कर्बला की जंग में कौन थे 6 महीने के हजरत अली? जिनकी शहादत में मनाया जाता शब-ए-असगर

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Muharram 2025: मुहर्रम का महीना मुस्लिम समुदाय में सबसे खास माना जाता है. ये इस्लाम के चार पवित्र महीनों में से एक है. मुहर्रम का 10वां दिन यानी आशूरा वो दिन है जो कर्बला की उस दुखद कहानी को याद दिलाता है. 6 जुलाई रोज-ए-आशुरा, मुहर्रम का 10वां दिन आज मनाया जा रहा है. कर्बला में हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार ने सच और इंसाफ के लिए अपनी जान आज के दिन ही कुर्बान की थी. कर्बला में शहादत पाने वाले 6 महीने हजरत अली असगर की कहानी भी कुछ ऐसी जो आंखों में आंसू ला दे.  

कर्बला की इस दुखभरी दास्तां को लेकर इस्लामिक स्कॉलर मौलाना कारी इसहाक गोरा बताते हैं, 'कर्बला की वो जंग जो 680 ईस्वी का सबसे भयानक मंजर था. उस वक्त यजीद बिन मुआविया खलीफा था, लेकिन उसकी हुकूमत इस्लाम के उसूलों के खिलाफ थी. हजरत इमाम हुसैन, जो पैगंबर मुहम्मद के पोते थे, उन्होंने यजीद की बुरे कामों के खिलाफ आवाज उठाई थी. हजरत इमाम हुसैन यजीद के खिलाफ थे इसलिए वे अपने कुछ साथियों और परिवार के साथ कूफा जा रहे थे, लेकिन रास्ते में कर्बला यानी (आज का इराक) में यजीद की फौज ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था. 

अपनी सेना के साथ मिलकर यजीद ने इमाम हुसैन और उनके काफिले पर अत्याचार करना शुरू कर दिया था. उन्होंने इमाम हुसैन के लोगों को फरात नदी से पानी तक लेने से रोक दिया था और कई दिनों तक कैद करके पानी तक नसीब नहीं होने दिया था. बच्चे, औरतें, बूढ़े, सब प्यास से तड़प रहे थे. हालात इतने खराब हो गए थे कि लोग भूख और प्यास से बेहाल होने लग गए थे. ऐसे में ही इमाम हुसैन के सबसे छोटे बेटे, हजरत अली असगर की कहानी दिल को चीर देती है.

कौन थे हजरत अली असगर?

स्कॉलर मौलाना कारी इसहाक गोरा के मुताबिक, 'हजरत अली असगर को अब्दुल्लाह बिन हुसैन भी कहते हैं, ये इमाम हुसैन के सबसे छोटे बेटे थे. जब यजीद अपना कहर बरसा रहा था, तब अली असगर सिर्फ 6 महीने के थे. उनकी उम्र इतनी थी कि वह न युद्ध को समझते थे और न ही किसी तरह की कट्टरपंथ दुश्मनी को. कई दिनों तक पानी न मिलने की वजह से हजरत असगर भी तड़प रहे थे. उनकी मां उम्मे रुबाब अपने बच्चे की हालत देखकर रो रही थीं, लेकिन पीने के लिए पानी तो छोड़िए एक बूंद भी उन्हें नसीब नहीं हो रही थी. 

हजरत इमाम हुसैन का दर्दनाक पल

मौलाना कारी इसहाक गोरा आगे बताते हैं कि, 'आशूरा का दिन था और जंग जोरों पर थी. इमाम हुसैन अपने नन्हे बेटे को गोद में लेकर यजीद की फौज के सामने गए. उन्होंने अली असगर को उठाया और फौज से गुहार लगाई कि 'इसे थोड़ा सा पानी दे दो. अगर मुझसे तुम्हारी दुश्मनी है तो इस बच्चे पर तो रहम करो.' ये सुनकर कोई भी पिघल सकता था. लेकिन, यजीद की फौज में इंसानियत नाम की चीज बची ही नहीं थी. उनके एक सिपाही हुरमला बिन काहिल ने उस मासूम पर तीर चला दिया. वो तीर सीधे हजरत अली असगर की नन्ही सी गर्दन में लगा. 6 महीने के अली असगर उसी वक्त शहीद हो गए. इमाम हुसैन की गोद में उनके बेटे का खून बहने लगा. इमाम हुसैन ने बड़े सब्र के साथ अपने बेटे को जमीन में दफनाया और अल्लाह से दुआ मांगी.

हजरत अली असगर की शहादत कर्बला की सबसे दुख भरी कहानियों में से एक है. ये बताती है कि यजीद की फौज ने एक मासूम बच्चे तक को नहीं बख्शा. उनकी शहादत हमें सिखाती है कि सच्चाई के लिए हम किसी भी उम्र में कुर्बानी दी जा सकती है. 

मुहर्रम को क्यों कहते हैं शब-ए-असगर?

मुहर्रम में शिया समुदाय के लोग हजरत अली असगर की शहादत को बड़े दुख के साथ याद करते हैं. मजलिसों में हजरत अली असगर को याद करते हुए 'शब-ए-असगर' मनाया जाता है. इस दिन लोग अली असगर की तड़प और इमाम हुसैन के सब्र को याद करके रोते हैं. अली असगर को 'बाब-उल-हवाइज भी कहते हैं यानी वो जो जरूरतमंदों की पुकार सुनते हैं. 

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