भी इस अभूतपूर्व साहस को समझने में हैरान हैं.