किसी भी भौगोलिक क्षेत्र या समुदाय के लोगों के इतिहास, संस्कृति, परंपराओं को दर्शाने के लिए पारंपरिक वेशभूषा होती है. ऐसे ही नेपाल की भी एक पारंपरिक वेशभूषा है जिसे दौरा सुरुवाल कहा जाता है. दौरा सुरुवाल नेपाल की पारंपरिक पोशाक है, जिसकी जड़ें पहाड़ों से होती हुई पेशावर, कश्मीर और अफ़गानिस्तान होते हुए नेपाल तक फैली हुई हैं. इसका इतिहास बहुत पुराना और काफी दिलचस्प है, जो हमें मध्य एशियाई और मध्य पूर्वी परिधान संस्कृतियों से जोड़ता है. खासकर हिंदुकुश पर्वत क्षेत्र से इसका विकास शुरू हुआ ऐसा माना जाता है, जहां से इसे डिजाइन और स्वरूप मिला. आज हम आपको नेपाली दौरा सुरुवाल के बारे में कुछ खास बातें बताते हैं.
दौरा सुरुवाल में क्या-क्या चीजें होती हैं शामिल?
दौरा (Daura), जिसे कभी-कभी 'लबेडा' भी कहा जाता है, एक प्रकार की बनियान की तरह होता है, जो शरीर के ऊपरी हिस्से पर पहना जाता है. यह आठ हिस्सों से मिलकर बना होता है और इसे चार टाई से बांधा जाता है. दो टाई कंधों के पास और दो कमर के आसपास. सुरुवाल (Suruwal), नेपाली भाषा में पायजामा के समान है, जो कमर से शुरू होकर एड़ी की ओर पतलून की तरह तंग होता है. इसे पहनने के लिए कभी नाड़ा (डोरी) का इस्तेमाल होता है तो कभी इलास्टिक की पट्टी भी आसानी के लिए लगाई जाती है.
इस पोशाक के साथ खासतौर पर बगौलै टोपी या ढाका टोपी और एक कोट पहनना जरूरी होता है, जो नेपाली लुक को पूरा करता है. दौरा सुरुवाल की यात्रा मध्य एशिया के काकेशस के पहाड़ों से होकर, हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला के रास्ते नेपाल के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों जैसे जुम्ला, हुम्ला, बजुरा और बज हेंगिग जिलों तक पहुंची. इन इलाकों के ठंडे मौसम से बचने के लिए इस पोशाक को इस तरह डिजाइन किया गया कि यह गर्माहट भी दे और आरामदायक भी हो.
दौरा सुरुवाल का इतिहास?
इस पोशाक में मध्य एशियाई संस्कृति का प्रभाव साफ दिखाई देता है. मंगोलियाई, चीनी और तिब्बती लोग भी अपने कपड़ों में एक तरह की ओवरलैपिंग शैली का इस्तेमाल करते हैं. कुराती लोग भी ऊपर की ओर डबल-ब्रेस्टेड कपड़ों का उपयोग करते थे. नेपाल के दौरा सुरुवाल में भी इन सब रंगों का मेल देखने को मिलता है.
इतिहास में मल्ल वंशकालीन समय में दौरा सुरुवाल को धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व मिला. आठ टाई, जिन्हें 'अष्टमातृका-सिन्गिनी' कहा जाता है, शुभ माने जाते हैं. इसके पांच कली (प्लीट्स) पंच बुद्ध या पंच रत्न का प्रतीक हैं. उस समय के मल्ल राजा और अधिकारी इसे एक आदर्श ड्रेस के रूप में पहनते थे. दौरा सुरुवाल उस दौर में भारत के अंगरखा जैसा दिखता था, जो लंबा और खास होता था. उस समय पेटुकी (लगभग पाँच मीटर लंबा कपड़ा) कमर पर बांधना जरूरी था.
प्रिथ्वी नारायण शाह के समय दौरा सुरुवाल में ज्यादा फूलापन देखा गया, लेकिन बाद के समय में इसकी लंबाई कम होती गई. राणा शासनकाल में आधुनिक दौर का दौर आया, जब जंग बहादुर राणा को इंग्लैंड से एक जैकेट उपहार मिला और उन्होंने इसे दौरा सुरुवाल के ऊपर पहनना शुरू किया. इसी समय से दौरा सुरुवाल को औपचारिक पोशाक के रूप में अपनाया गया.
प्रधानमंत्री वीर शमशेर राणा ने इसे राष्ट्रीय पोशाक घोषित किया और सभी नेपाली नागरिकों से औपचारिक अवसरों पर इसे पहनने का आदेश दिया. तब तक आम लोगों को इसे पहनने की अनुमति नहीं थी ताकि वर्ग भेद बना रहे. बाद में, राजा त्रिभुवन और राजा महेन्द्र के शासनकाल में भी इस पोशाक की प्रासंगिकता और बढ़ गई. 2019 साल में राजा महेन्द्र ने सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए इसे पहनना अनिवार्य कर दिया.
दौरा सुरुवाल के डिजाइन में समय-समय पर छोटे-मोटे बदलाव आए, जैसे कि बालकृष्ण समाज ने इसे नेहरु कॉलर दिया. लेकिन आज भी इसकी मूल बनावट, लंबाई और आरामदायक स्वरूप वैसे का वैसा ही है.
दौरा सुरुवाल और टोपी की यह जोड़ी न केवल नेपाली संस्कृति की पहचान है बल्कि यह नेपाली जनता की धैर्यता, गर्मजोशी और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक भी है.
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