बिहार ने दिया था देश को पहला हाईवे... इतने देशों को जोड़ती है ये सड़क

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भारत का पहला हाईवे जीटी रोड (ग्रैंड ट्रंक रोड) को माना जाता है. यूनेस्को की वेबसाइट से मिली जानकारी के अनुसार यह भारत ही नहीं एशिया की सबसे पुरानी और सबसे लंबी सड़कों में से एक है. ब्रिटिश शासन ने इस हाईवे का नाम जीटी रोड दिया था. आज इसे एनएच-1 के नाम से जाना जाता है. 

इस जीटी रोड का काफी पुराना कनेक्शन बिहार से है. क्योंकि यह सड़क अंग्रेज या मुगलों के जमाने से भी पहले बनी थी.  बिहार की राजधानी पटना (पाटलिपुत्र) से पूरे देश पर शासन करने वाले सम्राट अशोक ने इसे बनवाया था. सम्राट अशोक के बाद बिहार से ही निकले एक और बादशाह शेरशाह सूरी ने इसकी दोबारा मरम्मत करवाई और इसका विस्तार किया. 

देश ही नहीं एशिया की सबसे पुरानी सड़कों में है एक
आगे मुगल बादशाह और अंग्रेजों ने भी समय-समय पर इसका विस्तार किया और इसकी मरम्मत करवाते रहे. यह एशिया की सबसे पुरानी और सबसे लंबी सड़कों में से एक है जो भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख देशों अर्थात अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश को और उत्तर पश्चिमी सीमांत क्षेत्र से जोड़ती है.

इन देशों को जोड़ती है भारत की ये सड़क
वर्तमान में यह सड़क हावड़ा, पश्चिम बंगाल  (भारत) के पश्चिम में चटगांव (बांग्लादेश) से शुरू होकर उत्तरी भारत  के गंगा के मैदानों से होते हुए लाहौर  (पाकिस्तान) तक , हिंदू कुश पर्वतमाला से होते हुए काबुल  (अफगानिस्तान) तक जाती है. इस सड़क को अलग-अलग दौर में अलग-अलग नाम से जाना जाता रहा है. मौर्य काल में यह उत्तरापथ, तो शेर शाह शूरी के दौर में इसका नाम'शाह राह-ए-आजम' था. वहीं मुगलों ने इस हाईवे का नाम 'बादशाही सड़क'रखा था और अंग्रेजों ने इसका नाम ग्रैंड ट्रैंक रोड या लॉन्ग वॉक नाम रख दिया. आज यह हाईवे NH-1 और NH-2 में बंट गया है. 

हजारों साल से सड़क का हो रहा इस्तेमाल
यह राजमार्ग, अपनी अनेक संपर्क सड़कों के साथ, न केवल एक व्यापार मार्ग के रूप में, बल्कि मध्य एशियाई आक्रमणकारियों के भारतीय उपमहाद्वीप में सैन्य अभियानों के मार्ग के रूप में भी महत्वपूर्ण रहा है. इस तरह के संपर्क नेटवर्क की मौजूदगी ने बड़े पैमाने पर पैदल और सैन्य आवाजाही को संभव बनाया. इसके साथ ही व्यापार के लिए महत्वपूर्ण आदान-प्रदान को संभव बनाया और उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास पर गहरा प्रभाव डाला.

मौर्य काल में हुआ था उत्तरापथ का निर्माण  
मौर्य काल में चौथी शताब्दी के दौरान इस हाईवे का निर्माण किया गया था. उस समय यह 'उत्तरापथ' के नाम से जाना जाता था.  अफगानिस्तान के बल्ख से लेकर भारत के पश्चिम बंगाल में ताम्रलिप्तिका या तामलुक तक उत्तरापथ का विस्तार था. इसके अवशेष अशोक स्तंभों, शिलालेखों और बौद्ध पुरातात्विक अवशेषों (जैसे स्तूप) के रूप में उपलब्ध हैं, जो अफगानिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक राजमार्ग के किनारे विभिन्न स्थानों पर पाए गए हैं.

पाटलिपुत्र को तक्षशिला से जोड़ती थी से सड़क 
शाही राजमार्ग का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों और शास्त्रों में मिलता है, जिनमें उत्तरापथ का पहला ज्ञात उल्लेख पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी (लगभग 500 ईसा पूर्व) में किया है. सातवां अशोक स्तंभ उस शाही मार्ग को दर्शाता है जिसमें नियमित अंतराल पर विश्राम गृहों और कुंओं की एक श्रृंखला थी जो मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) को तक्षशिला से जोड़ती थी.

