पंजाब गवर्नर कटारिया की मानें तो क्‍या राज्यपाल अपनी पार्टी का ही प्रतिनिधि होता है, राष्ट्रपति का नहीं?

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पंजाब के राज्यपाल गुलाबचंद कटारिया ने अरविंद केजरीवाल को घेरने ने के चक्कर में बीजेपी नेतृत्व को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है.

राज्यपाल गुलाबचंद कटारिया आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के मुकाबले पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को अच्छा नेता बताने की कोशिश कर रहे हैं. वो समझाना चाहते हैं कि भगवंत मान और उनका रिश्ता वैसा बिल्कुल नहीं है, जैसा अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री रहते, दिल्ली के उप राज्यपाल के साथ देखा गया है. 

पंजाब के राज्यपाल और चंडीगढ़ के प्रशासक गुलाबचंद कटारिया का कहना है, मेरे राज्यपाल रहते हुए कभी मुख्यमंत्री से टकराव नहीं हुआ… फाइलों पर उल्टी-सीधी बातें लिखने के क्रम को मैंने तोड़ा है. पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को लेकर वो कहते हैं,  मेरा वो पूरा सम्मान करते हैं… मैं भी सम्मान करता हूं.

राज्यपाल कटारिया की बातों से ऐसा लगता है जैसे वो पंजाब सरकार के कामकाज में अरविंद केजरीवाल के हस्तक्षेप से असहज महसूस करते हो, लेकिन वो ऐसी चीजों को नेताओं की पार्टी नेतृत्व के सामने मजबूरी के रूप में देखते हैं. 
और बातों बातों में वो स्वीकार कर लेते हैं जैसे भगवंत मान को अरविंद केजरीवाल की बातें माननी पड़ रही हैं, बीजेपी नेतृत्व का फरमान आया तो उनको भी मानना ही पड़ेगा. राज्यपाल कटारिया की नजर में ये एक तरह की राजनीतिक मजबूरी ही है. 

राज्यपाल कटारिया मजबूर क्यों

दैनिक भास्कर के साथ एक इंटरव्यू में भगवंत मान के सवाल पर गुलाबचंद कटारिया कहते हैं, काम करने का दोनों का ढंग अलग-अलग है… उनकी पार्टी दिल्ली से चलती है… कई बार वो भी मजबूर होते हैं… अरविंद केजरीवाल जो चाहते हैं, वो करना पड़ता है… हर किसी की अपनी-अपनी पार्टी की मजबूरियां होती हैं. 

और फिर बातचीत के क्रम में ही वो बात भी स्वीकार कर लेते हैं, जो गुलाबचंद कटारिया के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं होती. गुलाबचंद कटारिया कहते हैं, ‘आज कोई हमको भी… दिल्ली से कोई कुछ कहेगा, तो हमें भी उसको स्वीकार करना ही पड़ेगा.’

देखा जाये तो गुलाबचंद कटारिया ने कुछ गलत बोला है, लेकिन जो भी बोला है वो व्यवस्था पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है. सवालिया निशान इसलिए क्योंकि राज्यों में राज्यपाल, असल में, देश के राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है. अपनी पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर तो बिल्कुल नहीं. 

राज्यपाल कटारिया ने कोई नई बात नहीं बताई है. वो तो वही बता रहे हैं, जो चल रहा है. जो देखा जा रहा है. जो महसूस किया जा रहा है. जिस पर विवाद हो रहे हैं. गुलाबचंद कटारिया ने तो बस सच को स्वीकार कर लिया है, और सच को स्वीकार कर पाना भी बहुत बड़ी बात होती है. 

लगे हाथ राज्यपाल कटारिया ने देश में राजनीति के गिरते स्तर की तरफ भी ध्यान दिलाने की कोशिश की है. कहते हैं, मेरे जीवन का अनुभव कहता है कि 1990 तक हम देश और पार्टी के लिए काम करते थे… हमने जैसे-जैसे तरक्की की, अपना व्यक्तिगत हित भी धीरे-धीरे मजबूत होने लग गया… सदाचार हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई थी, उसे जिस तरह मेंटेन रखना चाहिए था, उसमें धीरे-धीरे गिरावट आई… देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में इस प्रकार की गिरावट होती चली गई.

वो किसी राजनीतिक दल विशेष की बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन दायरे में तो बीजेपी भी आ ही जाती है. 

कई राज्यपालों का विवादित इतिहास रहा है

देश में ऐसे कई राज्यपाल हुए हैं, जिनके फैसलों पर खासा विवाद हुआ है, लेकिन मान लिया जाता है कि ये व्यवस्था का हिस्सा है. राजनीतिक व्यवस्था ऐसे ही चलती है. 

सब कुछ संवैधानिक प्रक्रिया के तहत होता है, लेकिन फैसलों में बेईमानी वैसे ही नजर आती है, जैसे विवेकाधिकार के नाम पर खामियों का बेजा इस्तेमाल किया जाता है.  
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि का विवाद तो ताजातरीन है. पश्चिम बंगाल में अब सीवी आनंद बोस और ममता बनर्जी के बीच टकराव वैसा ही होता है, जैसा पहले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के गवर्नर रहते हुआ करता था. 

मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच टकराव की वजह तो सिर्फ राजनीतिक ही होती है. रोमेश भंडारी और बूटा सिंह तो देश के राज्यपालों के इतिहास में अमर हो चुके हैं. 

किसान आंदोलन के दौरान मेघालय के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक का तो अलग ही रूप देखने को मिला था. सत्यपाल मलिक जम्मू-कश्मीर के भी राज्यपाल रह चुके हैं. 

दिल्ली के जिस इशारे को गुलाबचंद कटारिया आंख मूंद कर मान लेने की बात कर रहे हैं, सत्यपाल मलिक तो बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ ही धावा बोल दिये थे. 

बीजेपी नेतृत्व अगर गुलाबचंद कटारिया की बातों को नजरअंदाज करदे तो अलग बात है, लेकिन अपने लिए तो वो मुसीबत मोल ही चुके हैं.

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