तिब्बत के निर्वासित और वरिष्ठ बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा के जन्मदिन की तारीख नजदीक आ गई है और इसी के साथ लामा के उत्तराधिकार का सवाल तिब्बत और चीन के विवाद के रूप में गहराता जा रहा है. जहां चीन का कहना है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी को उसकी मंजूरी लेनी होगी तो वहीं दलाई लामा पहले ही कह चुके हैं कि उनका उत्तराधिकारी आजाद दुनिया से होगा, हालांकि वह कौन होगा, अभी साफ नहीं है.
इस पूरे विवाद और चर्चा में उठे मुद्दे के बीच तिब्बती बौद्ध धर्म के साथ बौद्ध स्थलों के बारे में जानना बहुत दिलचस्प है. तिब्बत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में ऐसे कई स्थल हैं जिनमें एक है ल्हामो लात्सो सरोवर. तिब्बती बौद्ध धर्म में इस सरोवर का खास महत्व है. यह सरोवर न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि तिब्बत के लोगों के लिए जीवन-आत्मा (ला) का केंद्र भी मानी जाती है.
तिब्बत की रक्षक देवी
तिब्बती परंपरा, जो बौद्ध धर्म से भी प्राचीन है, वह ऐसा मानती है कि हर एक व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र की एक "जीवात्मा" होती है, जिसे "ला" कहा जाता है. यह "ला" प्राकृतिक तत्वों जैसे पर्वतों, सरोवरों, पेड़ों आदि में निवास करती है. अगर इस "ला" के निवास स्थान को कोई नुकसान पहुंचता है, तो इससे संबंधित व्यक्ति, परिवार या राष्ट्र को सीधा प्रभाव पड़ता है. ल्हामो लात्सो, जिसे "देवी का जीवात्मा सरोवर" कहा जाता है, तिब्बत की जीवन और आत्मा का प्रतीक है. इस सरोवर की रक्षा खुद ही पेल्डेन ल्हामो करती हैं, यह तिब्बत की रक्षक देवी हैं.
ल्हामो लात्सो के आध्यात्मिक पहलू पर कई लेखकों ने कलम चलाई है. इन्हीं में से एक है, कीथ डाउमन अपनी पुस्तक "द पावर-प्लेसेस ऑफ सेंट्रल तिबेट: द पिलग्रिम्स गाइड" में लिखते हैं कि यह सरोवर तिब्बत की रक्षक देवी पेल्डेन ल्हामो का पवित्र निवास है. इस सरोवर को "ल्हामो लात्सो" या "जीवन-आत्मा सरोवर" कहा जाता है, और इसे पेल्डेन ल्हामो की विशेष अभिव्यक्ति, ग्येल्मो मक्सोरमा (शत्रुओं को परास्त करने वाली विजयी देवी) के साथ जोड़ा जाता है. पेल्डेन ल्हामो को भारतीय देवी काली के साथ भी जोड़ा जाता है, जो महादेव की शक्ति हैं. इस सरोवर को पेल्डेन ल्हामो कालीदेवी के नाम से भी जाना जाता है, जो इसकी भारतीय और तिब्बती परंपराओं के मेल को सामने रखता है. ल्हामो लात्सो का विशेष महत्व दलाई लामाओं के लिए भी है.
इसे दलाई लामाओं के लिए भी "जीवन-आत्मा सरोवर" कहा जाता है. अधिकांश दलाई लामाओं ने अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार इस सरोवर की तीर्थयात्रा की, विशेष रूप से अपनी गेशे परीक्षा पूरी करने के बाद और राजनीतिक दायित्व संभालने से पहले. इस सरोवर के जरिए भविष्य की घटनाओं, उनके करियर और मृत्यु के तरीके के बारे में जानकारी प्राप्त करने की शक्ति हासिल होने की बात कही जाती है. इसके अलावा, यह सरोवर दलाई लामा के पुनर्जनन की खोज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
दलाई लामा के खोज में महत्वपूर्ण भूमिका
रीजेंट्स (शासक जो दलाई लामा के पुनर्जनन की खोज करते हैं) इस सरोवर में दर्शन प्राप्त करने के लिए आते थे, जिसमें पुनर्जनन के स्थान और प्रकृति की जानकारी मिलती थी. आज भी, तिब्बत के विभिन्न हिस्सों से तीर्थयात्री इस सरोवर की यात्रा करते हैं ताकि अपने देश और व्यक्तिगत भविष्य की झलक प्राप्त कर सकें.
