पहले तमिलनाडु, अब महाराष्ट्र... राज्य दर राज्य थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी क्यों सियासत की शिकार हो रही है?

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महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी भाषा को अनिवार्य करने का आदेश जारी किया था. तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य किए जाने के खिलाफ राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे खुलकर उतर आए. सरकार ने पहले तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को वैकल्पिक किया और अब इससे संबंधित आदेश ही वापस ले लिया है.

महाराष्ट्र कोई पहला राज्य नहीं हैं, जहां थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का विरोध हुआ है. तमिलनाडु पहले से ही इस फॉर्मूले के विरोध में है. सवाल है कि थ्री लैंग्वेज पॉलिसी राज्य दर राज्य सियासत की शिकार क्यों हो रही है?

थ्री लैंग्वेज पॉलिसी सियासत की शिकार क्यों?

तमिलनाडु सरकार ने इसे लागू करने से ही इनकार करते हुए केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. वहीं, अब महाराष्ट्र सरकार को इसे लागू करने का आदेश जारी कर उसे वापस लेना पड़ा. दक्षिण से लेकर पश्चिम तक थ्री लैंग्वेज पॉलिसी सियासत का शिकार हो रही है. दरअसल, सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 में थ्री लैंग्वेज पॉलिसी जरूरी बदलाव के साथ लागू करने का फैसला लिया. इस पॉलिसी में अंग्रेजी को विदेशी भाषा की श्रेणी में रखा गया है. अंग्रेजी भाषा ज्यादातर राज्यों के ज्यादातर स्कूलों में पहले से ही पढ़ाई जा रही है.

ज्यादातर राज्यों की राजनीति में राजनीतिक दलों के लिए स्थानीय अस्मिता की राजनीति मुख्य सियासी अस्त्र है. तमिलनाडु की राजनीति में लंबे समय से डीएमके और एआईएडीएमके जैसी पार्टियों का वर्चस्व हो या महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का सत्ता की धुरी बने रहना, इन सबके पीछे भी लोकल अस्मिता की सियासत ही है. राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) ने तो सियासत में कदम रखते ही गैर मराठी लोगों के खिलाफ आक्रामक रुख अपना लिया था, जिसका उसे पहले चुनाव में फायदा भी मिला.

हालांकि, बाद में मराठी और गैर मराठी (ज्यादातर हिंदी भाषी) की राजनीति कमजोर पड़ती गई और राज ठाकरे की पार्टी भी. तमिलनाडु तो आजादी के ठीक बाद से ही हिंदी विरोधी रहा है. महाराष्ट्र में थ्री लैंग्वेज पॉलिसी लागू करने के आदेश में राज ठाकरे की एमएनएस और उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) को मराठी पॉालिटिक्स की पिच पर खुद को फिर से ड़ा करने, बीजेपी और उसके सहयोगियों को घेरने का सियासी मौका नजर आया. हालिया महाराष्ट्र चुनाव में ठाकरे ब्रदर्स की पार्टियां अच्छा प्रदर्शन करने में विफल रही थीं.

थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का क्यों हो रहा विरोध

थ्री लैंग्वेज पॉलिसी के विरोध के पीछे भी राज्यों की, राजनीतिक दलों की अपनी वजहें हैं. केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति में थ्री-लैंग्वेज पॉलिसी संशोधन के पीछे इस फॉर्मूले में ज्यादा लचीलेपन का तर्क दिया था. तब कहा गया था कि किसी भी राज्य पर कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी. छात्र कौन सी तीन भाषाएं सीखेंगे, यह राज्य सरकारें खुद तय करेंगी. इस प्रावधान में राज्यों को आजादी तो दी गई है, लेकिन एक शर्त यह भी जोड़ दी गई है कि तीन में कम से कम दो भाषाएं भारत की मूल भाषाओं में से हों.

ज्यादातर राज्यों में स्थानीय भाषा के साथ अंग्रेजी पहले से ही पढ़ाई जा रही है. अंग्रेजी को विदेशी भाषा की कैटेगरी में डाल दिया गया है. ऐसे में, तमिलनाडु से लेकर महाराष्ट्र तक राजनीतिक दल इसे हिंदी थोपने की साजिश बता रहे हैं. यही विरोध का आधार भी है. स्थानीय भाषा के बाद दूसरी मूल भारतीय भाषा की बात आएगी, तो जाहिर है कि हिंदी को ही अपनाना पड़ेगा. तमिलनाडु के लिए तमिल के अलावा किसी दूसरी दक्षिण भारतीय भाषा सिखाने का भी कोई लाभ नहीं है, वहीं महाराष्ट्र में भी अगर तीसरी भाषा की बात आएगी तो किसी क्षेत्रीय की जगह राष्ट्रीय स्तर पर सुग्राह्य हिंदी को ही तरजीह दी जाएगी.

थ्री लैंग्वेज पॉलिसी नई नहीं, 50 साल से ज्यादा पुरानी

थ्री लैंग्वेज पॉलिसी कोई नई बात नहीं है. शिक्षा आयोग (1964-66) ने थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का प्रस्ताव दिया था. इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली तत्कालीन सरकार ने 1968 में अपनाया था. पीवी नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली सरकार ने 1992 में इसमें संशोधन किया था. संशोधन में जिन तीन भाषाओं का प्रावधान किया गया, वह तीन भाषाएं थीं- मातृ भाषा या क्षेत्रीय भाषा, आधिकारिक भाषा यानी अंग्रेजी और एक आधुनिक भारतीय या यूरोपीय भाषा. 2020 की नई शिक्षा नीति में एनडीए सरकार ने थ्री लैंग्वेज पॉलिसी में फिर से संशोधन किया और कम से कम दो भारतीय भाषाओं को शामिल किए जाने को अनिवार्य कर दिया. अंग्रेजी को विदेशी भाषा की श्रेणी में रखा गया है.

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