ऑपरेशन सिंदूर के बाद जिस खबर ने देश का चैन चुरा रखा है वह है जासूसी. सुरक्षा में सेंध, अंदर की अहम जानकारियों को दुश्मन देश को पहुंचाना और सुरक्षा तंत्र को खोखला करना. जासूस कई बार ये काम सीधे तौर पर करते हैं तो कई बार किसी को पता भी नहीं होता है कि वह कब जासूस बन गया है. दुश्मन देश का खुफिया तंत्र ऐसा होता है कि वह अपने मतलब के लिए लोगों से अपने काम की जानकारी किसी न किसी बहाने उनसे निकलवा ही लेता है. फिर चाहे आप इसे हनी ट्रैप कह लीजिए, लालच कह लीजिए, धोखा, धमकी या गद्दारी जो नाम दे लीजिए, सुरक्षा में सेंध तो लग ही चुकी है.
ज्योति मल्होत्रा गंभीर आरोपों का सामना कर रही हैं
जासूसी के आरोप में हरियाणा की ट्रेवल ब्लॉगर ज्योति मल्होत्रा का नाम सामने आया है. क्या ज्योति मल्होत्रा सिर्फ ट्रैवल व्लागिंग कर रही थीं, या फिर वो इसकी आड़ में खुफिया जानकारी दे रही थीं, 'हनी ट्रैप' कर रही थीं या फिर वह खुद अपनी महत्वाकांक्षा में इस दलदल में आ फंसी हैं, ये तीनों ही आशंकाएं जांच के दायरे में हैं.
इस खबर के सामने आने के बाद जासूसी का जिन्न एक बार फिर सामने है. इसी के साथ 'हनी ट्रैप' जैसे शब्द फिर जिंदा हो चुके हैं. दुश्मन की अंदर की बात जानकर और उसके अगले कदम की जानकारी आपको जंग में दुश्मन से एक कदम आगे रख सकती है. यही वजह है कि जंग छिड़ी हो या नहीं, युद्ध हो रहा हो या नहीं, शांति काल में भी जासूस और जासूसी प्रासंगिक बने रहते हैं.
वेद-पुराण से इतिहास के पन्नों में गुप्तचर
इनकी प्रासंगिकता को ऐसे समझिए कि 3500 साल के भारतीय इतिहास में 'गुप्तचरी विधा' एक खास योग्यता की तरह दर्ज है. बल्कि वेद-पुराण से होते हुए ये गुप्तचरी चाणक्य -चंद्रगु्प्त के काल तक पहुंचती है, अशोक के 9 गु्प्तचरों तक जाते हुए मध्य युग तक आती है, तुर्कों-मुगलों के दरबार में छिपकर रहती है, रजवाड़ों में जगह पाती है. आजादी की लड़ाई में शामिल होती है, विश्व युद्धों के परिणाम बनाती-बिगाड़ती है और इस तरह तब से अब तक कई कहानियों का मुख्य हिस्सा बन जाती है जासूसी.
देवासुर संग्राम में गुप्तचरी
शुरू से ही शुरू करते हैं तो भारत में ही 'गुप्तचरी विधा' वैदिक-पौराणिक युग के साथ खूब फली-फूली. देवासुर संग्राम में दोनों ओर से गुप्तचर एक-दूसरे को सूचनाएं दिया करते थे. कई मामलों में तो देवर्षि नारद ही जो असुरों और देवताओं दोनों के लिए बराबर आदरणीय थे और उन्हें छिप कर काम करने की भी जरूरत नहीं पड़ी, अपने वाक्पटुता वाले अंदाज से असुरों से गंभीर जानकारियां लेकर देवताओं तक पहुंचा देते थे. शुक्राचार्य ने मृत संजीवनी विद्या सीख ली है, ये जानकारी इंद्र को उन्होंने ही दी थी.
