बंधक बनाने की साजिश, महल गिराने का प्लान और खून-खराबा... आखिर दलाई लामा को क्यों छोड़ना पड़ा था तिब्बत

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साल था 1959 और तीसरे महीने की आखिरी तारीख (31 मार्च 1959). इतिहास में यह दिन कैलेंडर में उस घटना के लिए दर्ज है, जब तिब्बती बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा ने एक निर्वासित तिब्बती के तौर पर भार में कदम रखा था. 17 मार्च को वो तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकले थे और हिमालयी पहाड़ों, दर्रों, घाटियों और छोटी सर्पिल नदियों को पार करते हुए तकरीबन 15 दिनों की यात्रा के बाद भारतीय सीमा में दाखिल हुए.

अपने मठ से तो वह पहले ही निकल चुके थे और लगातार हो रहे चीनी हमलों और अपने तिब्बती लोगों की गिरती हुई लाशों को देखते हुए 14वें दलाई लामा को अपनी युवावस्था में यह में यै फैसला करना पड़ा कि उन्हें अब यहां से निकलना होगा. 

दलाई लामा ने रातो-रात छोड़ा था तिब्बत
यात्रा के दौरान उनकी और उनके सहयोगियों की कोई ख़बर नही आने पर कई लोग ये आशंका जताने लगे थे कि उनकी मौत हो गई होगी. दलाई लामा के साथ कुछ सैनिक और कैबिनेट के मंत्री थे. चीन की नज़रों से बचने के लिए ये लोग सिर्फ रात को सफ़र करते थे. उस समय की बहुत सारी मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसे दावों की खबरें भी आईं कि 'बौद्ध धर्म के प्रभावी लोगों और मॉन्क की प्रार्थनाओं के कारण धुंध भरे बादलों ने ऐसा असर पैदा किया कि लाल जहाजों की नजरें पलायन कर रहे दलाई लामा और उनके दल के लोगों पर नहीं पड़ीं.

कैसे बिगड़ने लगे हालात?
आज से 66 साल पहले क्या हुआ, कैसे हुआ और परिस्थितियां कैसी थीं? दलाई लामा अपनी बॉयोग्राफी में उस दौर का बड़ी निराशा भरे शब्दों में जिक्र करते हैं. My Land My People किताब में दलाई लामा लिखते हैं कि तिब्बत में स्थितियां खराब होने लगी थीं, क्योंकि चीनी हस्तक्षेप अब खुलकर बढ़ने लगा था. तिब्बत में भी चीन के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा था और देखा जाए तो अब हम सब भावनाओं के सक्रिय ज्वालामुखी पर बैठे थे. खैर, स्थिति अभी तक कुछ संभली हुई थी और इसी दौराना आया हमारा मोनलम फेस्टिवल.

Dalai Lamaमोनोलम फेस्टिवल की एक धुंधली तस्वीर. सोर्स (Book- My Land and My People)

1 मार्च 1959, क्या हुआ था उस रोज?
दलाई लामा लिखते हैं कि, 'ये मार्च 1959 की पहली तारीख थी और ल्हासा के पवित्र जोखांग मंदिर में मोनलम उत्सव शुरू हो चुका था. इसलिए यह दिन खास था, लेकिन मेरे लिए और खास इसलिए क्योंकि मैं मेटाफिजिक्स के मास्टर की अंतिम परीक्षा दे रहा था. तिब्बत की राजनीतिक उथल-पुथल के बीच, मेरी धार्मिक शिक्षा मेरी सबसे बड़ी रुचि थी. लेकिन, एक अप्रत्याशित घटना हुई. लामा लिखते हैं कि 'हालांकि यह उतनी भी अप्रत्याशित नहीं थी क्योंकि इस उथल-पुथल वाले माहौल में ये कभी भी होना ही था.