त्सेपोन डब्ल्यू.डी. शकब्पा अपनी पुस्तक "तिब्बत: अ पॉलिटिकल हिस्ट्री" में इस झील के बारे में लिखते हैं कि, “शिगात्से में ताशील्हुनपो का महान मठ गेदुन त्रुप्पा द्वारा 1447 में स्थापित किया गया था, जिसमें दर्ग्यास पोन पाल्ज़ांग ने वित्तीय सहायता की थी. उनकी मृत्यु 1474 में 84 वर्ष की आयु में ताशील्हुनपो में हुई. अगले वर्ष, गेदुन ग्यात्सो का जन्म त्सांग में तनाग सेग्मे में हुआ. उन्हें गेदुन त्रुप्पा का अवतार माना गया और मरणोपरांत उन्हें दूसरे दलाई लामा के रूप में जाना गया.
1509 में, गेदुन ग्यात्सो ने चखोर्ग्याल मठ की स्थापना की, जो ल्हासा से लगभग 90 मील दक्षिण-पूर्व में स्थित है, जहां एक झील है जिसके प्रतिबिंबों में भविष्य की घटनाओं की भविष्यवाणी करने की ख्याति है. कहा जाता है कि तेरहवें और चौदहवें दलाई लामा के अवतारों की खोज से संबंधित भविष्यवाणियां इस झील के प्रतिबिंबों में देखी गई थीं. गेदुन ग्यात्सो की मृत्यु 1542 में 65 वर्ष की आयु में द्रेपुंग मठ में हुई.”
कैसे होती है झील की यात्रा
ल्हामो लात्सो की तीर्थयात्रा, जो चम्सिंग पर्वत के पास चोखोर्ग्याल से शुरू होती है, एक आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण यात्रा है जो आकर्षक प्राकृतिक दृश्यों से होकर गुजरती है. चट्टानी लाल रंग के ल्हामोन्यिंग पर्वत को पार करने के बाद तीन से चार घंटे की पैदल यात्रा के बाद, तीर्थयात्री योनि झील तक पहुंचते हैं, जो अपने हीरे के आकार और पवित्रता के लिए प्रसिद्ध है. 5,300 मीटर की ऊंचाई पर, झील के ऊपर की चट्टान, जिसे दलाई लामा का सिंहासन कहा जाता है, ऐतिहासिक रूप से भविष्यवाणी के लिए उपयोग की जाती थी.
चुनौतीपूर्ण भूभाग के बावजूद, तीर्थयात्री झील के चारों ओर कोर्रा, यानी परिक्रमा करते हैं. यह मार्ग अन्य पवित्र स्थलों जैसे दक्ल्हा गम्पो और डेमचोक त्सो से भी जुड़ा है, जो तिब्बत की गहन आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है. कीथ डाउमैन अपनी पुस्तक में लिखते हैं- “ल्हामो लात्सो का रास्ता चोखोर्ग्याल से चम्सिंग पर्वत के उत्तरी किनारे पर शुरू होता है, जो ल्हामोन्यिंग नामक लाल पर्वत के आधार पर उत्तर की ओर मुड़ता है. जब वह तीन या चार घंटे तक घाटी में उत्तर की ओर चलता है तो रास्ते में आधे रास्ते पर योनि झील है, जो एक हीरे के आकार का तालाब है, जो हिमनदों से बनता है. घाटी के शीर्ष पर एक चट्टानी रिज है, जिस पर दलाई लामा का सिंहासन बनाया गया है, और इस ऊंचाई से तिब्बत के दिव्य शासक एक बार बैठकर 150 मीटर नीचे और एक किलोमीटर सामने झील में भविष्य का दर्शन करने के लिए देखते थे.
कहां स्थित है झील
झील के पूर्वी छोर पर मक्सोरमा को समर्पित एक मंदिर था, जिसका स्थान अब प्रार्थना झंडों और तीर्थयात्रियों के भेंटों द्वारा चिह्नित है. सिंहासन जिस रिज पर बना है, वह लगभग 5,300 मीटर की ऊंचाई पर है, जो वर्ष के अधिकांश समय हिमरेखा से ऊपर रहता है. हालांकि, झील के चारों ओर एक कोर्रा पथ मौजूद है. झील को निकालने वाली धारा न्ये चू की एक सहायक नदी है. न्ये घाटी, दक्ल्हा गम्पो से होकर, त्सांगपो तक उतरती है, जिसे ल्हामो लात्सो से तीन दिनों में पहुंचा जा सकता है. दक्पो में छह से आठ दिनों की कोर्रा, जो दक्ल्हा गम्पो से शुरू और समाप्त होती है, में ल्हामो लात्सो, डेमचोक की पवित्र झील डेमचोक त्सो, और द्रोलमा के इक्कीस रूपों से संबंधित इक्कीस चोटियां और झीलें शामिल हैं. इनमें से एक झील ग्येलोंग ला के पश्चिमी किनारे पर इसके ठीक नीचे स्थित है.”
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