अप्सराएं भी होती थीं गुप्तचर
खुद इंद्र की अप्सराएं भी कई बार प्रमुख जानकारियां जुटा लाती थीं. जैसे जब ब्रह्माजी रावण को वरदान देने के लिए प्रकट हुए, तब इंद्र ने एक अप्सरा को भेजा कि वह सुनकर आए कि रावण क्या-क्या वरदान मांग रहा है. असुर राज बलि की सेना में स्वरभानु नाम का एक राक्षस भी गुप्तचर था, जो समुद्र मंथन के दौरान की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए था. उसने ही देखा कि मोहिनी, विष्णु का ही रूप है और असुरों को छल से मदिरा पिला रही है. खुद विष्णु भी मोहिनी के रूप में एक गुप्तचर की ही तरह आए थे और उन्होंने असुरों को अपनी अदाओं से रिझाकर उनसे अमृत का कलश हथिया लिया था. मोहिनी वाली कहानी को 'हनी ट्रैप' का सटीक उदाहरण समझना चाहिए.
रामायण में गुप्तचर
रावण की सेना में शुक नाम का गुप्तचर था, जो पक्षी का वेश बनाकर रामदल में जानकारी लेने आया था, लेकिन पकड़ा गया था. हालांकि श्रीराम ने उसे जाने दिया था और उन्होंने सारी जानकारी रावण को दे दी थी. हालांकि ये एक फेल प्रैक्टिस है और नीति में ऐसी 'महान' बातों की कोई जगह नहीं होती है. खुद हनुमानजी भी श्रीराम के भेजे गए गुप्तचर ही थे, जो ये पता लगाने आए थे कि लंका में सीता किस जगह पर हैं. इसके साथ ही उन्होंने छिपकर रावण के महल के जरूरी जगहों को भी देख-परख लिया था. जैसे कहां सेना के शस्त्र रखे हैं, किस जगह किस महारथी का स्थान है. वैद्य और ज्योतिषी किस जगह पर हैं. रानियों के महल कहां हैं और भंडार गृह किधर है. इसके बाद जब वे पकड़े गए तो बड़ी ही चालाकी से उन्होंने लंका की ये सारी जगहें जला दीं.
महाभारत युद्ध में जासूसी का प्रयोग
गुप्तचर विधा का ठीक-ठीक और सटीक इस्तेमाल महाभारत में होता दिखता है. विदुर के गुप्तचर पहले ही उन्हें बता देते हैं कि वारणावत में कुछ बड़ा होने वाला है. वह यह बताते हैं कि बीते सात महीने में वारणावत में सन, लाख, घी और मोम जैसे ज्वलनशील पदार्थों की बिक्री में उछाल आया है. ये जानकारी बेहद अहम थी और कड़ी से कड़ी जोड़ते विदुर को 15 दिन पहले पता चल जाता है कि दुर्योधन और शकुनि, पांडवों को जलाकर मार देने वाले हैं.
इसके अलावा पांडवों का अज्ञातवास खत्म करने के इरादे से दुर्योधन हर दिशा में गुप्तचरों को लगा देता है, लेकिन उसे कुछ हासिल नहीं होता है, लेकिन अज्ञातवास खत्म होने से कुछ ही दिन पहले उसे पता चलता है कि, विराट राज्य में दूध की बिक्री बहुत बढ गई है. वहां फसलों का लगान भी ज्यादा आया है. सैन्य ताकत बढ़ी है और व्यापार में भी तेजी से विकास हो रहा है. ये सारे संकेत बताते हैं कि पांडव विराट में ही मौजूद हैं. युद्ध के दौरान दोनों पक्षों के गुप्तचर ही बताते थे कि विपक्षी दल किस व्यूह की योजना बना रहा है, अगला उस व्यूह की काट तैयार कर लेता था.
महिलाएं भी रहीं गुप्तचर
पौराणिक कथाओं से निकलकर इतिहास गाथाओं में पहुंचते हैं तो वहां गुप्तचर ज्यादा सक्रिय और अधिक प्रशिक्षित नजर आते हैं, बल्कि 'मोहिनी' की तरह महिलाएं भी साफ तौर पर गुप्तचर विधा का हिस्सा बनती दिखती हैं. हालांकि ये कल्पना है या सटीक इतिहास, लेकिन चंद्रगुप्त और चाणक्य के सैन्य अभियानों में गुप्तचर और विषकन्याओं का जिक्र मिलता है. आचार्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजा के लिए जरूरी बहुत से तथ्यों को लिखा है और इसे विस्तार देते हुए गुप्तचरी विधा को राज्य और राजा के लिए सबसे जरूरी अंग बताया है.
