अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हाल ही में एक्स पर हुई हंसी-खुशी भरी बातों का मैसेज क्या है? यह एडजस्टमेंट की तरफ इशारा जरूर करता है लेकिन पुराने दौर की वापसी का संकेत नहीं देता. जब माहौल अच्छा था और आत्मविश्वास ऊंचा था. दोनों नेताओं ने साझेदारी को स्थिर करने की दिशा में शुरुआती कदम उठाए हैं और व्यापार वार्ता फिर से शुरू करने का ऐलान किया है.
रास्ता आसान नहीं, लेकिन चलना जरूरी
अमेरिका की ओर से हफ़्तों तक चली तीखी बयानबाज़ी और दंडात्मक उपायों के बाद, भले ही वे रिश्तों को टूटने के कगार से वापस ला पाए हों, लेकिन आगे का रास्ता आसान नहीं है. फिर भी, इस पर चलना ज़रूरी है क्योंकि यह काफी अहम है.
ट्रंप जब पीएम मोदी के साथ खुशनुमा बातें कर थे, तभी खबर आई कि उन्होंने यूरोपीय यूनियन से भारत और चीन पर 100 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने को कहा है. चिंताजनक और बेचैन करने वाली इस खबर ने उत्साह को कुछ कम कर दिया. ज़ाहिर है, सब कुछ वैसा नहीं है जैसा दिखता है. इस उलझी हुई दुनिया में अनिश्चितता ही एकमात्र निश्चितता है.
सर्जिया गोर की भूमिका अहम
अब सारी उम्मीदें भारत में अमेरिकी राजदूत पद के लिए ट्रंप की ओर से नॉमिनेट किए गए सर्जियो गोर पर टिकी हैं. उनके दिल्ली आगमन से राजनीतिक तनाव कुछ कम हो सकता है. गोर ट्रंप परिवार के बेहद करीब हैं, खासकर उनके सबसे बड़े बेटे डॉन जूनियर और दामाद जेरेड कुशनर के. भारतीय राजनयिक उनके नॉमिनेशन को 'भारत-अमेरिका संबंधों के महत्व, प्राथमिकता के संकेत और दोस्ती के पुल को मजबूत करने की प्रतिबद्धता' के तौर पर देखते हैं. गोर की भूमिका अहम होगी क्योंकि वे सीधे राष्ट्रपति से संपर्क कर सकते हैं. लेकिन इस जर्जर रिश्ते को सुधारने के लिए दोनों पक्षों के कई वर्कर्स की जरूरत होगी.
एक ट्रेड डील की दरकार
ट्रंप-मोदी वार्ता के बाद अगला अहम कदम भारत-अमेरिका व्यापार समझौते को अंतिम रूप देना होगा, जिस पर महीनों से बातचीत चल रही है. सभी पहलुओं से यह सौदा तैयार है. वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि जैमीसन ग्रीर इसे कम से कम तीन बार ओवल ऑफिस ले गए, लेकिन ट्रंप ने इसे और आगे बढ़ाते हुए नामंजूर कर दिया.
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यह साफ नहीं है कि यह व्यापार समझौता रूस के खिलाफ उस बड़े जियो-पॉलिटिकल खेल का हिस्सा बना है या नहीं, जिसकी ट्रंप कोशिश कर रहे हैं. रूसी तेल खरीदने के लिए सजा के तौर पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगाने से भारत, अमेरिका की सबसे हाई टैरिफ कैटेगरी में आ गया है. कुछ सेक्टर्स (रत्न, पत्थर, चमड़ा) पर इसका असर गंभीर है, जिससे रातोरात आजीविका छिन सकती है. भारत में विदेशी निवेश का फ्लो भी प्रभावित हो सकता है. ट्रंप की ओर से अमेरिकी कंपनियों को वापस आकर स्वदेश में मैन्युफैक्चरिंग करने का कड़ा संकेत देना एक और संभावित समस्या है.
ट्रंप के टैरिफ का टॉर्चर
भारत पर लगाए गई टैरिफ पेनल्टी की गंभीरता सीधे तौर पर रूस को यूक्रेन के खिलाफ युद्ध खत्म करने के लिए मजबूर करने में ट्रंप की विफलता से जुड़ी है. अलास्का में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ शिखर वार्ता से कोई खास नतीजा नहीं निकला, जिससे ट्रंप को मॉस्को पर दबाव बढ़ाने के नए तरीके तलाशने पड़े. पुतिन को तेल से होने वाले रेवेन्यू सोर्स को रोकने के लिए एक रणनीतिक साझेदार को सजा देना इसी रणनीति का हिस्सा है.
