Nepal Gen Z Protest: हिमालय की तलहटी में बसा पड़ोसी मुल्क नेपाल आज राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है. आज़ादी मिली तो हमें लोकतंत्र मिला, लेकिन नेपाल ने उस रास्ते पर देर से कदम रखा. और अब? काठमांडू, पोखरा, वीरगंज जैसी गलियों में आग लगी है. वजह... सोशल मीडिया बैन. फेसबुक, इंस्टा, टिकटॉक बंद. उसके बाद Gen-Z की उग्र भीड़ सड़कों पर उतरी. हाथ में स्लोगन वाले बैनर, डंडे और चेहरे पर गुस्सा. मांग साफ़ थी, आवाज़ दबाओगे तो हम और ज़ोर से चिल्लाएँगे. सोशल मीडिया पर बैन के बाद हो रहे हिंसक प्रदर्शनों और Gen-Z की क्रांति अब काठमांडू, पोखरा, वीरगंज जैसे शहरों को अपने ज़द में ले चुकी है.
लेकिन ऐसा पहली बार नहीं है कि काठमांडू की घाटियाँ सत्ता, राजशाही और लोकतंत्र की टकराहट की गूंज सुन रही हों. इससे पहले भी ऐसा कई बार हुआ है, जब नेपाल की सत्ता पर आसीन हुक्मरानों को जनता की बगावत झेलनी पड़ी है. कई बार तो विवाद शाही परिवार के अंतर्कलह के चलते भी उपजा है. इतिहास की उसी धुंध में हमें मिलता है एक किस्सा. साल था 2008. जब नेपाल के शाही परिवार में तोहफे में मिली एक कार को लेकर विवाद खड़ा हो गया. यह कोई साधारण कार नहीं थी, बल्कि जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर की भेंट की गई एक ऑलिव-ग्रीन मर्सिडीज़ बेंज कार थी. तो आइये जानें क्या था पूरा मामला-
हिटलर का नेपाल के राजा को तोहफा
नेपाल के शाही परिवार में इस कार को लेकर उठे विवाद को जानने से पहले यह समझ लेते हैं कि, जर्मनी में बनी यह कार हजारों किलोमीटर दूर नेपाल कैसे पहुंची. दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब यूरोप आग की लपटों में जल रहा था, तब हिटलर ने अपने विदेशी संबंधों को मजबूत करने के लिए कुछ मित्र राष्ट्रों और प्रभावशाली शासकों को भेंट स्वरूप तोहफे भेजे थें.
इन्हीं में से एक थें नेपाल के तत्कालीन महाराजा 'त्रिभुवन वीर विक्रम शाह देव' (नेपाल के आखिरी राजा ज्ञानेंद्र के दादा). जिनके लिए हिटलर ने 1938 मॉडल डेमलर-बेंज की यह अनोखी कार भेजी थी. हिमालय की तलहटी में बसा नेपाल उस समय सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य माना जाता था. जो जर्मनी के लिए एशियाई राजनीति में एक अहम कड़ी था. लेकिन यह इस तोहफे के पीछे हिटलर की एक मंशा छिपी थी.
गोरखा फौज का डर
गोरखा फौज अपनी बहादुरी, वफादारी और युद्ध में निडरता के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध थीं. हिटलर भी गोरखा फौज की ताकत और बहादुरी का कायल था. एडॉल्फ हिटलर ने एक बार कहा था कि अगर उसके पास गोरखा सैनिक होते, तो दुनिया की कोई भी सेना उसे हरा नहीं पाती. गोरखा की इसी ताकत को देखते हुए हिटलर ने नेपाल के राजा को यह कार तोहफे में दी थी. दरअसल, वो चाहता था कि, गोरखा आर्मी किसी भी कीमत पर अंग्रेजों का साथ न दे. अपनी इसी मंशा के चलते उसने डेमलर-बेंज की यह कार बर्लिन से 6,000 किलोमीटर दूर काठमांडू भेजा था.
लकड़ी के लट्ठे पर ढोई गई कार
कुछ जानकारों का मनना है कि, हिटलर द्वारा भेजी गई ये डेमलर-बेंज उस वक्त संभवत: नेपाल की पहली कार थी. उस दौर में पहाड़ियों से घिरे नेपाल में ऐसी सड़कें मौजूद नहीं थीं कि, उन पर कार चलाई जा सके. इसलिए इस कार को लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे पर बांधकर मजदूरों द्वारा ढोया गया और पहाड़ के दुर्गम इलाकों से होते हुए इसे राजधानी काठमांडू तक पहुंचाया गया था.
