दुश्मन देश में छूटी हुई संपत्तियों अक्सर या तो किसी और के नाम हो जाती हैं, या फिर खस्ताहाल पड़ी रहती हैं. देश के बंटवारे के साथ पाकिस्तान के हिस्से चले गए घरों-इमारतों का भी यही हाल हुआ. अब बांग्लादेश भी पाकिस्तान के साथ कदमताल करते हुए अपने यहां बची भारतीय संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहा है. हाल में ढाका प्रशासन ने मशहूर फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे के पैतृक मकान को गिराने की बात की. इसके बाद से खलबली मची हुई है.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने फैसला बदलने की गुजारिश की, जिसके बाद खबर आ रही है कि फैसला फिलहाल के लिए रोक दिया गया. लेकिन सवाल ये है कि क्या बंटवारे के बाद यहां-वहां फैली ऐतिहासिक महत्व की प्रॉपर्टीज के लिए भारत का ढाका या इस्लामाबाद से कोई समझौता है, और अगर नहीं तो ऐसी संपत्ति का क्या होता है!
देश के बंटवारे के साथ अचल संपत्ति का बंट जाना या छूट जाना नई बात नहीं. भारत-पाक-बांग्लादेश ही नहीं, ऐसा दुनिया के उन सारे देशों के साथ हो चुका, जहां भी विभाजन हुआ. लेकिन उसके बाद क्या होता है? क्या देशों के बीच कोई करार भी हो सकता है, कि वे ख्यात लोगों के घरों को साझा विरासत मान सुरक्षित रखे? और क्या भारत का भी पाकिस्तान या बांग्लादेश से ऐसा कोई एग्रीमेंट है?
पहले ताजा मामला जानते चले. मैमनसिंह के हरिकिशोर रे चौधरी रोड पर सत्यजीत रे के दादा का घर है. एक सदी से भी कुछ पुराना ये मकान देखरेख की कमी से लगभग खंडहर हो चुका. साल 1989 में सरकार ने इसका मालिकाना हक लेते हुए यहां एक शिशु एकेडमी खोल दी थी. इसके बंद होने के बाद से बीते लगभग दो दशक से मकान खाली पड़ा है. धीरे-धीरे खिड़कियां-दरवाजे भी गायब होने लगे.
इस बीच स्थानीय प्रशासन ने इसे खतरनाक स्ट्रक्चर घोषित करते हुए मकान गिराने का फैसला ले लिया. अक्सर जर्जर पड़े मकानों के साथ ऐसा होता है. लेकिन ये केवल मकान नहीं, बल्कि एक पूरी याद है, जिसके तार भारत से जुड़े हैं. फैसले की भनक पड़ते ही भारतीय विदेश मंत्रालय एक्टिव हो गया. उसने कहा कि हमारी तरफ से मकान को ठीक-ठाक करने में मदद दी जाएगी, लेकिन उसे गिराया न जाए.

कुछ समय पहले बांग्लादेश में रवींद्रनाथ टैगोर के घर को भी नुकसान पहुंचाया गया था. बाद में स्थानीय प्रशासन ने कुछ गिरफ्तारियां भी की थीं, लेकिन मकान की ताजा स्थिति पर कोई अपडेट नहीं.
बांग्लादेश के ढाका, चटगांव, सिलहट जैसे शहरों में विभाजन से पहले की कई हवेलियां और मकान हैं जो अब या तो सरकारी ऑफिस बन चुके हैं या खंडहर में तब्दील हो चुके. सिराजगंज में रवींद्रनाथ टैगोर का दोमंजिला पैतृक मकान था. साल 1840 में खरीदी हुई इस प्रॉपर्टी में टैगोर ने काफी समय बिताया और कई कविताएं, कहानियां लिखीं. बंटवारे के बाद लंबे समय तक मकान खाली पड़ा.
बाद में पाकिस्तान से बंटवारे के ठीक पहले यहां रवींद्र मैमोरियल म्यूजियम बना. ढाका भले ही नोबेल पुरस्कार विजेता के मकान को संरक्षित करने का दावा करे लेकिन इसी जून में साफ हो गया कि संग्रहालय का दर्जा देना काफी नहीं. जून में हुए हमलों के बीच साफ हुआ कि देखरेख की कमी से मकान जर्जर हो रहा है.
पाकिस्तान की बात करें तो कई नामचीन हस्तियों के मकान और जागीरें वहां बची हुई हैं, लेकिन देखरेख के अभाव में वे खंडहर हो चुकीं. पेशावर में राज कपूर के पुश्तैनी घर का जिक्र बार-बार आता है. कुछ साल पहले पाकिस्तान सरकार ने इसे राष्ट्रीय कहते हुए संग्रहालय में बदलने की बात की थी, लेकिन फिर कुछ हुआ नहीं.
इसी शहर में दिलीप कुमार का भी पैतृक मकान भी है. पाकिस्तान में कई बार इसे स्मारक में बदलने जैसी चर्चाएं हुईं लेकिन यहां भी कोई एक्शन नहीं लिया गया. लाहौर में भी कई ख्यात लोगों के घर रहे हैं, जिनमें लेखक सआदत हसन मंटो भी हैं, लेकिन सब कुछ वक्त की धूल के नीचे आ चुका.

तीनों देशों के बीच ऐसी कोई संधि नहीं, जिसके तहत साझा कल्चरल विरासत को सहेजा जा सके. हां, भारत और पाकिस्तान के बीच जरूर कुछ एमओयू हैं लेकिन वे कल्चरल एक्सचेंज तक सीमित हैं और इमारतों या छूटी हुई विरासत पर कोई बात नहीं हो सकी. इसी तरह से भारत और बांग्लादेश के बीच भी साल 1971 के बाद कुछ समझौते हुए लेकिन वे जमीन के सीमांकन तक ही रह गए. सांस्कृतिक या ख्यात लोगों की संपत्तियों को लेकर कोई ठोस करार नहीं हुआ.
ग्लोबल स्तर पर भी कई बड़े बंटवारे हुए. जैसे सोवियत संघ को ही लें तो नब्बे की शुरुआत में उसके टूटने पर 15 अलग देश बने. इसके तुरंत बाद लोगों में अपनी अचल संपत्तियों को लेकर फसाद होने लगा. बहुत से मुद्दों को लेकर करार हुए, लेकिन छूटी हुई निजी या साझा संपत्ति पर कोई बात नहीं हुई.
मशहूर लोगों की संपत्तियों के मामले में फैसला आमतौर पर उस देश की पॉलिसी और सरकार पर निर्भर रहा जिसमें संपत्ति रह गई थी. मसलन, रूस ने कई ऐसी प्रॉपर्टीज को नेशनल हैरिटेज की तरह संरक्षित किया, जबकि कई देशों ने अपने यहां आई संपत्ति को ध्वस्त भी कर दिया और नए निर्माण कर लिए.
ऐतिहासिक महत्व की संपत्तियां, जो बदहाल हैं, उनके लिए बीच-बीच में यूनेस्को जरूर काम करता है, लेकिन ये काफी सीमित रहा. दरअसल विवादित इमारतों के मामले में ये केवल मध्यस्थ रहता है. अगर कोई जगह वैश्विक हैरिटेज घोषित हो, तो यूनेस्को दोनों देशों को मिलकर उसका संरक्षण करने की सिफारिश करता है. मिसाल के तौर पर कोरिया की डीएमजेड या येरुशलम जैसे इलाकों में यूनेस्को कंसल्टेंट रहा. हालांकि, उसकी ताकत सीमित है और आखिरी फैसला संबंधित देशों की राजनीतिक सहमति पर रहता है.
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