चाणक्य ने गुप्तचरों को बताया था जरूरी
चाणक्य लिखते हैं कि गुप्तचर राजा के लिए इंद्रियों की तरह हैं. वह राज्य के हर कोने में राजा की गु्प्त पहुंच का प्रतीक है. चाणक्य ने अर्थशास्त्र में जासूसी विद्या और गुप्तचर विद्या पर महत्वपूर्ण चर्चा की है. उन्होंने उनके चयन और उनके प्रकारों पर खास तौर पर जोर दिया है. चाणक्य लिखते हैं कि गुप्तचरों का चयन, उनकी बुद्धिमत्ता, चतुरता, और विश्वासपात्रता के आधार पर करना चाहिए. इसके साथ ही जासूसी का उद्देश्य विरोधियों की जानकारी इकट्ठा करना, उनकी योजनाओं को समझने, और अपनी रणनीतियों को बनाने में होना चाहिए. इस तरह राजा खुद को षड्यंत्रकारियों से दो कदम आगे रख सकता है. इन गुप्तचरों में रसोइये, सेवक, पुजारी, नर्तकियां और विषकन्याएं भी शामिल हैं.
गुप्तचरों के प्रकार
चाणक्य ने अपनी पुस्तक "अर्थशास्त्र" में गुप्तचरों (जासूसों) के कई प्रकारों का वर्णन किया है, लेकिन पहले उन्होंने सिर्फ दो प्रमुख प्रकार के गुप्तचरों का विशेष रूप से उल्लेख किया है, इन्हें उन्होंने 'चर और स्थावर' का नाम दिया है. स्थावर गुप्तचरों में मंदिरों के पुजारी, व्यापारी, और अन्य स्थानीय लोग शामिल होते थे, जिनकी भूमिका राज्य के लिए महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा करना था.
चर गुप्तचर साधु, भिक्षु, व्यापारी, या कलाकारों का रूप धारण करके घूमते थे ताकि उनकी पहचान छुपी रहे और वे आसानी से जानकारी इकट्ठा कर सकें. इन दोनों तरह के गुप्तचरों का उपयोग राज्य की सुरक्षा, दुश्मनों की योजनाओं को समझने, और शासन में शांति बनाए रखने के लिए किया जाता था. चाणक्य की गुप्तचर प्रणाली में इनका विशेष स्थान था, और उन्होंने इसे राज्य संचालन का एक अहम हिस्सा माना था.
इसी आधार पर चाणक्य ने गुप्तचरों के प्रकार भी बताए हैं. चाणक्य ने गुप्तचरों को चार प्रकार में वर्गीकृत किया है.
1. कापाटिक- वेश बदलकर जासूसी करने वाला
2. उदास्त - अपने को छिपाकर जासूसी करने वाला
3. टंक-मुद्रा - छाप या मुद्रा के माध्यम से जासूसी करने वाला
4. सांभाश्य - विश्वासपात्र बनकर भेद लेने वाला
इसके अलावा दो और भेद भी चाणक्य ने बताए हैं.
उदारगोप्त (सूचना एकत्र करने वाले): दुश्मनों की योजनाओं पर नजर रखते थे.
संज्ञाग्राही (सामान्य गुप्तचर): जो आम लोगों के बीच रहकर जानकारी जुटाते थे.
चाणक्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर संतुष्ट करना), दंड (बलप्रयोग, युद्ध) और भेद (फूट डालना) का वर्णन भी किया है. चाणक्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा और अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, लेकिन उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दंड से श्रेयस्कर है. दंड अर्थात् युद्ध का प्रयोग आखिरी उपाय के तौर पर किया जाना चाहिए. क्योंकि इससे खुद को भी नुकसान होता है.
चाणक्य के इन सिद्धांतों के साथ उनके प्रमुख गुप्तचर कौन थे, इसका जिक्र स्पष्ट रूप से कहीं नहीं मिलता है. फिर भी कुछ कथाओं में शाकटदोष, कात्यायन, चारुदत्त, राधागुप्त और जीवसिद्ध के नाम लिए जाते हैं. लेकिन ये नाम कितने सही हैं और क्या ये चाणक्य और चंद्रगुप्त के वाकई में गुप्तचर थे भी या नहीं इसका उल्लेख स्पष्ट नहीं मिलता है. हालांकि कल्हण की राजतरंगिणी और मुद्राराक्षस नाटक में जीवसिद्धि, जीवसिद्ध और चारु जैसे नाम लिखे मिलते हैं, लेकिन ये असल हैं या कल्पना, स्पष्ट नहीं हैं.