इस घटना की एक तस्वीर गाहें-बगाहें इंटरनेट पर सर्कूलेट होती रहती है, जिसको लेकर दावा किया जाता है कि, यह तस्वीर 1948 में जर्मन मूल के फ़ोटोग्राफ़र वोल्कमर कर्ट वेंटज़ेल (Volkmar Kurt Wentzel) ने नेशनल ज्योग्राफ़िक पत्रिका के लिए एक असाइनमेंट के तौर पर खींची थी. कुछ रिपोर्ट्स यह भी बताती हैं कि, इस तस्वीर को साल 1950 अमेरिकी ऑर्निथोलॉजिस्ट और वाइल्डलाइफ कंर्जवेस्टनिस्ट ने 'सिडनी डिलन रिप्ले' ने अपने एक आर्टिकल में भी छापा था. मैग्जीन में छपी इस तस्वीर के साथ कैप्शन लिखा था कि, "कारें मजदूरों को लेकर जाती हैं, लेकिन नेपाल के काठमांडू के पथरीले रास्तों पर मजदूर कारों को लेकर जाते हैं."
2008 का विवाद
राजशाही के पतन के बाद 2008 में जब नेपाल गणराज्य बना, तब इस कार को लेकर विवाद ने जन्म लिया. शाही परिवार के विभिन्न गुटों ने दावा किया कि यह सिर्फ एक ऐतिहासिक धरोहर नहीं, बल्कि "राजवंश की अस्मिता" का प्रतीक है. सवाल यह था कि इस कार का भविष्य क्या होगा? क्या यह संग्रहालय में रखी जाएगी ताकि जनता देख सके, या फिर शाही परिवार के किसी सदस्य की निजी संपत्ति के तौर पर दर्ज होगी?
यहीं से शुरू हुआ विवाद, जिसमें सिर्फ एक कार नहीं, बल्कि नेपाल के इतिहास, राजनीति और सामाजिक स्मृतियों की परछाइयाँ शामिल थीं. उस वक्त पूर्व राणा प्रधानमंत्री जोधा शमशेर की बेटी जनकराज लक्ष्मी शाह ने दावा किया था कि, कार को भारत ले जाया गया है.
खस्ताहाल हिटलर की कार
इस मामले में नेपाली टाइम्स मैग्जीन के 4 अक्टूबर 2002 के अंक में एक रिपोर्ट छपी थी. जिसके अनुसार, यह वही 1939 मॉडल डेमलर बेंज कार है, जिसे 1940 में जर्मन तानाशाह एडॉल्फ हिटलर ने राजा त्रिभुवन को भेंट किया था. उस समय से यह कार “त्रिभुवन कार” के नाम से जानी जाती रही, क्योंकि राजा स्वयं इसमें सवारी करते थे. उस वक्त इस ऐतिहासिक कार की हालत बेहद खराब थी. कार की हूड (छत) गायब थी और सीटों व दरवाजों की दशा खराब हो चुकी थी. हालत यह थी कि, उस वक्त इसकी जगह प्लास्टिक की शीट लगाकर किसी तरह ढंका गया था.
रिपोर्ट में यहा भी बताया गया था कि, कार को मरम्मत के लिए कभी सिंहदरबार गैराज ले जाया गया था, लेकिन वहां इसकी मरम्मत नहीं हुई. 1977 के आसपास थापाथली इंस्टीट्यूट में पढ़ाने वाले जर्मन शिक्षकों ने इस कार को देखकर इसे शिक्षण कार्य में इस्तेमाल करने का सुझाव दिया. आज भी यह कार स्वर्गीय महामहिम ईश्वरी राज्यलक्ष्मी देवी शाह के नाम पर रजिस्टर्ड है. इसी कारण इसका स्वामित्व थापाथली कैंपस को हस्तांतरित नहीं किया जा सका. कुछ वर्ष पहले इस दिशा में प्रयास किया गया था, लेकिन सफलता नहीं मिली.
