बिहार में आज मंगलवार को महागठबंधन का घोषणा पत्र जारी हुआ है. घोषणा पत्र का नाम 'बिहार का तेजस्वी प्रण' रखा गया है. जाहिर है कि इस बात पर अब मुहर लग गई है कि महगठबंधन में आरजेडी के सहयोगी दल अब उसके अनुयायी की भूमिका में हैं. मंच पर कांग्रेस का कोई बड़ा नेता नजर नहीं आया. प्रवक्ता पवन खेड़ा की उपस्थिति बता रही थी कि कांग्रेस मन मसोसकर इस मौके पर हाजिर हुई है. कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरू नदारद रहे.
कुछ दिनों से महागठबंधन के सहयोगी दलों में तेजस्वी यादव की कार्यशैली को लेकर लगातार विवाद सामने आ रहे थे. अब घोषणा पत्र का नाम तेजस्वी प्रण रखे जाने के बाद इस बात पर मुहर लग गई है. विरोधी दल तो पहले से ही तेजस्वी को अहंकारी बताते रहे हैं, पर जब चर्चा गठबंधन के भीतर चलने लगे तो सवाल उठना लाजिमी हो जाता है. सवाल यह है कि क्या तेजस्वी यादव की यह शैली आने वाले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो सकती है?
सीट शेयरिंग में दबदबा दिखाने का राजनीतिक प्रभाव
तेजस्वी यादव गठबंधन को अपने इशारे पर चलाने की रणनीति अपनाई हुई है उसका सबसे बड़ा उदाहरण सीट शेयरिंग में देखने को मिला था. RJD ने 143 सीटें हथिया लीं, बाकी सहयोगियों को कम से कम जैसे कांग्रेस 60, CPI 9, CPI(M) 4, CPI(ML) 20, VIP 15 सीटें दी गईं हैं.
कांग्रेस ने इसे अनुचित बताया, लेकिन तेजस्वी की दिल्ली यात्रा (राहुल गांधी से मुलाकात) के बावजूद फॉर्मूला फाइनल नहीं हुआ. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि राहुल गांधी के साथ वोटर अधिकार यात्रा ने तेजस्वी को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्धी दिलाई. यह सही है कि आरजेडी का संगठन बिहार में कांग्रेस से अधिक मजबूत है पर राहुल गांधी की व्यक्तिगत उपस्थिति से इस यात्रा को प्राण वायु मिला था. इसके बावजूद कांग्रेस को 2020 में मिली सीटों से भी कम सीटें दी गईं. जबकि अभी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट आरजेडी से बेहतर था.
बिहार चुनाव 2025 में नामांकन की अंतिम तिथि (21-22 अक्टूबर) के बाद भी महागठबंधन (RJD, कांग्रेस, वाम दल, VIP) में सीट बंटवारे पर सहमति नहीं बनी है परिणामस्वरूप, कुल 11 सीटों पर फ्रेंडली फाइट (सहयोगी दलों के बीच सीधी टक्कर) हो रही है. यह आंतरिक कलह का संकेत है, जिसके चलते विपक्षी के वोट बंटने का खतरा लगातार बढ़ रहा है. जाहिर है कि इससे NDA को फायदा पहुंचा सकती है. इस विवाद के अंत न होने के पीछे तेजस्वी की जिद ही सामने आ रही है.
खुद को CM चेहरा घोषित कराकर महागठबंधन का स्वाभाविक नेता बनने से चूक गए तेजस्वी
23 अक्टूबर को महागठबंधन ने तेजस्वी को आधिकारिक CM कैंडिडेट घोषित कर दिया. देखा जाए तो यह फैसला बैकफायर भी मार सकता है. कांग्रेस तेजस्वी यादव को सीएम कैंडिडेट घोषित करने के लिए बिल्कुल भी राजी नहीं थी. पर हर सभा हर मंच पर तेजस्वी को खुद को सीएम कैंडिडेट के रूप में खुद को प्रोजेक्ट कर रहे थे. तेजस्वी के हर घर को सरकारी नौकरी जैसे वादों पर भी सहयोगियों से राय नहीं ली गई. तेजस्वी अपने सहयोगी दलों के साथ इस तरह ट्रीट कर रहे हैं जैसे वो उनके साथी दल न होकर उनके अनुयायी दल बन गए हों.