लेकिन सज़ा के लिए चुनाव प्रकिया पर भी सवाल हैं. रूसी तेल का सबसे बड़ा खरीदार होने के बावजूद चीन अब तक दंडात्मक शुल्कों से बचा हुआ है. यह दिल्ली के लिए तर्क को समझना मुश्किल बना देता है. यह साफ नहीं है कि यूरोपीय देश अमेरिका के साथ मिलकर भारत-चीन पर और शुल्क लगाने के लिए साझा प्रयास करेंगे या नहीं.
भारतीय कंपनियों की तरफ से रूसी तेल खरीदना और यूरोप व अमेरिका को रिफाइन प्रोडक्ट बेचकर मुनाफ़ा कमाना एक पेचीदा मुद्दा बनता जा रहा है. इसे समझाना मुश्किल है और राजनीतिक समझ के लिए इसे सरल बनाना भी मुश्किल है. हालांकि भारत पश्चिमी देशों द्वारा तय नियमों के तहत काम कर रहा है. लेकिन अमेरिकी प्रशासन में किसी को भी अतीत याद नहीं है.
दोहरे मापदंड और भरोसे की कमी
भारत और अमेरिका के सामने आगे बढ़ने की योजना बनाते और आगे बढ़ते हुए, जवाबों से ज़्यादा सवाल खड़े हैं. एक ज़रूरी तत्व जिसकी कमी है, वह है भरोसा. यह गायब हो गया है, और जब तक यह फिर से नहीं बनता, भारत के लिए उन सभी को माफ़ करना और भूलना मुश्किल हो सकता है जो उस पर बीता है. एक भरोसेमंद साझेदार के रूप में अमेरिका के बारे में शक एक बार फिर भारत के रणनीतिक समुदाय के लिए सबसे आगे है. एक ऑब्जर्वर ने कहा, 'बिना सोचे-समझे उठाए गए कदमों ने संबंधों की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाया है.'
इस साझेदारी को बनाने में जुटे अमेरिकी अधिकारी भी इस बात से उतने ही निराश हैं कि 25 साल में बनी इस साझेदारी को जानबूझकर खत्म किया जा रहा है. यह द्विपक्षीय संबंधों के इतिहास में एक गैरजरूरी चैप्टर है.
पहले ट्रंप के हाई टैरिफ़, फिर भारत-पाकिस्तान संघर्ष में 'शांति स्थापित करने वाला' बनने की उनकी सार्वजनिक इच्छा, और अब सब कुछ रूसी तेल में डूब रहा है. ट्रेड वॉर जारी रहने के साथ, दूसरा सबसे बड़ा खरीदार होने के नाते, भारत सबसे नया खलनायक बन गया है.
अमेरिका से आए भारत विरोधी बयान
पिछले चार महीने में राष्ट्रपति से लेकर नीचे तक, बहुत कुछ कहा और किया जा चुका है, जिससे जल्द ही सामान्य स्थिति बहाल होने की संभावना नहीं है. हर चीज़ को एक साथ मिला दिया गया. निजी को पेशेवर के साथ, तथ्य को कल्पना के साथ, घमंड को पूर्वाग्रह के साथ मिला दिया गया. दोनों देशों में दो अहंकारों को छोड़कर उद्योग को अच्छी स्थिति में बनाए रखने की बात तो छोड़ ही दीजिए.
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ट्रंप के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो की बयान विशेष रूप से अपमानजनक थे. ट्रंप के एक पूर्व अधिकारी ने उन्हें 'पागल' बताया, जिसे व्हाइट हाउस बर्दाश्त करता है. नवारो ने यूक्रेन युद्ध को 'मोदी वॉर' कहा है, रूसी तेल आयात की तुलना 'ब्लड मनी' से की है, भारत को 'टैरिफ का महाराजा' कहा है. ब्रिक्स देशों की तुलना अमेरिकी टैक्सपेयर्स का 'खून चूसने' वाले 'पिशाचों' से की है. दिल्ली की प्रतिक्रिया उनके तीखे हमलों को कम करके आंकने की रही.
आधिकारिक तौर पर भारत ने ज़्यादातर समय समझदारी दिखाई है. कूटनीतिक शिष्टाचार का पालन किया है और नीचता से बचने की कोशिश की है. बेशक, सत्तारूढ़ दल के कीबोर्ड वॉरियर्स ने सोशल मीडिया पर यही काम किया है, अपमान के बदले अपमान, मजाक के बदले मजाक, और मीम के बदले मीम.
दिल्ली में नीति-निर्माता इस भद्देपन और तंज को आसानी से नहीं भूलेंगे. उनकी याद्दाश्त बहुत मजबूत है. लेकिन वे राष्ट्रीय हित में अपना काम जारी रखेंगे.
(सीमा सिरोही वॉशिंगटन डीसी में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह विदेश नीति पर लिखती हैं और लगभग तीन दशकों से भारत-अमेरिका संबंधों को कवर कर रही हैं.)
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं.)
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