बाबा बर्फानी के दर्शन कर मौन हो गए थे स्वामी विवेकानंद, क्यों अनोखी बन गई थी ये अमरनाथ यात्रा

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हिमालय की दुर्गम पर्वतमालाओं में बसी गिरि कंदराओं में यूं तो कई तीर्थ स्थल हैं, लेकिन अमरनाथ तीर्थ की बात ही कुछ और है. हिमालय में ही मौजूद कैलास चोटी महादेव शिव का अपना घर, उनका निज धाम माना जाता है, जहां वह आसन जमाए ध्यान में लीन हैं. इसके बावजूद अमरनाथ की गुफा शिव-पार्वती के संक्षिप्त प्रवास और उनकी खुद की यात्रा के चलते श्रद्लुओं के मन में अलग ही श्रद्धा और भक्ति को जगाती है.

जिस तरह श्रीराम का वनगमन पथ पूरे भारत में एक तीर्थ की तरह है, ठीक उसी तरह हिमालय की गोद में बसी कश्मीर घाटी का ये तीर्थ कोई ठोस पौराणिक संदर्भ (हालांकि स्कंद पुराण, नीलमत पुराण और भृगु संहिता में अमरनाथ का जिक्र मिलता है) न होने के बावजूद जुलाई और अगस्त के महीने में जय बाबा बर्फानी के जयकारों से गूंज उठता है. 

हर रूप में सहज हैं शिव
शिव की भक्ति का केंद्रीय भाव है उनकी सहजता. शिव उन सभी अपेक्षाओं के मूर्त और साकार स्वरूप हैं जो एक आदमी, खास तौर पर मनुष्यों में पुरुषों से की जाती है. वह अगर राजा हैं तो बहुत दयालु हैं, न्यायी हैं. सभी को देखने का उनका नजरिया समानता से भरा हुआ है. पति के रूप में वह श्रीराम से कहीं अधिक आदर्श हैं और भगवान के तौर पर बेहद सरल हैं. सबसे बड़ी बात कि विषम परिस्थितियों में भी शिव विचलित नहीं दिखते हैं और परिवार को साथ लेकर चलते हैं. देवताओं में गृहस्थ के तौर पर सबसे बड़े उदाहरण शिव हैं तो योगियों में भी योग का सबसे ऊंचा पैमाना भी शिव ने ही स्थापित कर रखा है. 

Amarnath Yatra

अमरनाथ यात्रा से अभिभूत हुए थे शिवजी
इसलिए वह भारत में योगी परंपरा के न जाने कितने पंथों-मार्गों और नीतियों के आराध्य देव हैं. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत की सनातन परंपरा का डंका पूरे विश्व में बजवाने वाले स्वामी विवेकानंद खुद शिव से अभिभूत थे और जब उन्होंने अमरनाथ की दिव्य यात्रा की थी, तब इस परम पावन हिमलिंग दर्शन ने उन्हें भीतर तक शांत कर दिया था. उतना ही शांत, वैसा ही मौन का आभास जैसा उन्होंने पहली बार कोलकाता में महाकाली से साक्षात्कार  के बाद अनुभव किया था.

भगिनी निवेदिता ने किया है किताब में जिक्र
स्वामी विवेकानंद ने जुलाई-अगस्त 1898 को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी. उन्होंने इसे बेहद प्रेरणादायक बताया था. स्वामी जी की शिष्या के तौर पर उनके साथ रहीं भगिनी निवेदिता ने इस यात्रा का जिक्र बहुत विस्तार से किया है. स्वामी जी की यात्राओं पर आधारित अपनी किताब "Notes of Some Wanderings with the Swami Vivekananda' में भगिनी निवेदिता ने पूरे एक चैप्टर में अमरनाथ यात्रा का वर्णन किया है. इस यात्रा में वह भी साथ थीं और उन्होंने उन सभी पड़ावों का जिक्र खूबसूरती से जिक्र किया है, जहां-जहां स्वामी विवेकानंद अपने दल के साथ रुकते हुए अमरनाथ यात्रा के लिए गए थे.

कैसे बनी अमरनाथ यात्रा की योजना
भगिनि निवेदिता लिखती हैं कि, 'अछबल (जम्मू-कश्मीर में एक गांव) में एक खुले आसमान के नीचे भोजन के दौरान, स्वामी ने अचानक कहा कि वह तीर्थयात्रियों के साथ अमरनाथ चलेंगे. इसके बाद ही यात्रा के प्रभारी राज्य अधिकारी की मदद से, इस अनूठे अनुभव की तैयारियां शुरू हो गईं. बादलों से भरे आसमान के कश्मीर की धरती उन दिनों में तीर्थयात्रियों से भरी-पूरी थी.  

