वो मेट्रो स्टेशन... जहां उतरकर ऑटो-बैटरी रिक्शा नहीं ट्रैक्टर-ट्रॉली पकड़ रहे लोग

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'नमस्कार, अगला स्टेशन शिव विहार है… यहां से आगे जाने के लिए नीचे उतरकर ट्रैक्टर-ट्रॉली पकड़ें.' क्या हुआ? पढ़कर जज़्बात बदल गए, हालात बदल गए? लेकिन लोनी और आसपास के लाखों लोगों का हाल यही है.

बारिश में शांति नगर, इंद्रापुरी, लोनी, ट्रॉनिका सिटी और करावल नगर से शिव विहार मेट्रो तक आने-जाने के लिए लोगों को ट्रैक्टर-ट्रॉली में बैठना पड़ता है. वजह वही घिसी-पिटी—टूटी सड़कों का जाल और बरसात में गड्ढों का तालाब. शिव विहार पिंक लाइन रूट का अंतिम स्टेशन है और इस तक पहुंचना लोगों के बहुत बड़ा टास्क है.

मेट्रो के डिब्बों में भले ऐसी अनाउंसमेंट न होती हो, लेकिन यहां सफर करने वाले जानते हैं कि स्टेशन से उतरते ही प्रशासन का पूरा सिस्टम हांफने लगता है.

दिल्ली मेट्रो ने गाज़ियाबाद तक लोहे की पटरियां बिछा दीं, चमचमाती ट्रेनें भी दौड़ा दीं, लेकिन मुश्किलें वहीं की वहीं खड़ी रहीं. ई-रिक्शा और ऑटो तक तो ठीक था, लेकिन अब तो लोग ट्रैक्टर-ट्रॉली में लटककर सफर करने को मजबूर हैं.

नेशनल हाईवे का हाल-बेहाल

जिस सड़क पर लोग रोज़ अपने धैर्य का इम्तहान दे रहे हैं, वो कोई गली-मोहल्ले की सड़क नहीं बल्कि नेशनल हाईवे-709B है—दिल्ली को बागपत, सहारनपुर और यमुनोत्री धाम से जोड़ने वाली धुरी.

इसे नीचे दिए चित्र से आसानी से समझें. लाल एरो वाली सड़क नया देहरादून हाइवे है. पीले एरो वाली सड़क लोनी रोड है. पावी तक पूरा लोनी रोड खराब है. पावी के बाद जहां देहरादून हाइवे इस सड़क से मिल जाता है. वहां ये सड़क सही है.

loni road map

हाल ये है कि गोकलपुर गोलचक्कर से पावी गांव तक के 7.6 किलोमीटर रास्ते में 50 मिनट लगते हैं. सड़क इतनी टूटी-फूटी कि यहां गाड़ी से ज्यादा आपकी हड्डियां चटकती हैं. इसे नेशनल हाईवे कहें या ‘गड्ढों का मेला’, फर्क करना मुश्किल है.

दूरी नहीं, गड्ढे तय करते हैं किराया

'लोनी तक के 20 नहीं, 30 रुपये लगेंगे, देख नहीं रहे सड़क कितनी खराब है.' बारिश में वैसे तो यहां ऑटो या बैटरी रिक्शा नहीं चल पाते, लेकिन जितने भी दिन चलते हैं, उनके पास ज्यादा किराया वसूलने का ये तर्क सबसे ऊपर होता है.

लेकिन असली ‘हाईवे डकैती’ तो ट्रैक्टर-ट्रॉली वाले करते हैं. जिस दूरी पर ऑटो 20 रुपये लेते हैं, वहां ट्रैक्टर-ट्रॉली वाले 50 रुपये मांगते हैं. मजबूरी में लोग चुपचाप देते भी हैं, क्योंकि डूबे हुए रास्ते पर कोई और चारा नहीं.

ट्रैक्टर वालों का पक्ष

हालांकि, तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. इंद्रापुरी के कुछ ट्रैक्टरवालों का कहना है, 'हम रेग्युलर सवारी नहीं ढोते. हमारा काम तो रोडी-बदरपुर या मलबा उठाना है. कभी-कभार चक्कर लगाते वक्त कोई मदद मांग ले तो बैठा लेते हैं, पैसे भी नहीं लेते. बस आगे छोड़ देते हैं.”

यानी जिन्हें लोग मजबूरी की सवारी मानते हैं, वे खुद भी इस मजबूरी का हिस्सा हैं. असली दोष तो उस प्रशासन का है, जिसने इस खालीपन को भरने के लिए कोई इंतज़ाम ही नहीं किया.

…अब तो आदत सी है ऐसे जीने में

हल्की-हल्की बारिश हो रही थी. स्टेशन से भीगे कपड़ों में लोग बाहर निकल रहे थे. तभी पीछे से आवाज़ आई, 'बारिश में सभापुर पुश्ता रोड तक सड़क ऐसी ही रहती है, हर बार ऐसा ही होता है…'

पीछे देखा तो एक शख्स गोद में बच्चा लिए खड़ा था. चेहरे पर न गुस्सा, न शिकायत—बस बेफिक्री. उसकी बेपरवाह आवाज़ ने सच्चाई बयां कर दी: यहां के लोग अब हालात से लड़ते नहीं, समझौता कर चुके हैं.

कारोबार पर चोट

लोग हालात से चाहे जितना भी समझौता कर लें, मगर परेशानी तो है ही. शिव विहार स्टेशन के नीचे होटल चलाने वाले रवि पांचाल इसी बेबसी का उदाहरण हैं. वे कहते हैं, 'एक साल पहले ये होटल किराये पर लिया था. सोचा था मेट्रो स्टेशन के नीचे धंधा चमकेगा, लेकिन यहां तो हालात ही उलटे निकले. बरसात हो तो पानी भर जाता है, बरसात न हो तो धूल-मिट्टी उड़ती है. मतलब किसी भी सीज़न में आराम नहीं है.'

रवि आगे जोड़ते हैं, 'ऐसे हालात में लोग होटल में आना ही नहीं चाहते. कई बार तो किराया निकालना तक मुश्किल हो जाता है.' यानी स्टेशन पर ट्रेन चाहे कितनी भी समय पर आए, लेकिन रवि जैसे लोगों की ज़िंदगी में राहत की ट्रेन अब तक नहीं पहुंची.

बिजली का काम करने वाले शाहनवाज़ की भी वही मजबूरी है, 'मुझे रोज शाहदरा, भजनपुरा जाना पड़ता है. लेकिन बारिश में हर दिन जेब से ज्यादा किराया निकलवाना पड़ता है.'

वादों की छतरी, हकीकत की बारिश

ये इलाका गाजियाबाद के सांसद अतुल गर्ग और विधायक नंद किशोर गुर्जर का है. बरसात खत्म होने के बाद सड़क दुरुस्त कराने का भरोसा लोगों को दिया गया है. लेकिन सब जानते हैं.... सरकार-प्रशासन हर बार वादों की छतरी खोलता है, और हकीकत में लोग हर बरसात बिना छतरी भीगते हैं.

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