तिब्बत को थी दलाई लामा के अपहरण की आशंका
दो चीनी जूनियर अधिकारी मुझसे मिलने आए, चीनी जनरल तान कुआन-सेन के भेजे दो जूनियर अफसर मुझसे मिलने आए और उन्होंने लगभग जिद पकड़ ली कि मैं चीनी सैन्य शिविर में उनके नाटकीय प्रदर्शन के लिए तारीख तय करूं. उत्सव की व्यस्तता के कारण मैंने 10 मार्च को तारीख तय करने की बात कही. चीनी अफसरों के आने से संदेह और कुछ अप्रिय की आशंका इसलिए भी गहराई क्योंकि सामान्य तौर पर जनरल के संदेश मेरे वरिष्ठ चैंबरलेन या मुख्य अब्बोट के जरिए आते थे. चीनी शासन के तहत, निमंत्रण अस्वीकार करना जोखिम भरा था, क्योंकि इससे उनकी नाराजगी और अप्रिय परिणाम हो सकते थे.

दलाई लामा को कार्यक्रम में अकेले क्यों बुलाना चाहता था चीन
खैर, 5 मार्च को, मैं नोरबुलिंग्का के लिए रवाना हुआ. हर बार तो यह शोभायात्रा भव्य होती थी, लेकिन इस बार चीनी अधिकारियों की गैर मौजूदगी ने सबका ध्यान खींचा. 7 मार्च को, जनरल के दुभाषिए ने फिर तारीख मांगी, और मैंने 10 मार्च तय की. 9 मार्च को, चीनी अधिकारियों ने मेरे अंगरक्षक कमांडर, कुसुंग देपोन, को बुलाया और असामान्य आदेश दिया: मेरे साथ कोई सशस्त्र गार्ड नहीं होगा, और स्टोन ब्रिज से आगे कोई तिब्बती सैनिक नहीं जाएगा. इस गोपनीयता की मांग ने संदेह को और बढ़ाया. 9 मार्च की रात, अफवाह फैली कि चीनी मुझे अपहरण करने की योजना बना रहे हैं.

पूर्वी प्रांतों में लगातार हो रही थी लामाओं की हत्या
पेकिंग (बीजिंग) में मेरे आने की बिना सहमति की घोषणा और पूर्वी प्रांतों में लामाओं की हत्या की कहानियों ने लोगों का डर बढ़ाया. 10 मार्च की सुबह, 30,000 लोग नोरबुलिंग्का को घेरकर चीनी शासन के खिलाफ नारे लगा रहे थे. भीड़ बेकाबू थी. एक मंत्री पर पत्थरबाजी और एक मठवासी अधिकारी की हत्या ने स्थिति को और तनावपूर्ण बना दिया. मैंने जनरल को सूचित किया कि मैं प्रदर्शन में नहीं जा सकता. मेरे कैबिनेट ने भीड़ को आश्वासन दिया कि मैं चीनी शिविर नहीं जाऊंगा. जनरल तान ने गुस्से में तिब्बती सरकार पर आंदोलन भड़काने का आरोप लगाया और कठोर कार्रवाई की धमकी दी. अब मैं दो ज्वालामुखियों के बीच था - मेरे लोगों का गुस्सा और चीनी सेना की ताकत. दलाई लामा लिखते हैं कि 'शांति की मेरी कोशिशें एक अनिश्चित भविष्य की ओर ले जा रही थीं. किसी को नहीं पता था क्या होने वाला है.'

Dalai Lama

ल्हासा में तनावपूर्ण स्थिति
किताब इस पूरे प्रकरण को बड़े ही सिलसिलेवार ढंग से पेश करती है और 1959 के उसी दौर में ले जाती है. दलाई लामा ने हर घटना को बहुत बारीकी से सामने रखते हुए स्थितियों को पेश किया है. 


वह किताब में लिखते हैं कि, ल्हासा में स्थिति बेहद तनावपूर्ण हो चुकी थी. एक जनरल ने घोषणा की, "अब समय आ गया है कि इन सभी प्रतिक्रियावादियों को नष्ट कर दिया जाए.... हमारी सरकार अब तक सहनशील रही है, लेकिन यह विद्रोह है और हम अब हम कार्रवाई करेंगे, इसलिए तैयार रहें." ये शब्द मेरे मंत्रियों के लिए एक अल्टीमेटम जैसे थे, जिससे उन्हें डर था कि यदि जनता का आंदोलन तुरंत बंद न हुआ, तो चीनी सेना सैन्य कार्रवाई करेगी. मेरे मंत्रियों को मेरी सुरक्षा की चिंता थी. वे मानते थे कि यदि मुझे कुछ हुआ, तो "तिब्बत का कुछ भी नहीं बचेगा."