तैयारी के बाद यात्रा शुरू हुई. भगिनी निवेदिता लिखती हैं कि सब कुछ बहुत शांत, व्यवस्थित और रमणीय था. दो-तीन हजार लोग एक मैदान में डेरा डालते और भोर होने से पहले उसे छोड़ देते, बिना कोई निशान छोड़े. मैदानों में सिर्फ वो राख रह जाती जो बीती रात में आग थी और जिसने पेट में जलती भूख की आग को शांत किया था. लोग अपने साथ एक चलता-फिरता बाजार ले जा रहे थे और संगठन उनकी सहज प्रवृत्ति में था. 

Amarnath Yatraभगिनी निवेदिता, जो अमरनाथ यात्रा में स्वामी विवेकानंद के साथ थीं (Notes of Some Wanderings with the Swami Vivekananda)

रास्ते भर चला शिवचर्चा और दर्शन-वेदांत की बातचीत का दौर
शिविर के एक हिस्से में एक चौड़ी सड़क बन जाती, जहां सूखे मेवे, दूध, दाल और चावल खरीदे जा सकते थे. तहसीलदार का तंबू, जिसके एक तरफ स्वामी का तंबू और दूसरी तरफ मेरा तंबू होता, आमतौर पर शाम को आग जलाने के लिए किसी सुविधाजनक स्थान के पास रखा जाता था, और इस तरह उनका पड़ोस एक सामाजिक केंद्र बन जाता था. अलग-अलग संप्रदायों के सैकड़ों साधु, कितने ही विद्वान और ब्राह्मणों-पंडितों की टोलियां, कुछ अलग पेशेवर लेकिन दर्शन में रुचि रखने वाले...ये हर पड़ाव पर स्वामी के तंबू में इकट्ठा होते और दिन के उजाले में गहन बातचीत में डूबे रहते.

यात्रा मार्ग को देखकर भगिनी निवेदिता के अनुभव
स्वामी ने बाद में हमें बताया कि उनकी बातचीत का विषय शिव ही था, और जब वे कभी-कभी उनका ध्यान आसपास की दुनिया की ओर खींचते, तो वे गंभीरता से विरोध करते थे. विदेशी भी इंसान हैं, वे तर्क देते थे, फिर स्वदेश और विदेश में इतना भेदभाव क्यों? निवेदिता लिखती हैं कि मेरा विदेशी मन यह नोट करने से खुद को नहीं रोक सका कि तहसीलदार खुद और तीर्थयात्रा के कई अधिकारी और सेवक मुसलमान थे, और किसी ने भी उनके गुफा में हिंदू भक्तों के साथ प्रवेश करने पर आपत्ति नहीं की थी. तहसीलदार बाद में कुछ दोस्तों के साथ आए, और स्वामी से औपचारिक रूप से शिष्य के रूप में स्वीकृति मांगी. इसमें किसी को कुछ भी असंगत या आश्चर्यजनक नहीं लगा.

तीर्थयात्रा आगे बढ़ी और पहलगाम (जो चरवाहों का गांव था) में शिविर एक दिन के लिए एकादशी मनाने के लिए रुका. यह एक खूबसूरत छोटा सा घाट था, जिसका अधिकांश हिस्सा एक पहाड़ी नदी के कंकड़ों से घिसे बिस्तर में रेतीले टापुओं से भरा था. इसके आसपास की ढलानें चीड़ के पेड़ों से अंधेरी थीं, और इसके सिरे पर पहाड़ के ऊपर सूर्यास्त के समय चंद्रमा दिखाई दिया, जो अभी पूर्ण नहीं हुआ था. यह स्विट्जरलैंड या नॉर्वे जैसा ही दृश्य था. 

जब अंतिम यात्रा शुरू हुई, हमने अपनी टोली के बाकी लोगों को डेरा डाले छोड़ दिया. चारो ओर अनुपम सौंदर्य बिखरा हुआ था. पहले दिन हमने एक चीड़ के जंगल में डेरा डाला. अगले दिन, हमने हिमरेखा पार की और एक जमी हुई नदी के किनारे तंबू लगाए. उस रात, अधिक ऊंचाई के कारण आग जलाने में मुश्किल हुई और ईंधन की खोज में भटकना भी पड़ा.

