साहिब बीबी और गुलाम: एक दुखद कहानी, जो भविष्यवाणी थी मीना कुमारी के अंधकारमय जीवन की...

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हमारी रेट्रो रिव्यू सीरीज में, हम मीना कुमारी की इस फिल्म में उनकी यादगार भूमिका को फिर से देखते हैं, जहां उनका अभिनय उनके बिखरते जीवन की कहानी कहता है, जिसमें प्यार, दुख और नशे की एक दुखद भविष्यवाणी बुनी गई है.

रेट्रो रिव्यू: साहिब बीबी और गुलाम (1962)
कलाकार: मीना कुमारी, गुरु दत्त, वोहीदा रहमान, रहमान
निर्माता: गुरु दत्त
निर्देशक: अब्रार अल्वी
संगीत: हेमंत कुमार
कहां देखें: यूट्यूब
क्यों देखें: मीना कुमारी की एक ऐसी महिला के रूप में प्रसिद्ध अदाकारी के लिए, जो अपने पति के प्यार की तड़प में है.
कहानी का संदेश: कला अक्सर जीवन की सच्चाई को दर्शाती है, जो प्यार, नुकसान और निराशा की एक दुखद भविष्यवाणी बन जाती है.

लिजेंडरी अभिनेत्री महजबीन अलीबक्स जिन्हें उनके जीवन में दो और नामों से जाना जाता था, जिनमें से एक उनका भाग्य बन गया. महजबीन ने पहली बार कैमरे के सामने केवल चार साल की उम्र में कदम रखा, अपनी मां की विरासत को आगे बढ़ाते हुए, जो स्वयं एक अभिनेत्री थीं. उनकी चौथी फिल्म 'एक ही भूल' के बाद उन्हें निर्देशक विजय भट्ट द्वारा ‘बेबी मीना’ का स्क्रीन नाम मिला.

1940 के अंत तक, मीना एक नन्ही खूबसूरत लड़की बन चुकी थीं, जिनका चेहरा हल्का गोल-मटोल और आंखें चमकदार थीं. उनकी मासूमियत और आकर्षण से प्रभावित होकर निर्देशक उन्हें रोमांटिक म्यूजिकल और कॉमेडी फिल्मों में जल्दी से कास्ट करने लगे.

फिल्म 'बैजू बावरा' में, जो दिलीप कुमार ने करने से मना कर दी थी और बाद में उन्हें इसका पछतावा हुआ, मीना ने एक गांव की सुंदर लड़की के रूप में नौशाद के गीत गाते हुए पूरे भारत का दिल जीत लिया. लगभग उसी समय, उन्होंने ‘मिस मैरी’ नाम की एक जीवंत कॉमेडी में भी अभिनय किया, जिसमें उनका सहज हास्य प्रदर्शन देखने को मिला.

यह सोचना भी मुश्किल था कि रोमांटिक कॉमेडी और म्यूजिकल फिल्मों की यह चमकदार अभिनेत्री समय के साथ दुखद नायिका बन जाएगी, एक ऐसा खिताब जो उसके ही जीवन की उथल-पुथल को दर्शाएगा. कुछ फिल्में कलाकारों और निर्देशकों के जीवन की भविष्यवाणी की तरह होती हैं, जो उनकी कथाएं कहती हैं. मीना कुमारी के रोमांटिक हीरोइन से दुखद किरदार में बदलने और शराब की लत में डूबने की कहानी को सबसे बेहतर तरीके से फिल्म साहिब बीबी और गुलाम (1962) दर्शाती है.