एनडीए ने अभी तक खुलकर नीतीश कुमार के नाम पर मुहर नहीं लगाई है तो इसके पीछे बहुत से कारण हैं. और इसका फायदा भी उसे मिल सकता है. सीएम कैंडिडेट पर भ्रम बने रहने से एनडीए को लाभ ही होने वाला है. हमेशा से बंद मुट्ठी सवा लाख की होती है. नीतीश कुमार के समर्थक और बीजेपी के ऐसे समर्थक जो यह मानकर चलते हैं कि कोई नया नेतृत्व सामने आना चाहिए, दोनों ही तरह के मतदाताओं का समर्थन मिलने की उम्मीद है. एनडीए भी चाहती तो नीतीश कुमार को सीएम कैंडिडेट घोषित कर देती. पर राजनीतिक चतुराई इसी में है कि जनता के बीच भ्रम बना रहे.
अगर महागठबंधन में सीएम पद को लेकर भ्रम बना रहता तो बहुत से फायदे मिलते. जैसे अब कांग्रेस के परंपरागत वोटर सवर्ण और दलितों के कुछ परसेंट वोट अब महागठबंधन से बिदक सकते हैं. पर तेजस्वी ने सहयोगियों पर दबाव बनाकर खुद को सीएम कैंडिडेट घोषित करवा लिया. जाहिर है कि इसके दुष्परिणाम भी सामने आ सकते हैं.
सहयोगियों की अनदेखी और RJD-केंद्रित राजनीति
महागठबंधन का नाम तो साझेदारी का प्रतीक है, लेकिन व्यवहार में यह अब RJD-केंद्रित गठबंधन बन चुका है. तेजस्वी यादव की कार्यशैली में साझा परामर्श की बजाय एकतरफा निर्णय की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है.
कांग्रेस महागठबंधन का प्रमुख सहयोगी है, उसे सीट बंटवारे में हाशिए पर रखा गया. 2020 के चुनाव में जहां कांग्रेस को 70 सीटें मिली थीं, वहीं अब उसे 60 से भी कम सीटों पर समझौता करना पड़ा. वाम दलों (CPI, CPI-ML, CPI-M) के साथ भी यही स्थिति रही - जिन क्षेत्रों में इनकी जमीनी पकड़ थी, वहां RJD ने अपने उम्मीदवार उतार दिए.
गठबंधन की रणनीतिक बैठकों में भी तेजस्वी की भूमिका अंतिम निर्णयकर्ता की रही है न कि साझा नेतृत्व की. इस रुख से कांग्रेस और वाम दोनों ही असहज हैं. नतीजा यह कि भीतर ही भीतर एक असंतोष की लहर फैल रही है, जो चुनावी समय में साइलेंट डिस्कनेक्ट का रूप ले सकती है.
राजनीति में सहयोगी सिर्फ समर्थन नहीं देते बल्कि वोट ट्रांसफर का विश्वास देते हैं. और जब भरोसे की जगह असंतोष ले लेता है, तो गठबंधन केवल दिखावे में रह जाता है.
वरिष्ठ नेताओं और परिवार की उपेक्षा
RJD की ताकत हमेशा से उसके संगठित नेटवर्क और जातीय समीकरणों पर आधारित रही है.लालू प्रसाद यादव के समय में पार्टी में अनुभव और जनाधार दोनों का गहरा मेल था.अब्दुल बारी सिद्दीकी, भोला यादव या श्याम रजक जैसे अनुभवी चेहरे भी पार्टी के नेता के रूप में दिखते थे. अब पार्टी में केवल तेजस्वी ही दिखते हैं. आज की तारीख में तेजस्वी यादव का वन-मैन शो चल रहा है.
पार्टी मीटिंग्स में वरिष्ठ नेताओं को सिर्फ सुनने वाले की भूमिका में रखा गया है.युवा टीम पर भरोसा करना अच्छी बात है, लेकिन जब वही भरोसा वरिष्ठ अनुभव को दरकिनार कर दे, तो संगठन में असंतोष पनपने लगता है.RJD के कुछ पुराने नेता कहते हैं कि तेजस्वी यादव सुनते हैं, पर मानते नहीं हैं.
यह बात अब कोई ढंकी छुपी नहीं है कि लालू यादव के बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव और रोहिणी आचार्य की आवाज को दबाने के षडयंत्र में तेजस्वी यादव शामिल थे.
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