जब हुए अमरनाथ की गुफा के दर्शन
आखिरकार, नियमित रास्ता खत्म हुआ, और हमें पगडंडियों के साथ, खड़ी ढलानों पर चढ़ना-उतरना पड़ा, जब तक हम उस पत्थरों से भरे गलियारे तक नहीं पहुंचे, जहां अमरनाथ की गुफा मौजूद थी. जैसे ही हम आगे बढ़े, हमारे सामने बर्फ से ढके शिखर दिखे, जिन पर नई गिरी बर्फ का सफेद आवरण था और गुफा में, एक ऐसी जगह पर जहां सूरज की रोशनी कभी नहीं पहुंचती, वहां महान बर्फ का लिंगम चमक रहा था. मैंने देखा कि लोगों की आंखों में बर्फ सी ही सुफैद जलधारा थी, जिसे आंसू नहीं भक्ति कहना ठीक होगा और मैं समझ पायी कि एक लंबी प्रतीक्षा के बाद अपने आराध्य को देख पाने का अनुभव कैसा होता होगा. 

स्वामी विवेकानंद ने किया हर रीति का पालन
मैं यात्रा के इस पूरे पल में स्वामी को भी देख रही थी. उन्होंने यात्रा के दौरान हर रीति-रिवाज का पालन किया था. उन्होंने माला जपी, व्रत रखे, और दूसरे दिन नदी के कंकड़ों को पार करते हुए पांच धाराओं (पंचतरणी) के बर्फीले पानी में स्नान किया. फिर जब वह गुफा में दाखिल हुए, उन्हें ऐसा लगा जैसे उन्होंने शिव को अपनी आंखों के सामने प्रत्यक्ष देख लिया हो. तीर्थयात्रियों की भीड़ के भनभनाते, गूंजते शोर और ऊपर कबूतरों के फड़फड़ाने के बीच, उन्होंने दो-तीन बार घुटनों के बल प्रणाम किया, जिसे किसी ने नहीं देखा और फिर, डरते हुए कि कहीं भावनाएं उन्हें अभिभूत न कर दें, वह चुपचाप उठे और बाहर निकल गए. 

Amarnath Yatraस्वामी विवेकानंद (Book- Notes of Some Wanderings with the Swami Vivekananda)

क्या रही उनकी अनुभूति
उन्होंने बाद में कहा कि इन संक्षिप्त क्षणों में उन्हें शिव से अमर का वरदान मिला – जब तक वह स्वयं न चाहें, तब तक मृत्यु न आए. इस तरह, शायद, वह बचपन से चली आ रही वह आशंका पराजित हुई या पूरी हुई, कि वह किसी शिव मंदिर में, पहाड़ों के बीच मृत्यु को प्राप्त होंगे. गुफा के बाहर, असहाय लोगों का कोई शोषण नहीं था. अमरनाथ अपनी सादगी और प्रकृति के निकटता के लिए अमर है. 

तीर्थयात्रा रक्षाबंधन के महान दिन पर समापन करती है, और हमारे कलाई पर उस संस्कार के लाल और पीले धागे बांधे गए. बाद में, हमने नदी के किनारे कुछ ऊंचे पत्थरों पर आराम किया और भोजन किया, फिर अपने तंबुओं में लौट आए. स्वामी अभी भी उस स्थान से, लिंगम के दर्शन से अभिभूत थे. उन्हें लगा कि उन्होंने कभी इतनी सुंदर जगह नहीं देखी. वह चुप बैठे रहे, बिल्कुल मौन. बर्फ के अद्भुद स्तंभ की शुद्धता और सफेदी ने उन्हें चकित और मंत्रमुग्ध कर दिया था. गुफा ने उन्हें कैलास का रहस्य प्रकट किया था और अपने जीवन के बाकी समय में, उन्होंने उस स्मृति को संजोया कि कैसे उन्होंने एक पहाड़ी गुफा में प्रवेश किया था, और वहां भगवान के साथ आमने-सामने हुए थे.

शिव दर्शन के बाद मौन हो गए थे स्वामी विवेकानंद
स्वामी के लिए यह क्षण स्वर्ग के द्वार खुलने जैसा था. भगिनी निवेदिता लिखती हैं कि 'उन्होंने कहा, “मुझे खुद को कसकर थामना पड़ा, वरना मैं बेहोश हो जाता” उनकी थकान इतनी थी कि डॉक्टर ने बाद में कहा कि उनका दिल रुक जाना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय वह स्थायी रूप से बढ़ गया था. उन्होंने भोजन के दौरान कहा-  “हिमलिंगम स्वयं शिव हैं, मैंने कभी किसी धार्मिक स्थान का इतना आनंद नहीं लिया!” यह तीर्थयात्रा अपना काम करेगी. इसके प्रभाव बाद में दिखेंगे. मेरे भीतर दिखेंगे. निवेदिता लिखती हैं, स्वामी वापस लौटकर भी काफी समय मौन ही रहे, ऐसा पूर्णता और दिव्यता मैंने उनमें पहले नहीं देखी थी.

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