एक दुखद भविष्यवाणी

फिल्म साहिब बीबी और गुलाम एक विरोधाभास है, जो मनुष्यता के उस संघर्ष का वास्तविक चित्रण है, जो अनिवार्य भाग्य के खिलाफ होता है. 1950 के दशक के अंत तक, गुरु दत्त अपने निर्देशन से निराश हो गए थे क्योंकि उनकी फिल्म कागज के फूल का व्यावसायिक रूप से नुकसान हुआ था. वे केवल निर्देशन से नहीं, बल्कि अपने दुखी नायक के रूप में अपनी ऑन-स्क्रीन छवि से भी मुक्त होना चाहते थे, जो उन्होंने प्यासा और कागज के फूल जैसी फिल्मों में निभाई थी. फिर भी, उनका दुख की विषयवस्तु के प्रति लगाव बना रहा, जिसके कारण उन्होंने साहिब बीबी और गुलाम का निर्माण किया और उसमें मुख्य भूमिका निभाई, जो कोलकाता के जमींदारों के बीच नैतिक पतन की मार्मिक कहानी थी और इसके नायक चरित्र, छोटी बहू का, अभिनय मीना कुमारी ने किया था.

गुरु दत्त ने जो हमेशा दुख की छवि वाले अभिनेता थे, खुद को एक गांव के भोले-भाले युवा के रूप में चित्रित किया, जिसमें मजाक और सरलता थी. असली भारी दुखदाई भूमिका मिली मीना कुमारी को, जो कभी रोमांटिक म्यूजिकल और कॉमेडी फिल्मों की चमकदार नायिका थीं. छोटी बहू का उनका चित्रण, जो अधूरे प्यार और नशे की आदत में डूबी हुई महिला है, उनके करियर में एक बड़ा बदलाव था और इससे उन्होंने दुख की रानी का खिताब पाया, जो उनके निजी जीवन में भी उतार-चढ़ाव और परेशानी की गूंज थी.

यह कला और जीवन का ऐसा समागम था जिसने साहिब बीबी और गुलाम को भविष्यसूचक बना दिया. मीना कुमारी की छोटी बहू, अपने दुखी आंखों और नाजुक अदाओं के साथ, कलाकार के अपने संघर्षों जैसे प्रेम, हानि और नशे का एक प्रतिबिंब बनीं. गुरु दत्त भी अपनी फिल्म के दुखद पहलुओं से बच नहीं पाए, उनकी हास्य भूमिका उनके जीवन के भीतर छिपी उदासी को छिपा नहीं सकी. इन दोनों ने मिलकर एक ऐसी फिल्म बनाई जो उनकी निजी परेशानियों की छाया के साथ उनकी कला की प्रतिभा को मिला कर एक कालजयी उत्कृष्ट कृति बन गई. कुछ अभिशाप शायद कभी टाले नहीं जा सकते.

साहिब बीबी और गुलाम एक ऐसी फिल्म है जिसे बार-बार देखने पर भी नई-नई बातें समझ में आती हैं. लेकिन सबसे ज्यादा जो याद रहता है, वो हैं मीना कुमारी के वे दृश्य जहाँ वे अपने दर्द को बयां करती हैं- पहले एक ऐसी महिला के रूप में जो अपने पति के प्यार की आस में है, और फिर एक शराबी के तौर पर जो खुद को तबाह कर रही है. उनकी दबी हुई आवाज, खाली हंसी और दुखी आंखें छोटी बहू को एक ऐसा जिंदादिल दर्द का प्रतीक बना देती हैं, जो मीना कुमारी के अपने असहनीय जीवन की तस्वीर है और जिन्होंने उन्हें सिनेमा की दुखद रानी के रूप में अमर कर दिया.

मीना कुमारी ने शराब की लत से जूझती भूमिका इतनी प्रभावशाली तरीके से निभाई है कि उनके ढीली-ढाली आंखें, लड़खड़ाती बात और अस्थिर नजरें उनके किरदार में इतना जीवन डालती हैं कि वे प्यार, गुस्सा, लालसा और उदासी के बीच सहजता से झूलती दिखती हैं. कैमरा उनके पतन को करीब से दिखाता है, ऐसा दृश्य प्रस्तुत करता है जो दर्द के एहसास को इतनी गहराई से दर्शाता है कि फिल्म के दुखद ताने-बाने को समझना आसान हो जाता है और यह दर्शक के दिल-दिमाग पर गहरा असर छोड़ जाता है.