जीवसिद्धि के बारे में कहा जाता है कि वह संन्यासी वेश में घूमने वाला और अपनी चमत्कारिक बातों के जरिए लोगों का भरोसा जीतने में माहिर गुप्तचर था. यानी कि चाणक्य के शब्दों में वह संभाष्य और कापाटिक दोनों ही था. उसका जिक्र तब कई बार आता है, जब नंदवंश की समाप्ति के बावजूद चंद्रगुप्त को राजा के रूप में स्थापित करने में समस्या आ रही थी. असल में नंद का प्रमुख मंत्री महामात्य राक्षस, एक समय में तक्षशिला में आचार्य चाणक्य का ही सहपाठी था. चाणक्य उसकी बु्द्धि और बल दोनों से परिचित थे और उसकी कमजोरी भी समझते थे, लेकिन फिर भी राक्षस को अपने खेमे में करना आसान नहीं था. दूसरा ये कि चाणक्य राक्षस को मारना भी नहीं चाहते थे, क्योंकि इससे ज्ञान का अतुलित भंडार बेवजह खत्म हो सकता था.
इसके लिए चाणक्य ने राक्षस के खेमे में अफवाह फैलवा दी कि जीवसिद्धी ज्योतिष के विद्वान हैं. जीवसिद्धि राक्षस से मिला और वर्षों पहले हुई एक गुप्त घटना उसके सामने खोल दी. जीवसिद्धि ने बोला कि नंद के महल में दक्षिण दिशा के गुप्त कक्ष में एक रहस्य छिपा है, क्या वहां कोई भटकता जीव है, अतृप्त आत्मा?
उसके इस जवाबनुमा सवाल से राक्षस अचरज में पड़ गया क्योंकि सालों पहले धनानंद ने एक विरोधी ब्राह्मण की हत्या कराई थी. जीवसिद्धी ने राक्षस का भरोसा जीत लिया. अब महामात्य राक्षस जीवसिद्धि के साथ ही मिलकर चंद्रगुप्त की हत्या की योजना बनाने लगे, जिसे जीवसिद्धी ने हर बार विफल कर दिया. वर्षों तक राक्षस के साथ रहकर जीवसिद्धि ने उसका हृदय परिवर्तन भी किया और चाणक्य से उसकी संधि भी करा दी. ये गुप्तचरी विधा का चरम था. बाद में महामात्य राक्षस चंद्रगुप्त का मंत्री बनकर भी रहा और राष्ट्रसेवा को समर्पित हो गया.
चंद्रकांता में विषकन्या
हिंदी के साहित्यकार रहे देवकीनंदन खत्री ने प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता लिखा था. ये उपन्यास रहस्य, रोमांच, जासूसी के साथ प्रेम गाथा का अद्भुत मिश्रण है. इसे हिंदी का शुरुआती उपन्यास कहते हैं. सबसे पहले इसका प्रकाशन सन 1888 में हुआ था. अपने जासूसी कथानक के कारण यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ था कि तब इसे पढ़ने के लिये बहुत लोगों ने देवनागरी-हिन्दी भाषा सीखी थी. यह तिलिस्म और ऐयारी पर आधारित इस उपन्यास का नाम नायिका चंद्रकांता पर रखा गया था.
कहानी दो राज्यों नौगढ़ और विजयगढ़ के इर्द-गिर्द बुनी गई है. दोनों में तकरार थी और इस तकरार से जीत का रास्ता तमाम जासूसी गतिविधियों से होकर जाता था. इस जासूसी में सबसे अधिक रोमांच का विषय थीं विषकन्याएं. खूबसूरत, मादक अदाओं की मालकिन और चालाकी से भरपूर ये विषकन्याएं आम जासूसों से भी एक कदम आगे थीं, जो पल में रूप बदल सकती थीं. हमले कर सकती थीं, शस्त्र चला सकती थीं और प्रेमिका, योद्धा, नर्तकी, गायिका, मालिन, सेविका कुछ भी बनकर रहस्य उजागर कर लेती थीं.