कार ढ़ोने वाले आखिरी पोर्टर की मौत
23 दिसंबर 2020 के नेपाली टाइम्स में एक और आर्टिकल छपा, जिसका टाइटल था 'Nepal’s last car porter dies'. यानी नेपाल के आखिरी कार पोर्टर की मौत. इस लेख के बाद ये कार एक बार फिर से सुर्खियों में आई और नेपाल के नई पीढ़ी को पता चला कि, हिटलर द्वारा नेपाल के राजा को तोहफे में दी गई कार को ढोने वाले आखिरी पोर्टर हीरा बहादुर घलान की मौत हो गई है. हीरा बहादुर अंतिम जीवित कुली थें, जिन्होंने पुराने दौर में 25 वाहनों को पहाड़ी के रास्तों से काठमांडू तक लाने-ले जाने में मदद की थी. मौत के वक्त उनकी उम्र 89 वर्ष थी.
100 मजदूर और हफ्तों का सफर
उन दिनों एक कार को उठाकर ले जाने में तकरीबन 100 कुली की जरूरत हुआ करती थी. क्योंकि उस वक्त काठमांडू में कारों को चलाने के लिए उपयुक्त सड़कें नहीं थीं. कार को राजधानी तक पहुंचाने में हफ्तों का समय लगता था. जब कार काठमांडू पहुंचती थी तो उसे राज परिवार द्वारा फिर असेंबल कराया जाता था, जिसके बाद उनका इस्तेमाल शुरू होता था.
पाकिस्तानी अखबर 'द डॉन' की एक रिपोर्ट के अनुसार, मर्सिडीज बेंज की इस कार को काठमांडू ले जाने का काम सुबह 5 बजे शुरू हुआ था. इसके लिए लकड़ी और बांस का एक बड़ा स्ट्रेचर बनाया गया था, जिस पर कार को रखा गया. इस स्ट्रेचर को मजबूज लकड़ी के तनों से बांधा गया था, जिन्हें मजदूरों ने अपने कंधों पर उठाया था. तन पर मोटे सूती कपड़े और पैरों में झिनी चप्प्ले पहने ये पोर्टर (कुली) या मजदूर बड़े ही जोश के साथ आगे बढ़ते और चिल्लाते... 'अगाडि बढ'... मतलब आगे बढ़ो.
जब शुरू हुई कार की खोज
विडंबना यह थी कि हिटलर की वह गाड़ी, जो कभी ताकत और प्रभाव का प्रतीक मानी गई थी. अब टूटती हुई राजशाही और बदलते नेपाल का प्रतीक बन चुकी थी. यह कार जनता के लिए आकर्षण का केंद्र तो थी, लेकिन साथ ही अतीत की उस राजनीति की याद भी दिलाती थी जिसमें विदेशी ताकतें अपनी धाक जमाने के लिए उपहारों का सहारा लेती थीं. लेकिन अब वो कार कहां थी...?
इसी सवाल का जवाब ढूंढने की जिम्मेदारी जर्मन मैग्ज़ीन 'Der Spiegel' ने उठाई. इस बारे में मैग्ज़ीन ने मर्सिडीज बेंज से भी पूछा. लेकिन साल 2008 में कंपनी ने बिल्कुल सीधा जवाब दिया कि, उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. न ही वो हिटलर के इस गिफ्ट के बारे में कुछ जानते हैं और न ही नेपाल में की गई इसकी डिलीवरी या भारत में किए गए इसके शिपमेंट के बारे में कोई जानकारी उनके पास है. हालांकि कार की खोज में जुटे मैग्ज़ीन को बाद में पता चला कि, नेपाली राजा की मृत्यु के बाद संभवत: इस कार का इस्तेमाल मैकेनिक्स को ट्रेनिंग देने के लिए किया गया था.
हिटलर द्वारा तोहफे में दी गई इस कार को लेकर कुछ रिपोर्टस बताती हैं कि, ये कार काठमांडू के नारायणहिटी पैलेस म्यूजियम में है. हालांकि रहस्य आज भी बना हुआ है कि, क्या ये कार लौटकर नेपाल आई या इसने कभी नेपाल को छोड़ा ही नहीं. इस बारे में साल 2010 में नेपाली सरकार के एक अधिकारी ने कहा था कि, मर्सिडीज की मरम्मत की जाएगी ताकि महज के विजिटर्स को पैलेस के ग्राउंड में इस ऐतिहासिक कार को देखने का मौका मिले. लेकिन एक साल बाद काठमांडू पोस्ट ने इस प्रोजेक्ट को नाकाम बताया.
---- समाप्त ----