दलाई लामा के महल पर थी गोले बरसाने की तैयारी
बाद में उसी शाम, जनरल तान कुआन-सेन का एक पत्र दलाई लामा को मिला. यह अगले कुछ दिनों में उनके तीन पत्रों में से पहला था. दलाई लामा ने लिखा कि मैंने सभी का जवाब दिया. चीनी ने बाद में इन पत्रों को प्रचार के लिए प्रकाशित किया, यह दावा करते हुए कि मैं उनकी सुरक्षा में जाना चाहता था, लेकिन "अतिवादी गुट" ने मुझे नोर्बुलिंगका में बंधक बनाया और भारत ले गया. यह पूरी तरह असत्य था.

दलाई लामा लिखते हैं कि मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि "जब मैंने ल्हासा छोड़ा, मैंने अपनी मर्जी से ऐसा किया. यह निर्णय मेरा था, जो एक हताश स्थिति में लिया गया. मैं अपने लोगों द्वारा अपहृत नहीं था; मुझ पर कोई दबाव नहीं था, सिवाय इसके कि ल्हासा में हर तिब्बती देख सकता था कि चीनी मेरे महल पर गोले बरसाने की तैयारी कर रहे थे, और यदि मैं रुका तो मेरी जान खतरे में थी.

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17 मार्च को बरसाए गए मोर्टार
16 मार्च को जनरल का तीसरा पत्र और न्गाबो का एक पत्र मिला. न्गाबो ने चेतावनी दी कि "शांति की बहुत कम संभावना है" और मुझे लोगों के नेताओं से संबंध तोड़ने को कहा. उन्होंने लिखा, "अगर आप कुछ विश्वसनीय अंगरक्षकों के साथ भीतरी दीवार के अंदर रहें और जनरल तान को बताएं कि आप किस भवन में हैं, तो वे निश्चित रूप से उस भवन को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे." इससे पता चला कि चीनी महल और भीड़ को नष्ट करने की योजना बना रहे थे, लेकिन मुझे बचाना चाहते थे.

16 मार्च की रात, चीनी तोपों और सैन्य तैयारियों की खबरें आने लगीं. लोगों में दहशत फैल गई, लेकिन वे महल छोड़ने को तैयार नहीं थे. 17 मार्च को दो मोर्टार शॉट्स की आवाज़ ने स्थिति को और भयावह बना दिया. मैंने और मंत्रिमंडल ने फैसला किया कि मुझे तुरंत ल्हासा छोड़ना होगा.

...आखिर दलाई लामा ने छोड़ दिया तिब्बत
दलाई लामा लिखते हैं कि, 'मैंने कहा, "मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है. मेरी धार्मिक शिक्षा ने मुझे इस शरीर को छोड़ने की ताकत दी है, लेकिन मेरे लोग और अधिकारी मेरे विचारों को साझा नहीं करते. उनके लिए दलाई लामा तिब्बत और तिब्बती जीवन का प्रतीक है." उनकी चिंता ही मेरे निर्णय का आधार बनी. हमने गुप्त रूप से पलायन की योजना बनाई. मैंने सैनिक की वेशभूषा पहनी और रात 10 बजे नोर्बुलिंगका छोड़ दिया. मैंने अपने प्रिय बगीचे को अलविदा कहा, जहां शांति थी, लेकिन बाहर तनाव चरम पर था. मैंने चुपके से नदी पार की, जहां घोड़े और एस्कॉर्ट तैयार थे. मेरे साथ मंत्रिमंडल, परिवार और अंगरक्षक थे. हमने कोई सामान नहीं लिया, सिवाय कुछ कपड़ों और मुहरों के. मैंने लोगों लिए पत्र छोड़े जिसमें कहा, "जब तक हमला न हो, गोली न चलाएं." इस तरह, मैंने तिब्बत छोड़ा, ताकि रक्तपात टल सके.

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