पाक‍िस्‍तान के खिलाफ युद्ध और सीजफायर को लेकर राहुल गांधी की बातों में विरोधाभास क्‍यों है?

19 hours ago 1

राहुल गांधी लोकसभा में ऑपरेशन सिंदूर पर भाषण देते हुए खुद के बनाए गए तर्कों में उलझ कर रह गए. पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध और सीजफायर को लेकर उन्होंने जो पॉइंट्स रखे उनमें स्पष्ट विरोधाभास दिखा. एक तरफ तो उन्हें इस बात पर ऐतराज है क‍ि युद्ध क्‍यों रोक दिया , वहीं दूसरी तरफ उन्हें इस बात भी ऐतराज है क‍ि आतंकी हमलों को एक्‍ट ऑफ वॉर क्‍यों मान लिया? जाहिर है कि राहुल गांधी या तो खुद नहीं समझ पा रहे हैं कि दोनों बातों में क्या अंतर है या वे देश की जनता को समझा नहीं पा रहे हैं किस तरह दोनों एक्शन एक साथ संभव है. नतीजा यह हो रहा है कि कांग्रेस पार्टी के अलावा आम जनता उनकी बातों को समझ नहीं पा रही है कि वो आखिर चाहते क्या हैं? विपक्ष को बड़ी मुश्किल से मोदी सरकार को घेरने का मौका मिला था वो भी उनके इन तर्कों के आगे जाया हो गया.

राहुल को युद्धविराम पर क्यों है ऐतराज

राहुल गांधी और पूरी कांग्रेस पार्टी ऑपरेशन सिंदूर के शुरू होने के समय से ही अपने अपने भाषणों में, अपने बयानों में, अपने सोशल मीडिया अपडेट में  ऑपरेशन सिंदूर की समय सीमा और तत्काल युद्धविराम पर सवाल उठाना शुरू कर दी थी. राहुल कहते हैं कि रक्षा मंत्री ने बताया कि ऑपरेशन सुबह 1:05 बजे शुरू हुआ और 22 मिनट बाद, 1:35 बजे, DGMO ने पाकिस्तान को सूचना दी कि हमने असैन्य ठिकानों को निशाना बनाया और एस्केलेशन नहीं चाहते हैं. यह आत्मसमर्पण है. 

राहुल का तर्क है कि सरकार ने सेना को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी. सरकार को पूरा समय देना चाहिए था. जल्दबाजी में युद्धविराम कर लिया, जिससे ऑपरेशन की प्रभाव कम हो गया. राहुल गांधी अपनी बात के पक्ष में 1971 के युद्ध का उदाहरण भी रखते हैं. राहुल कहते हैं कि जनरल सैम मानेक शॉ को इंदिरा गांधी ने पूरी स्वतंत्रता दी थी. राहुल की बातों से मतलब यही निकलता है कि सेना को पूरी छूट देनी चाहिए थी. जब तक पीओके सरकार हासिल नहीं कर लेती उसे युद्ध विराम नहीं करना चाहिए था. मतलब साफ था कि सरकार निर्णायक सैन्य कार्रवाई करे. जाहिर है कि वह पूर्ण युद्ध का इशारा कर रहे थे. उनके बयान शेर को पिंजरे में नहीं रखा जा सकता, जिसका अर्थ था कि सेना को बिना बाधाओं के कार्रवाई की छूट मिलनी चाहिए थी. पर राहुल का यह बयान देखिए कैसे बदल जाता है. आइये आगे देखते हैं.

आतंकी हमले को ‘Act of War’ मानने पर ऐतराज

राहुल एक तरफ चाहते हैं कि भारतीय सेना को खुली छूट देनी चाहिए थी ताकि वो निर्णायक बढ़त हासिल करते पर ठीक दूसरी तरफ उनके और भी सवाल है. वो सवाल उठाते हैं कि पहलगाम आतंकी हमले को सरकार ने युद्ध की कार्रवाई क्यों माना ? राहुल चाहते हैं कि सरकर को पहलगाम में आतंकी हमले को युद्ध की तरह नहीं लेना चाहिए था. यानि कि जैसे यूपीए सरकार के दौरान भारत सरकार आतंकी हमलों को बाद डॉजियर पर डॉजियर भेजती थी उसी तरह मोदी सरकार को भी करना चाहिए. दरअसल राहुल का तर्क यह है कि पाकिस्तान को वैश्विक मंच पर यह कहने का मौका मिलता है कि भारत ने युद्ध शुरू किया. 

उनका तर्क था कि आतंकी हमले को आतंकवाद के दायरे में रखकर जवाब देना चाहिए था, न कि इसे युद्ध का दर्जा देकर. इससे भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ सकता है, और पाकिस्तान इसे कूटनीतिक रूप से भुना सकता है. दरअसल राहुल की बातें नैतिक रूप से सही हो सकती हैं. पर यह सभी जानते हैं कि कूटनीति नीति पर आधारित नहीं होती है. इसलिए ही इसे कूटनीति कहा गया है. कूटनीति हमेशा अपने देश के लाभ को ध्यान में रखकर बनाई और क्रियान्वित की जाती है.

राहुल को समझना चाहिए कि यूपीए सरकार के दौरान भारत सरकार डोजियर पॉलिसी को ही मानती थी . भारत को केवल हमदर्दी ही मिलती थी. पाकिस्तान के खिलाफ दुनिया का कोई भी देश आतंकी हमलों का जवाब देने सामने नहीं आया. भारत आतंकी हमलों के जवाब में पाकिस्तान को सबूत सौंपता रहा.

राहुल क्यों किसी एक नीति पर नहीं चल सके?

राहुल गांधी न खुलकर यह कह पा रहे हैं कि भारत सरकार को लंबा युद्ध करना चाहिए था. और न ही अपने इस बात पर स्थिर रह पा रहे हैं कि उन्हें यूपीए सरकार की तरह डॉजियर पर डॉजियर सौंपना चाहिए था.राहुल यह समझते हैं कि पूर्ण युद्ध की वकालत करना भारतीय जनता के बीच जोखिमपूर्ण है. यह न केवल कांग्रेस की पॉलिसी के खिलाफ है बल्कि देश के मूड के भी विपरीत है. इसके साथ ही लंबा युद्ध देश पर आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बढ़ा सकता था. 

इसी तरह डॉजियर पॉलिसी का हश्र राहुल को पता ही है.यूपीए के दौरान 26/11 जैसे हमलों के बाद डॉजियर सौंपने का परिणाम क्या हुआ. पाकिस्तान का मन बढ़ता गया.जनता भी इसे कमजोर फैसला मानती है. 2025 में, सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट जैसे ऑपरेशनों ने जनता की अपेक्षाओं को बढ़ा दिया है. राहुल यह भी जानते हैं कि उनके सपा और टीएमसी जैसे सहयोगी भी डॉजियर की बजाए आक्रामक रुख की मांग कर रहे थे. 

कांग्रेस के भीतर शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे नेताओं को बोलने का मौका न मिलने भी राहुल अकेले भी पड़ गए. यही कारण रहा होगा कि राहुल लोकसभा में क्या बोलना है इसे लेकर एक स्पष्ट नीति नहीं बना सके. राहुल का भाषण इस बार जिस तरह असंगठित और बिखरा हुआ दिखा उतना कभी भी नहीं रहता था.

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