एक यादगार दृश्य में, छोटी बहू की व्यर्थ तड़प उनके पति की बेरुखी से टकराती है. नशे में धुत छोटी बहू अपने पति से, जो रहमान ने बेहद सुदृढ़ और बेरहमी से निभाया है, कहना चाहती है कि वह उसके साथ रहे. "ना जाओ सैयां," वह अपने दर्द और लालसा भरी आंखों से गाती है, उसके बाल उसके चेहरे पर गिर रहे हैं. जब वह पति ठुकरा देता है, तो मीना कुमारी जोर-जोर से हंसती हैं और दर्द भरे आंसू बहाने लगती हैं. रहमान की संतुलित लेकिन खतरनाक मौजूदगी मीना कुमारी की नाजुक स्थिति को और भी गहरा कर देती है, जिससे उनका अभिनय दर्शकों को हिंसा-सी अनुभूति कराता है. इस सीन की साफ सुथरी कैमरा शूटिंग और हेमंत कुमार के उदास संगीत ने इसकी भावना को और भी अधिक प्रभावशाली बना दिया है, जो भारतीय सिनेमा के लिए एक मानक बन गया है. केवल इन पंद्रह मिनटों के लिए, मीना कुमारी को सदा महान कलाकारों की सूची में शामिल किया जाना चाहिए.

मीना कुमारी के लिए यह पल केवल एक अभिनय नहीं था, बल्कि उनके अपने टूटते रिश्तों का एक दर्द भरा प्रतिबिंब था, उनके जीवन की उलझनों को दर्शाने वाला एक दर्पण था.

उनका विवाह कमाल अमरोही से, जो कि मशहूर फिल्म पाकीजा के निर्देशक थे, विफल हो चुका था. एक समय जब यह रिश्ता रचनात्मक सोच का मेल था, वह धीरे-धीरे बिगड़ गया क्योंकि कमाल की मालिकाना स्वभाव और सख्त नियम—जैसे नई फिल्मों पर हस्ताक्षर करने की मनाही और देर तक बाहर न रहने देना—ने उनके आत्म-विश्वास को दबा दिया. ऐसी खबरें भी आईं कि शारीरिक झगड़े भी हुए, जिसमें एक बार आमरोही के सहायक ने उन्हें थप्पड़ भी मारा, जिससे वे उनका घर छोड़ कर चली गईं और डिप्रेशन तथा शराब की लत में डूब गईं.

धर्मेंद्र के साथ उनका रिश्ता, जो फूल और पत्थर जैसी फिल्मों के दौरान बना, थोड़ी राहत लेकर आया. यह रिश्ता चल सकता था क्योंकि छोटी बहू और गुरु दत्त के पात्र भूतनाथ के बीच जैसी गतिशीलता थी. मीना कुमारी ने धर्मेंद्र का मार्गदर्शन किया और उनके टैलेंट को संजोया. लेकिन उनके अफवाह वाले प्रेम संबंध, जिसे धर्मेंद्र ने खारिज किया- टूटे दिल का कारण बने. यह ठुकराव, साथ ही उनकी बिगड़ती सेहत और वित्तीय संकट ने उनकी दुखद मौत को तेज किया, जब 38 साल की उम्र में उनकी लिवर सिरोसिस से मौत हो गई. उन्होंने एक ऐसी विरासत छोड़ी जो चमकदार और दुखद दोनों थी.

साहिब बीबी और गुलाम केवल कहानी नहीं बल्कि मीना कुमारी और गुरु दत्त के बीच त्रासदी के प्रति साझा लगाव का प्रमाण है. फिल्म की भव्य छवियां, आत्मा छू लेने वाला संगीत, और अब्रार अल्वी का सूक्ष्म निर्देशन (गुरु दत्त की देखरेख में) इंसानी कमजोरियों का एक कालजयी गीत बने.

फिर भी, इस काम की कीमत गहरी थी: छोटी बहू के पात्र में मीना कुमारी का डूबना उनके खुद के पतन को गहरा कर गया, जबकि गुरु दत्त भी अपनी दुखद प्रेरणा से बच नहीं पाए और उनका भी असमय निधन हो गया. साथ में उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई जो आज भी दिलों को छूती है. यह याद दिलाती है कि कुछ तकदीरें उन सितारों में लिखी होती हैं जिन्हें वे पर्दे पर दर्शाते हैं.

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