सूर राजवंश के शेरशाह सूरी ने दिया नया आकार
1540-1556 ई. के दौरान काबुल (अफगानिस्तान) से सोनारगांव (बांग्लादेश) तक 'सड़क-ए-आजम' या 'शाह राह-ए-आजम' के रूप में उत्तरापथ का जीर्णोद्धार हुआ. इस राजमार्ग के पहले मूर्त अवशेष सूर काल के हैं. इसके पहले शासक शेरशाह सूरी को इस राजमार्ग के पुनर्निर्माण का श्रेय दिया जाता है. उन्होंने एक बार फिर से ट्रैक बिछाया, इसके किनारे पेड़ लगाए और यात्रा और  विश्राम से जुड़ी विभिन्न संरचनाओं का निर्माण किया.

इस सड़क का निर्माण शुरू में शेरशाह सूर ने अपनी राजधानी आगरा को अपने गृहनगर सासाराम से जोड़ने के लिए करवाया था. बाद में इसे जल्द ही पश्चिम में मुल्तान (अब पाकिस्तान में) और पूर्व में बंगाल के सोनारगांव (अब बांग्लादेश में) तक बढ़ा दिया गया.

मुगलों ने इसे बना दिया 'बादशाही सड़क'
मुगल काल में 16वीं -19वीं सदी तक इस हाईवे को 'बादशाही सड़क' के रूप में जाना जाता था. 1555 ई. और 1707 ई. के बीच, मुगलों ने शेरशाह द्वारा भारत में शुरू की गई व्यवस्था को आगे बढ़ाया और उसे और बेहतर बनाया.  सड़कों को 'शासन के साधन' के रूप में इस्तेमाल किया. विशेष रूप से अकबर (1556-1605 ई.) और जहांगीर (1605-1627 ई.) के शासनकाल के दौरान.

जहांगीर ने दूर-दराज के इलाकों के जमींदारों को सड़क के किनारे सरायों का निर्माण करने का आदेश दिया. यह लोगों को सरायों के पास आकर बसने के लिए प्रोत्साहित करने का एक तरीका था. मुगल शासन के दौरान शाही राजमार्गों के किनारे उस दौर के रईसों द्वारा भी कई विकास कार्य किए गए.

मुगलों ने बनाए थे सड़क किनारे कोस मीनारें
मुगलों ने सड़ किनारे कोस मीनारें (मार्ग पर कोस के अंतराल पर निर्मित मील के पत्थर) बनवाएं. ग्रैंड ट्रंक रोड के पूरे खंड में मार्ग के संकेतक के रूप में महत्वपूर्ण हैं. इस श्रृंखला के एक हिस्से के  रूप में कुल 44 कोस मीनारें प्रस्तावित थीं.
इस श्रृंखला के प्रस्ताव में क्लस्टरों के चित्रण को कई कारकों ने निर्धारित किया:


फिर जीटी रोड (ग्रैंड ट्रंक रोड) ने लिया आधुनिक रूप  
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन (19 वीं और 20 वीं शताब्दी ई.) के दौरान अफगानिस्तान से बांग्लादेश तक 'लॉन्ग वॉक' या 'ग्रैंड ट्रंक रोड' के रूप में इस सड़क ने आधुनिक रूप लिया. उन्नीसवीं सदी के शुरुआ्रत में  इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया में इसके बारे में जानकारी दी गई है. उसमें कहा गया था कि ब्रिटिश शासन के आगमन से पहले, भारत में आधुनिक तरीके के सड़क मार्ग मौजूद नहीं थे.

 तब  अंबाला और करनाल के बीच ग्रैंड ट्रंक रोड का खंड 1856 में खोला गया था. यह दिल्ली में विद्रोहियों के खिलाफ अंग्रेजों की सफलता का एक कारण रहा है. इसके बाद ब्रिटिश प्रशासकों ने परिवहन के साधनों में सुधार को प्राथमिकता दी और इस सड़क को आधुनिक रूप दिया. आज यह  सड़क भारत में राष्ट्रीय राजमार्ग-1 और 2 के रूप में विभाजित है और एक महत्वपूर्ण मार्ग बना हुआ है.

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